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डोनाल्ड ट्रंप की जीत के मायने

रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने पर अमेरिका में एक तबका जहां बहुत खुश है, वहीं कई लोग निराश भी हैं. दुनियाभर से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उनका स्वर भी ऐसा ही है. कहीं उम्मीद है, कहीं असमंजस, तो कहीं डर भी. अमेरिका और अन्य देशों में उनकी जीत के अलग-अलग […]

रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने पर अमेरिका में एक तबका जहां बहुत खुश है, वहीं कई लोग निराश भी हैं. दुनियाभर से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उनका स्वर भी ऐसा ही है. कहीं उम्मीद है, कहीं असमंजस, तो कहीं डर भी. अमेरिका और अन्य देशों में उनकी जीत के अलग-अलग मायने निकाले जा रहे हैं. ट्रंप प्रशासन के देश-विदेश पर संभावित असर के आकलन के मद्देनजर विभिन्न टिप्पणियों पर आधारित प्रस्तुति…
अमेरिकी जनमानस के अनुरूप ट्रंप की जीत
पुष्पेश पंत, वरिष्ठ स्तंभकार
अमेरिका के लिए डोनाल्ड ट्रंप की जीत के मायने बिल्कुल स्पष्ट हैं. इस समय अमेरिकी मतदाता का जो दिल और दिमाग है, उसके बिल्कुल माफिक है ट्रंप की यह जीत. जिस मार्जिन से ट्रंप को जीत मिली है, वह इस बात काे प्रमाणित करने के लिए काफी है कि ट्रंप अमेरिकी लोगों की नब्ज को अच्छी तरह से पकड़ते हैं, जानते-समझते हैं. जहां तक डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन की राजनीति का सवाल है, तो सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिलेरी अमेरिका के साथ नहीं थीं और इस बात को अमेरिकी अच्छी तरह से जानते हैं.
दूसरी बात यह है कि अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति बने, इस बात को लेकर कोई मातम मनाने की जरूरत नहीं है कि ट्रंप आ गये, तो अब क्या होगा या हिलेरी आ गयी होतीं, तो अच्छा होता. क्योंकि, अमेरिका एक पूंजीवादी देश है और वह अपनी मिलिट्री इंडस्ट्री के बदौलत चलता है. दुनिया वाले भले कुछ भी सोचें, अमेरिका के लोगों में यह अवधारणा बहुत गहरे तक है कि पूरी दुनिया में अमेरिका ही अव्वल दर्जे की ताकत रखनेवाला देश है और अमेरिका का मुकाबला दुनिया का कोई भी देश नहीं कर पायेगा और न ही किसी की ऐसी हस्ती ही है कि वह अमेरिका से लड़ सके. और बाकी दुनिया को भी अमेरिका से मुकाबला करने की कोई जरूरत भी नहीं है.
जहां तक दुनिया के लिए ट्रंप की जीत के मायने का सवाल है, तो दुनिया के दो सौ देशों में अधिकतर ऐसे देश नहीं हैं, जिनकी गिनती किसी भी संप्रभु राज्य के रूप में हो सके. बस आठ-दस देश ही हैं, जिन पर ट्रंप की जीत का क्या फर्क पड़ेगा, हम इसका आकलन कर सकते हैं.
रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के बारे में अपने चुनाव प्रचार में ट्रंप ने बहुत सी अच्छी बातें कही हैं, लेकिन पुतिन जिस रूस का प्रतिनिधित्व करते हैं, उस रूस से बुनियादी टकराव अगर किसी के साथ है, तो वह अमेरिका ही है. ऊर्जा सुरक्षा या परमाणु अप्रसार को लेकर इस वक्त सीरिया में, पश्चिमी एशिया और यूरोप में जो नजर आ रहा है, उसे देखते हुए यह साफ कहा जा सकता है कि रूस और अमेरिका के बीच टकराव कायम है. दूसरी ओर चीन है, जिससे अमेरिकी हितों का टकराव है. अब ट्रंप आ गये हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि ये सारे टकराव खत्म हो जायेंगे, बल्कि मेरा मानना है कि यह टकराव आगे भी चलता रहेगा.
