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संविधान, लोकतंत्र और हम
रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार कभी-कभी कुछ परिचर्चाओं और संगोष्ठियों के विषय एक साथ सामान्य जन और विशिष्ट जन सबके लिए उपयोगी, सार्थक आैर आवश्यक होते हैं. 69वें गणतंत्र दिवस के पूर्व दिवस और मतदाता दिवस (25 जनवरी, 2018) पर रांची में आयोजित एक परिचर्चा का विषय ‘संविधान, लोकतंत्र और हम’ था. भारतीय संविधान का पहला शब्द […]
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
कभी-कभी कुछ परिचर्चाओं और संगोष्ठियों के विषय एक साथ सामान्य जन और विशिष्ट जन सबके लिए उपयोगी, सार्थक आैर आवश्यक होते हैं. 69वें गणतंत्र दिवस के पूर्व दिवस और मतदाता दिवस (25 जनवरी, 2018) पर रांची में आयोजित एक परिचर्चा का विषय ‘संविधान, लोकतंत्र और हम’ था.
भारतीय संविधान का पहला शब्द है ‘हम’. ‘उद्देशिका’ (प्रिएमबल) का यह आरंभिक शब्द है, जिसमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है. धर्म, जाति, रंग, भाषा, समुदाय, लिंग आयु किसी भी भेद से रहित है यह ‘हम’. यह सर्वाधिक मूल्यवान शब्द है, जिसमें मनुष्य को मनुष्य रूप में ही देखा गया है.
सुप्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास (1916-1999) ने अपनी एक पुस्तिका ‘दि सोशल सिस्टम ऑफ मैसूर विलेज’ (1955) में सर्वप्रथम ‘वोट बैंक’ पद का प्रयोग किया था.
‘वोट बैंक’ प्रतिनिधि लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है, क्योंकि इससे हम मतदाताओं को समुदाय आदि के आधार पर विभाजित करते हैं. 26 नवंबर, 1949 को संविधान को हमने ‘अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित’ किया था. भारत क्या एक ‘संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बना? क्या हम सबको ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय’ प्राप्त हुआ है? क्या हमने सचमुच ‘विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता’ प्राप्त की है? प्रतिष्ठा और अवसर की समता क्या सबको मिल गयी है? भारतीय संविधान में एक व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करनेवाली जिस ‘बंधुता’ की बात कही गयी है, उसे राजनीतिक दलों ने कमजोर किया या विकसित किया?
भेदरहित समाज बनाने के बदले राजनीतिक दलों ने सामाजिक भेदभाव बढ़ाने के कम प्रयत्न नहीं किये हैं.संविधान राज्य और नागरिक के बीच एक प्रकार की संविदा (कांट्रैक्ट) है, रिश्ता है. राज्य ने अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं किया. संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया गया है.
संविधान की शपथ लेनेवालों को संविधान की चिंता नहीं है. पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने साफ शब्दों में यह कहा था कि भाजपा सत्ता में संविधान बदलने और ‘सेकुलर’ शब्द हटाने के लिए आयी है. उनके इस कथन का उनके दल ने खंडन किया था, पर सच्चाई यह है कि संविधान और लोकतंत्र के पक्ष में आरएसएस और गोलवलकर के विचार नहीं रहे हैं. आरएसएस ने आरंभ में संविधान को मान्यता नहीं दी थी.
30 नवंबर, 1949 के ‘ऑर्गेनाइजर’ के संपादकीय में भारतीय संविधान की आलोचना की गयी थी. यह कहा गया था कि भारत के नये संविधान में कुछ भी ‘भारतीय’ नहीं है. भारतीय संविधान आरएसएस की वैचारिकी-सैद्धांतिकी के विरुद्ध है. इसे कमजोर करनेवाली अनेक शक्तियां हैं, जिनमें आरएसएस प्रमुख है, क्योंकि वह ‘सेकुलर’ नहीं, ‘हिंदू राष्ट्र’ के पक्ष में है.
संविधान में जिस सामाजिक-राजनीतिक न्याय की बात कही गयी है, उसे दिलानेवाली प्रमुख संस्था न्यायपालिका है.सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने निष्पक्ष न्यायपालिका पर 12 जनवरी, 2018 की प्रेस कांफ्रेंस में प्रश्न खड़े किये हैं. लोकतंत्र सदैव संवाद और असहमति के साथ जीवित रहता है. सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख न्यायाधीश का चार वरिष्ठ जजों से संवाद न होने के कारण ही चार जजों ने प्रेस कांफ्रेंस के जरिये राष्ट्र के साथ संवाद किया- ‘हमें राष्ट्र के साथ संवाद करने की तुलना में कोई विकल्प नहीं छोड़ा गया है.’ संस्थाओं और देश की हिफाजत की चिंता हमारे जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों को नहीं है.
अगर होतीं, तो आज ‘संविधान बचाओ, देश बचाओ’ के नारे नहीं लगाये जाते.संविधान और लोकतंत्र को अशक्त करनेवाले क्या ‘हम’ हैं? हम यानी भारत के सामान्य नागरिक? संविधान की शपथ लेनेवालों ने संविधान को कमजोर किया है. संविधानेतर शक्तियों पर अंकुश नहीं लगाया है.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी भाजपा शासित कई राज्यों में अभी तक (26 जनवरी, 2018) ‘पद्मावत’ फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो पाया है. संविधान और लोकतंत्र को कमजोर करनेवालों पर सख्त रवैया नहीं अपनाया जाता है. संविधानेतर और अलोकतांत्रिक शक्तियों को संरक्षण देकर भक्ति और दल विशेष को लाभ पहुंचाया जाता है. इससे देश और समाज का नुकसान होता है.
यहां मुख्य प्रश्न राज्य और सरकार की भूमिका का, राजनीतिक दलों की, आस्था का है, कि वह किसके पक्ष में है? वह ‘हम’ (भारतीय जन) के पक्ष में है या किसी जाति, समुदाय और धर्म विशेष के पक्ष में है? क्या संविधान और लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व केवल उस भारतीय जनता और मतदाता पर है, जिसकी स्वतंत्र भारत में आज तक आवाज नहीं सुनी गयी? जनता क्या केवल मतदान करने के लिए और सरकारी ‘हुक्म’ का पालन करने के लिए है?
संकट में संविधान है, लोकतंत्र है, और ‘हम’ हैं. हम सभी संकटग्रस्त हैं. राज्य और सरकार को अपनी जन भूमिका का निर्वहन करना था. अब विचार का विषय यह है कि क्या भारत सर्वसत्तावादी शासन-प्रणाली (टोटैलिटेरियन रेजीम) की ओर बढ़ रहा है?
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