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पैराडाइज पेपर्स के लोग

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया पैराडाइज पेपर्स के खुलासे में बड़े पैमाने पर भारतीय उद्योगपतियों, राजनेताओं और अभिनेताओं के नाम ‘कर चोरी’ के मामले में उजागर हुए हैं. इसमें 180 देशों के राजनेताओं, उनके संबंधियों, उद्योगपतियों और सेलेब्रेटीज के नाम शामिल हैं, जिन्होंने अपने देश की सरकारों से अपनी आय […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
पैराडाइज पेपर्स के खुलासे में बड़े पैमाने पर भारतीय उद्योगपतियों, राजनेताओं और अभिनेताओं के नाम ‘कर चोरी’ के मामले में उजागर हुए हैं. इसमें 180 देशों के राजनेताओं, उनके संबंधियों, उद्योगपतियों और सेलेब्रेटीज के नाम शामिल हैं, जिन्होंने अपने देश की सरकारों से अपनी आय और उसका देय कर छुपाया है.
इस पेपर की लंबी सूची को देखकर लगता है कि अरस्तू और चाणक्य ने आदर्श राज्य की परिकल्पना करते हुए कभी सोचा भी नहीं होगा कि देश चलानेवाले देश के अंदर संविधान और कानून की दुहाई देते रहेंगे और गैरकानूनी तरीके से देश की सीमा से बाहर जाकर अपनी संपत्ति का संचयन भी करेंगे. वे अपने देश में तय कर की दरों को आम जनता से सख्ती से वसूली करेंगे, लेकिन खुद कर की चोरी करके अमीर बने रहेंगे.
बिल्कुल हाल में घटित पैराडाइज पेपर्स, पनामा पेपर्स या उसके पहले के खुलासों ने यह साबित कर दिया कि आदर्श राज्य जैसी कोई परिकल्पना आज पूंजीवादी समय में नहीं है. क्योंकि, राज्य निरंतर ही एक कमजोर और असहाय संस्था के रूप में तब्दील होता जा रहा है. कहने का आशय यह है कि वैश्विक धन या पूंजी राज्य और उनकी सरकारों के नियंत्रण से बाहर है.
शुरू से ही राज्य के लिए ‘कर प्रणाली’ शासन चलाने का सबसे आधारभूत हिस्सा रहा है. हमने इतिहास में देखा है कि शासकों की अदूरदर्शी ‘कर प्रणाली’ के अधीन आम जनता हमेशा प्रताड़ित रही है.
एक अकुशल राज्य में कर प्रणाली ही सबसे ज्यादा हिंसक हुआ करती थी. लेकिन, आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में इसे आम जनता के लिए सुविधाजनक बनाने की कोशिश हुई. उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के भेद को लोकतांत्रिक तरीके से संतुलित करने के लिए आधुनिक समाज में भी ‘कर प्रणाली’ को महत्वपूर्ण आधार बनाया गया.
यानी अब कर प्रणाली में किसी को खुली छूट नहीं होगी, कोई भी बेलगाम नहीं होगा. इसके बावजूद आधुनिक राज्य और समाज में कर प्रणाली में भयानक विसंगति आयी. खासतौर पर अमीर वर्ग को इससे सबसे ज्यादा परेशानी होने लगी और उसने इससे बचने के दो उपाय निकले- एक, सत्ता से गठजोड़ कर टैक्स प्रणाली से बाइपास कर ले. दूसरा, खुद सत्ता को नियंत्रित करे और अपने अनुकूल टैक्स में मनचाहा छूट लेता रहे. दुनिया में जब से पूंजी का संकेंद्रण हुआ है, यही वर्ग ताकतवर हुआ है और अब वह सीधे राज्य की नीतियों का मखौल उड़ा सकता है.
सबसे बड़ी विडंबना तो यह बन गयी है कि इसमें खुद राज्यों की राजनीति और राजनीतिज्ञ भी शामिल हो गये हैं. पैराडाइज पेपर्स या, पनामा पेपर्स जैसे खुलासों ने इस बात को पुख्ता किया है कि अब राजनीति और राजनेता जैसे कोई विशेष वर्ग नहीं रहे, बल्कि ये सब बिजनेस के अभिन्नतम स्रोत बन गये हैं.