अमेरिका ने पाकिस्तान को खड़ा किया है और अमेरिकी बैसाखियों पर पाकिस्तान जिंदा रहा है. भारत की तरफ जितने भी पाकिस्तान हथियार मुंह बाये खड़े हैं, वह सब अमेरिका ने पाकिस्तान को दिये हैं. अमेरिका की जो लड़ाई कट्टरपंथी इसलाम के साथ है, वह अपनी जगह पर पश्चिम एशिया, सीरिया, इराक, सूडान, अफगानिस्तान, लीबिया, आदि में चलती रहेगी, लेकिन पाकिस्तान के सर पर अमेरिकी हाथ बना रहेगा. इसलिए मुझे लगता नहीं कि भारत को इस मामले में अमेरिका से कोई फायदा होने की उम्मीद है. बाकी तो उन्होंने भारत की तर्ज पर अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा भी दे डाला है. अब आगे देखते हैं कि नये अमेरिकी राष्ट्रपति का क्या रुख होता है.
बड़े हिस्से के प्रतिनिधि बन कर उभरे ट्रंप
कमर आगा, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
अमेरिका इस समय दो हिस्सों में बंटा हुआ है. एक हिस्सा पढ़े-लिखे, उदारवादी और सेक्युलर लोगों का है, तो दूसरा हिस्सा रूढ़िवादी, धार्मिक, श्रम वर्ग और शहर से दूर ग्रामीण क्षेत्रों में कम पढ़े-लिखे लोगों का है. दूसरे हिस्से की तादाद वहां ज्यादा है. रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप ने इन्हीं के बीच अपने चुनाव प्रचार के जरिये अमेरिका को दोबारा से एक ‘ग्रेट नेशन’ बनाने का आंदोलन चलाया था अौर दुनिया में ‘अमेरिका फर्स्ट’ होगा. इस आंदोलन का तमाम रूढ़िवादियों, धार्मिकों, श्रम वर्गों और कम पढ़े-लिखे अमेरिकियों ने समर्थन किया था.
ट्रंप का यह आंदोलन कामयाब रहा और वे जीत की तरफ बढ़े. अमेरिकी लोगों को यह यकीन हो चला था कि वहां जॉब्स आयेंगे, बाहरी लोगों को निकाला जायेगा, विकास और वैश्विक व्यापार का नया आयाम स्थापित होगा, सड़कें और पुल बनेंगे, वगैरह-वगैरह. ‘ग्रेट नेशन’ के लिए ये सारे वादे ट्रंप ने किये थे. अमेरिका को ‘ग्रेट नेशन’ बनाने का ट्रंप का यही सपना अमेरिका के लिए बहुत मायने रखता है, क्योंकि ट्रंप के वायदे बड़े हैं और अब उन्हें पूरा करके दिखाना होगा. अब तो यह समय ही बतायेगा कि वे इसमें कितना सफल होते हैं. वहीं दूसरी तरफ हिलेरी क्लिंटन को इन बातों का एहसास नहीं था और वे अमेरिकियों के दूसरे हिस्से के मुद्दों से इतर सोच रही थीं और वे सिर्फ प्रो-स्टेब्लिशमेंट की बातें कर रही थीं. इसलिए ट्रंप की जीत कोई अचंभे वाली बात नहीं है.
ट्रंप ने सबसे पहले यूरोप के साथ अच्छे संबंध रखने की बात की है. उनका मानना है कि रक्षा मामलों में उसे यूरोप का काफी सहयोग जरूरी है, अमेरिका अकेले नहीं कर सकता. दोनों में काफी मतभेदों के साथ यह एक बड़ा बदलाव है अमेरिका की विदेश नीति में. दूसरी तरफ मध्य-पूर्व (मिडिल इस्ट) के लिए जो अमेरिकी नीति है, उससे मध्य-पूर्व में तनाव बढ़ सकता है, क्योंकि उस नीति के तहत सेना के जरिये ही मसलों को हल करने के बारे में अमेरिका सोच रहा है.
मिडिल इस्ट, सऊदी अरब और गल्फ के देश चाहते हैं कि उनके ऊपर से अमेरिकी निर्भरता कम हो, इसे लेकर भी अमेरिका को साेचने की जरूरत होगी. मेरे ख्याल में अमेिरका का यह सत्ता परिवर्तन अपनी नीतियों में थोड़ी सख्ती रखेगा, जैसा कि जॉर्ज बुश ने किया था. ऐसे में यह तो तय है कि दुनिया के लिए अमेरिकी सत्ता का परिवर्तन कुछ नया लेकर जरूर आयेगा, लेकिन उसका स्वरूप क्या होगा, यह देखनेवाली बात होगी.
