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सद्भावना कायम रहे
पर्व-त्योहारों को तो हर साल आना है, पर क्या यह आवश्यक है कि पवित्र तिथियों पर हिंसा भी अपने वीभत्स चेहरे के साथ सामने आये? रामनवमी के अवसर पर पश्चिम बंगाल, बिहार और ओड़िशा में कुछ जगहों पर भड़की हिंसा के संदर्भ में यह प्रश्न पूछा ही जाना चाहिए. बीते दिनों में अनेक राज्यों में […]
पर्व-त्योहारों को तो हर साल आना है, पर क्या यह आवश्यक है कि पवित्र तिथियों पर हिंसा भी अपने वीभत्स चेहरे के साथ सामने आये? रामनवमी के अवसर पर पश्चिम बंगाल, बिहार और ओड़िशा में कुछ जगहों पर भड़की हिंसा के संदर्भ में यह प्रश्न पूछा ही जाना चाहिए. बीते दिनों में अनेक राज्यों में हिंसा किसी कर्मकांड की ही तरह दोहरायी गयी है.
सांप्रदायिक नारों और हथियारों से लैस भीड़ का प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हुए जुलूस निकालना, उत्पात मचाना, जान-माल का नुकसान करना, निषेधाज्ञा और कर्फ्यू लगना- यह सब किसी कर्मकांड की तरह घटित हुआ. यह कहकर तो संतोष नहीं किया जा सकता है कि प्रशासनिक ढिलाई के कारण उपद्रवी तत्वों को मनमानी करने का मौका मिला. यह भी सोचा जाना चाहिए कि प्रशासनिक ढिलाई का मर्ज लाइलाज क्यों होता जा रहा है और विविधताओं का सम्मान करनेवाले एक लोकतंत्र के रूप में हमें इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ रही है? त्योहार निजी नहीं होते और उन्हें अपने घर की चारदीवारी के भीतर सीमित रखना भी संभव नहीं है.
त्योहारों से जुड़े कुछ कर्मकांड सामुदायिक होते हैं और इस नाते त्योहारों का सामुदायिक शक्ति-प्रदर्शन का माध्यम बनकर उभरना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. त्योहारों के सार्वजनिक पक्ष- पूजन के मंत्रोच्चार, प्रतिमा विसर्जन, मातमी जुलूस या फिर खास नमाज की अदायगी के अवसर पर सामुदायिक पहचान और उससे जुड़े गर्व की घोषणा के मौके में तब्दील हो गये हैं.
निहित स्वार्थवश ऐसे उत्सवों को सांप्रदायिक गोलबंदी के लिए आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है. ऐसे में चुनावी सियासत के उस स्वभाव के बारे में भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है, जो हर सांप्रदायिक गोलबंदी को जनाधार जुटाने के एक मौके के रूप में देखती है. हिंसा में हमेशा जनता के ही कुछ लोग शामिल होते हैं, परंतु यह नहीं कहा जा सकता है कि लोग स्वभाव से ही हिंसक हैं. रोजमर्रा के बरताव में लोगों में ऐसी हिंसा शायद ही दिखायी देती है. सो, बड़े जतन से बनायी और फैलायी गयी उन रूढ़ छवियों के बारे में सोचा जाना चाहिए, जो एक-न-एक तर्क से प्रचलित सोच के भीतर यह धारणा दाखिल करती हैं कि फलां समुदाय स्वभाव से ही हिंसक है. यह बात भी तय है कि आम लोगों को भीड़ में बदलने और उकसाने का काम निहित स्वार्थों द्वारा अंजाम दिया जाता है.
धार्मिक अवसरों पर तनाव और हिंसा रोकने के लिए एक तो शासन-प्रशासन को मुस्तैद रहना होगा, ताकि यदि बात बिगड़े भी, तो तुरंत काबू पाया जा सके. दूसरी जरूरत यह है कि सभ्य और लोकतांत्रिक समाज के रूप में हम ऐसे तत्वों को आयोजनों से दूर रखें तथा उनके बहकावे में न आएं. राजनीतिक, सामाजिक और सामुदायिक संगठनों को भी जिम्मेदारी से अपनी भूमिका निभानी चाहिए. धार्मिक अवसर पर हमें मनुष्यता के श्रेष्ठ मूल्यों का प्रदर्शन करना चाहिए और आपराधिक आचरणों से दूर रहना चाहिए.
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