हमारे समय के हिंदी के महत्वपूर्ण कवि पवन करण अपनी एक कविता में कहते हैं कि ‘धन संसद के प्रधानमंत्री का कोई विपक्ष नहीं होता’. यानी ‘वैश्विक पूंजी’ के विपक्ष में कोई देश या उसकी संसद नहीं है.
सब उसके हिस्सेदार हो गये हैं. वैश्विक राजनीति में भले ही रूस और अमेरिका एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी हों, लेकिन पैराडाइज पेपर्स के दस्तावेज बताते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सबसे नजदीकी और उनके वाणिज्य मंत्री विल्बर रोस और रूसी राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन के दामाद के बीच गहरे व्यावसायिक लेन-देन हैं.
उसी तरह हम अपने देश में देखते हैं कि हमारे देश की राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप लगाती रहती हैं, लेकिन पैराडाइज पेपर्स में दोनों पार्टी के नेताओं के नाम शामिल हैं. यद्यपि दोनों पार्टियां इसे अपने सदस्यों का निजी ‘इंटरेस्ट’ कहकर बच सकती हैं, लेकिन इससे यह वास्तविकता तो छुप नहीं सकती कि सत्ता में शामिल लोग अवैधानिक फायदा उठाने के लिए उसका उपयोग करते हैं. यहां यह कहना ज्यादा उचित होगा कि पैसा और पूंजी कमाने के लिए सब एक-दूसरे के सहोदर हैं.
भारत जैसे देश या किसी भी गरीब देश में ‘टैक्स चोरी’ का मामला बहुत संगीन है, क्योंकि यह सिर्फ जनता द्वारा चुनी गयी सरकार से कर चुराना नहीं है, बल्कि भूख, गरीबी, अशिक्षा और बीमारी से जूझ रही जनता को और भी अंधेरे में धकेलना है. कॉरपोरेट्स यानी औद्योगिक घरानों को इससे कोई मतलब नहीं है, इसलिए अगर पैराडाइज पेपर्स या ऐसे ही अन्य किसी खुलासे में उनका नाम होना आश्चर्य की बात नहीं है. लेकिन, जो समाजसेवी होने का दावा करते हैं, जो राजनेता देश बदलने का दावा करते हैं या खुद को उदार दिखाते हैं, उनका इस तरह का व्यवहार दुखद है.
सदी के महानायक का इस तरह से बार-बार नाम आना क्या है? इससे बड़ी दुख की बात और क्या हो सकती है कि विश्व भूख सूचकांक में हमारे देश की रैंकिंग 119 देशों में 100 है, जबकि इस पैराडाइज पेपर्स के 180 देशों की सूची में भारत की रैंकिंग 19वीं है. गौरतलब है कि इस पैराडाइज पेपर्स में 714 भारतीयों के नाम हैं.
क्या हमारी सरकारें सच में अक्षम हैं या खुद की भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहमति होती है? चुनाव के दिनों बड़ी-बड़ी घोषणाएं होती हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद उन पर कोई कार्रवाई तक नहीं होती है, जिन पर इस तरह की गतिविधियों में संलिप्तता के आरोप लगते हैं.
पनामा पेपर्स में नाम आने पर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा चला और दोषी पाये जाने पर उन्हें उनके पद से बर्खास्त कर दिया गया.
यानी इस तरह के खुलासे की ताकत यह है कि सच्चाई सामने आने से ताकतवर का मुखौटा उतर जाता है. सरकार की नीतियों और उसके लोगों का जन-विरोधी चरित्र उभरकर आता है और वे ऐसा होने देना नहीं चाहते. पिछले महीने अक्तूबर में ही पनामा पेपर्स का खुलासा करनेवाली पत्रकार डैफनी कैरुआना गलिजिया की कार बम धमाके में हत्या कर दी गयी.
इसी तरह के पूर्व के खुलासों की वजह से विकिलीक्स के जुलियन असांजे और एडवर्ड स्नोडन को भी जान बचाने के लिए देश छोड़कर भागना पड़ा था. पैराडाइज पेपर्स हो, या पनामा पेपर्स या ऐसे ही अन्य खुलासे से यह बात साफ है कि एक दुनिया धनवान और ताकतवर लोगों की है, जिनके लिए राज्य, उसके कानून और उसकी भौगोलिकता का कोई मतलब नहीं है, और दूसरी दुनिया उन आम लोगों की है, जो यह समझती है कि कानून उसके लिए है.

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