जहां तक ट्रंप की जीत का भारत के लिए मायने का सवाल है, तो अमेरिका कभी भी भारत को अनदेखा नहीं कर सकता, क्योंकि भारत एक बहुत बड़ा मार्केट है. भारत में काफी तादाद में अंगरेजी बोलनेवाले, कंप्यूटर का इस्तेमाल करनेवाले लोग हैं और तकनीकी रूप से बहुत सक्षम हैं, यहां सस्ता श्रम है, इन सबका फायदा अमेरिका उठाता रहा है और आगे भी उठायेगा. भारत और अमेरिका दोनों जगहों में लोकतांत्रिक व्यवस्था है. दोनों के बीच सौ बिलियन डॉलर का व्यापार है, जो अगामी सालों में पांच सौ बिलियन डॉलर होने की संभावना है.
इसके लिए दोनों देश कोशिश कर रहे हैं. अमेरिका के अंदर जितने भी भारतीय हैं, वे सभी बहुत अच्छे काम कर रहे हैं, नौकरियों का सृजन कर रहे हैं और अच्छे-अच्छे पदों पर हैं. अमेरिका के आइटी सेक्टर में भारतीयों का बहुत बड़ा योगदान है. इन सबके चलते अमेरिका कभी भी भारत के साथ संबंधों को खराब नहीं होने देना चाहेगा. हालांकि, ट्रंप यह कह रहे हैं कि आइटी सेक्टर में अमेरिकी लोगों के लिए नौकरियों का सृजन करेंगे, लेकिन यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि अमेरिका में श्रम महंगा है.
मल्टीनेशनल कॉरपोरेशन वहीं काम करते हैं, जहां फायदा होता है. अमेरिका में किसी चीज को बनाने में अगर दस डॉलर खर्च आता है, तो उसी चीज को दूसरे देशों में छह-आठ डॉलर में बनाया जा सकता है. ये छोटी-मोटी दुश्वारियों के साथ भी भारत के साथ अमेरिका अच्छा संबंध रखेगा. अमेरिका के लिए भारत इसलिए भी बहुत मायने रखता है, क्योंकि चीन को लेकर अमेरिका के काफी मतभेद हैं. पाकिस्तान की नीतियां जैसी हैं, उसके चलते भी अमेरिका को भारत की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि पाकिस्तान इस समय पूरी तरह से चीन के साथ है. मैं समझता हूं कि आनेवाले समय में पाकिस्तान के ऊपर और भी दबाव बढ़ जायेगा.
केनेथ रॉथ, एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर, ह्यूमन राइट्स वाच
इस जीत के बाद राष्ट्रपति पद के लिए चुने गये ट्रंप को सुर्खियां बननेवाले घृणास्पद बयानों को छोड़ते हुए अमेरिका में रहनेवाले सभी लोगों पर सम्मान के साथ शासन करना चाहिए.
व्हाइट हाउस तक की उनकी यात्रा स्त्री-विरोधी, नस्लभेदी और नफरत के अभियान से पूरी हुई है, परंतु सफल शासन का रास्ता यह नहीं है. निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप को इस तरीके से शासन करना चाहिए जिसमें सबके मानवाधिकारों के लिए पूरा आदर हो और उन्हें आगे बढ़ाये. अगर आपकी सरकार ही कभी कभी इन अधिकारों का उल्लंघन करे, तो आप दूसरे देशों पर इस मुद्दे पर दबाव नहीं बना सकते हैं. ट्रंप को न्याय तंत्र और आप्रवासन सुधार पर ध्यान देना चाहिए और गहरे नस्लवादी भेदभाव रोकने पर विशेष जोर देना चाहिए.
जेंस स्टोल्टेनबर्ग, महासचिव, नाटो
मैं डोनाल्ड ट्रंप के साथ काम करने के लिए उत्सुक हूं. हम एक नये चुनौतीपूर्ण सुरक्षा परिस्थिति का सामना कर रहे हैं जिसमें अत्याधुनिक युद्ध, साइबर हमले और आतंक के खतरे शामिल हैं. अमेरिकी नेतृत्व हमेशा की तरह महत्वपूर्ण है. हमारे संगठन ने अमेरिकी के दोस्तों को बीते सात दशकों से शांति और संघर्ष के दौरों में करीब लाया है. मजबूत नाटो अमेरिका के लिए अच्छा है, और यूरोप के लिए भी. नयी सुरक्षा स्थितियों के सामने नाटो प्रतिबद्ध रहा है. लेकिन हमें अभी बहुत काम करना है. मैं डोनाल्ड ट्रंप से जल्दी मिलूंगा और अगले साल ब्रुसेल्स में होनेवाले नाटो शिखर सम्मेलन में हम आगे की राह के बारे में बातचीत करेंगे.
अमेरिका ने चुना सबसे खतरनाक नेता
जोनाथन फ्रिडलैंड, लेखक और पत्रकार
पूरी दुनिया के लिए आज अमेरिका प्रेरणा के स्रोत की तरह नहीं, बल्कि भय के स्रोत की तरह हो गया है. अमेरिका को पहली बार महिला राष्ट्रपति मिलने के बजाय वहां की सत्ता और उसकी असीम ताकत ऐसे व्यक्ति के हाथों में चली गयी है, जिसे उसकी अज्ञानता और नस्लवादी होने के अलावा महिला विरोधी के तौर पर जाना जाता है.
जाननेवाले उन्हें एक खतरनाक ‘सोशियोपैथ’ की तरह बताते हैं. इसका सबसे स्पष्ट असर तब सामने आयेगा, जब वे सत्ता संभालेंगे. जरा सोचिये कि उन्होंने क्या-क्या वादे किये हैं. एक डिपोर्टेशन फोर्स का घेरा बना कर 1.1 करोड़ गैर-दस्तावेजी प्रवासियों को निकाला जायेगा, जो वहां के पूरे वर्कफोर्स का करीब छह फीसदी है. मुसलिम देशों समेत अनेक संदिग्ध क्षेत्रों से आनेवालों पर रोक लगायी जायेगी. मैक्सिकाे की सीमा पर बड़ी दीवार खड़ी की जायेगी.
गर्भपात की इच्छुक महिलाओं को ‘एक प्रकार से दंडित’ किया जायेगा. हालांकि, लोग कहेंगे कि ये महज बातें थीं और बातों का क्या. लेकिन, पूरे चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने जिन चीजों को केंद्र में रखा, उसके प्रति वे डटे रहेंगे. निश्चित तौर पर वे अपनी जीत को उस सबूत के तौर पर देखेंगे कि वे हमेशा सही थे और उनके तेवर सटीक थे व उन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती. नरम रुख अख्तियार करने का उनके लिए काेई कारण नहीं है. वे उन सभी चीजों को अंजाम दे सकते हैं, जो उन्हें पसंद हैं.
अमेरिकियों के लिए यह कठिन परीक्षा की घड़ी होगी, लेकिन इसका असर हम सभी पर होगा. एक ऐसा रियलिटी टीवी स्टार, जिसे न तो राजनीति का अनुभव है और न ही सेना का, लेकिन परमाणु बटन उसके कदमों तले होगी. हमें याद रखना होगा कि एक मिलिटरी ब्रीफिंग के दौरान कई बार वे कह चुके हैं कि अाखिर अमेरिका क्यों नहीं परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करता है, जबकि उसके पास वे मौजूद हैं. यह वह इनसान है, जिसने कहा, ‘मैं युद्ध पसंद करता हूं.’ आइएस से निबटने का जिसका यह प्रस्ताव हो कि ‘उन्हें बम से बरबाद करके तेल चुरा लेना चाहिए.’ दुनिया को ऐसे व्यक्ति से डरने की जरूरत है.
(द गार्डियन में छपे लेख का अंश. साभार)
डोनाल्ड ट्रंप के लिए खास मसले
स्टीवेन स्विनफोर्ड वरिष्ठ पत्रकार, द टेलीग्राफ, लंदन
अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत ब्रेक्जिट के बाद के दौर में कारोबार के लिए एक नयी उम्मीद लेकर आयेगी, लेकिन नाटो के भविष्य से जुड़ी प्रमुख चिंताएं उभार लेंगी. यूरोपियन यूनियन में बने रहने या बाहर होने के लिए कराये गये जनमतसंग्रह के दौरान ट्रंप ने खुले तौर पर ब्रिटेन को बाहर होने की सलाह दी थी. इस मामले में उनका नजरिया बराक ओबामा के बिलकुल उलट है.
ट्रंप ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की एक मजबूत नेता के रूप में कई बार प्रशंसा की है और इंटेलिजेंस सर्विस से मिली उन चेतावनियों को उन्होंने खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि अमेरिका और पश्चिमी देशों में व्यापक पैमाने पर होनेवाली साइबर-हैकिंग में रूस का हाथ है. इसके अलावा, क्रीमिया के मसले पर रूस ने जब यूक्रेन पर हमला किया था, उस समय भी ट्रंप ने खुद को रूस की आलोचना करने से बचा लिया था. इस मामले में भी अब नया मोड़ सामने आ सकता है.
चुनाव प्रचार के दौरान पश्चिमी देशों को उन्होंने आगाह किया था कि अमेरिका नाटो गंठबंधन को मदद देना बंद कर सकता है. उन्होंने स्पष्ट तौर पर यह कहा था कि जब बात अमेरिकी सैन्य और आर्थिक हितों से जुड़ी होगी, तो वे अमेरिका को सबसे पहले देखेंगे.
ट्रंप के सत्ता में आने से ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे के सामने भी चुनौती पैदा होगी, क्योंकि पूर्व में वे सीधे तौर पर उनकी आलोचना कर चुकी हैं. ईरान के साथ की गयी उस न्यूक्लियर डील की भी ट्रंप आलोचना कर चुके हैं, जिसे ब्रिटेन की मदद से अंजाम दिया गया था. इस डील को वे ‘किसी भी देश द्वारा ऐतिहासिक तौर पर अब तक का सबसे खराब समझौता’ करार चुके हैं.
(द टेलीग्राफ में छपे लेख का अंश. साभार)
वैश्विक मंदी की आशंका
वा स्तव में यह राष्ट्रपति डोनाल्ड जे ट्रंप के होने जैसा है, और बाजार गोते लगा रहे हैं. यह स्थिति कब सुधरेगी इसकी क्या उम्मीद की जाये? स्पष्ट तौर पर कहूं तो इस बात की परवाह करते हुए भी मुझे तकलीफ हो रही है, वह भी तब जब यह मेरी विशेषज्ञता का विषय है. इस परिणाम से अमेरिका और विश्व को जाे नुकसान होगा, उसके कई सारे पक्ष हैं. इस परिणाम के आर्थिक असर को लेकर मेरे मन में जो शंका है वह मेरे डर की सूची में बहुत नीचे है.
फिर भी, मुझे लगता है कि लोग उत्तर जानना चाहें कि बाजार में सुधार कब तब होगा. तो मेरा त्वरित उत्तर यही है कि कभी नहीं. किसी भी परिस्थिति में एक गैरजिम्मेदार, अज्ञानी व्यक्ति, जिसके सलाहकार भी बुरे हैं, को सबसे महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्थावाले राष्ट्र की कमान सौंपना बहुत बुरी खबर है. यह खबर विशेष रूप से इस समय इसलिए और भी बुरी है, क्योंकि गहरे वित्तीय संकट के अाठ साल के बाद दुनिया बुनियादी रूप से नाजुक दौर से गुजर रही है.
यह सच है कि हमने अच्छी रफ्तार के साथ रोजगार सृजन किया है और पूर्ण रोजगार प्राप्त करने के लक्ष्य के काफी करीब पहुंच चुके हैं. लेकिन ऐसा केवल बेहद निम्न ब्याज दरों के कारण हो रहा था. यद्यपि इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि जब खराब स्थिति आयेगी और अर्थव्यवस्था को जोर देने की जरूरत होगी, तब हम क्या करेंगे? लेकिन फेडरल रिजर्व आैर उसके विदेशी समकक्षों के पास दर में कटौती करने की गुंजाइश बहुत ही कम है, और इसी कारण विपरीत परिस्थितियों से निपटने की क्षमता भी अत्यंत न्यून है.
अब हम इस ओर आते हैं कि इसका सबसे बुरा प्रभाव क्या होगा और आर्थिक नीतियों से अनजान और उनके लागू करने की कोशिशों को रोकनेवाले शासन का क्या मतलब है. क्या फेडरल रिजर्व को प्रभावी वित्तीय सहयोग दिया जायेगा? इसकी कोई सूरत मुझे तो नहीं दिख रही है.
वास्तव में, आप इस बात पर दावं लगा सकते हैं कि इस दौरान फेडरल रिजर्व अपनी स्वतंत्रता खो देगा और उसे सनकियों द्वारा परेशान किया जायेगा. मुझे एक संभावित अंतहीन वैश्विक मंदी की आहट महसूस हो रही है. हो सकता है कि हम कुछ भाग्यशाली साबित हो जायें. लेकिन बाकी दूसरी चीजों की तरह आर्थिक मसलों के लिए भी एक भयावह घटना घट चुकी है.
(न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित टिप्पणी. साभार)
‘अमेरिकी साम्राज्य के अंतिम’ राष्ट्रपति ट्रंप
राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित ट्रंप अमेरिकी विदेश नीति में मूलभूत बदलाव तथा अमेरिकी की बढ़ती विदेशी राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों के तुरंत समाधान करने के अपने वादे के दम पर कार्यभार संभालेंगे. जिस तरह से उन्होंने अपने इस संदेश को सफलतापूर्वक बेचा है, और अपने को इन उद्देश्यों को हासिल कर पाने के लिए सबसे योग्य व्यक्ति के रूप स्थापित किया है, उससे यह दुनिया पहले से अधिक खतरनाक जगह बन गयी है. यह समझना जरूरी है कि ट्रंप का अभियान न सिर्फ अभिजात्य वर्ग के असंतोष पर केंद्रित था, जिसके कि वे एक खास सदस्य हैं, बल्कि अपने से भिन्न राय रखनेवालों के खिलाफ घृणा फैलानेवाले असभ्य बयानबाजियों पर भी आधारित था. इसके बिना ट्रंप आज इस मुकाम तक नहीं पहुंच सकते थे.
उनके तीखे बोल के बड़ा हिस्से के निशाने पर मध्य-पूर्व तथा अरब और मुस्लिम तबके के अमेरिकी नागरिक थे जिन पर वे बमबारी करने या उन्हें तड़पाकर मारने के लिए प्रतिबद्ध हैं. उन्होंने अमेरिका से वादा किया है कि वे उन खर्चीले विदेशी संबंधों और व्यापारिक समझौतों से अलग हो जायेंगे जो अमेरिकियों के जीवन-यापन को छीन रहे हैं, तथा इनकी जगह वे चेतावनियों और धमकियों से काम लेंगे.ऐसे प्रस्तावित वाणिज्यिक अकेलापन के रवैये से वे अमेरिका के वैश्विक वर्चस्व को बरकरार रखना चाहते हैं. खैर, ट्रंप की विदेश नीति को समझ पाना असंभव है क्योंकि नारेबाजी को छोड़ दें, तो अपने प्रचार के दौरान वे खोखले साबित हुए हैं और ज्यादातर मुद्दों पर उनकी बातें विरोधाभासी रही हैं.
बस वे एक चीज पर लगातार कायम रहे हैं कि उनका प्रशासन महान होगा, और वे ही चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम हैं, भले ही वे उन्हें समझते न हों. इतना निश्चित है कि ट्रंप बहुत अधिक खतरनाक हैं, और उन्हें उनके ऊपर छोड़ देना न सिर्फ मध्य-पूर्व के लिए, बल्कि पूरी धरती के लिए बेहद नुकसानदेह होगा.
अब सवाल यह है कि क्या अमेरिकी विदेश नीति और सैन्य तंत्र के संस्थान उनकी मनमानी के आगे उसी तरह झुकेंगे, जैसा कि रिपब्लिकन पार्टी और यूरोप जैसे अमेरिका के नजदीकी सहयोगी कर रहे हैं. अगर वे ट्रंप को रोक पाने में असफल होते हैं, तो शायद यह अमेरिकी साम्राज्य का अंतिम चरण होगा. लेकिन ट्रंप की अगुवाई में यह साम्राज्य अपने साथ दुनिया को भी ले डूबेगा.
(अल जजीरा के वेबसाइट पर प्रकाशित लेख का अंश. साभार)

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