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प्रसव के दौरान होनेवाली मौतों में गिरावट, लगातार प्रयास की दरकार

गर्भावस्था मातृत्व का प्रथम चरण मानी जाती है. यह महिलाओं के जीवन का महत्वपूर्ण क्षण होता है, जब वह अपने भीतर एक और जीवन पालती है और उसे जन्म देती है. महिलाओं को इस खूबसूरत प्रक्रिया में स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं का सामना भी करना पड़ता है और कई मामलों में उनकी मृत्यु भी हो जाती […]

गर्भावस्था मातृत्व का प्रथम चरण मानी जाती है. यह महिलाओं के जीवन का महत्वपूर्ण क्षण होता है, जब वह अपने भीतर एक और जीवन पालती है और उसे जन्म देती है. महिलाओं को इस खूबसूरत प्रक्रिया में स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं का सामना भी करना पड़ता है और कई मामलों में उनकी मृत्यु भी हो जाती है. समय के साथ लगभग सभी देशों में संस्थागत प्रसव की सेवाएं उन्नत हुई हैं और इसके परिणामस्वरूप मातृ मौतों में गिरावट भी देखी गयी है. हालांकि, इस क्षेत्र में चुनौतियां अभी बरकरार हैं और सामाजिक जागरूकता पर भी ध्यान देने की आवश्यकता बनी हुई है. स्त्रियों की प्रसव के दौरान होने वाली मौतों के आंकड़ों, कारणों और चुनौतियों की प्रस्तुति…

भारत में हर वर्ष 3,341,000 बच्चे समय से पूर्व जन्म लेते हैं, िजनमें से 361, 600 बच्चों की जन्म संबंधी जटिलताओं के कारण पांच वर्ष से कम आयु में ही मृत्यु हो जाती है.

भारत के एमएमआर में 22 प्रतिशत की कमी

भारतीय रजिस्ट्रार जनरल कार्यालय द्वारा इस वर्ष जारी आंकड़े मातृत्व मृत्यु दर (एमएमआर) में सुधार बता रहे हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक, प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु में तेजी से कमी आयी है. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा महिलायें प्रसव के लिए अस्पताल आ रही हैं.

130 महिलाओं की मौत हुई प्रसव के दौरान वर्ष 2014-16 में प्रति एक लाख जीवित शिशुओं के जन्म पर, जबकि वर्ष 2011-13 में इसी कारण 167 महिलाओं की जान चली गयी थी. इस प्रकार वर्ष 2013 से एमएमआर में 22 प्रतिशत की कमी आयी है. इसका मतलब है कि अब अपने देश में गर्भावस्था व प्रसव संबंधी समस्याओं से होनेवाली मृत्यु में प्रति महीने लगभग एक हजार की कमी आयी है.

77 प्रतिशत की कमी आयी है एमएमआर में बीते तीन दशक में इस वर्ष जारी नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) की रिपोर्ट के अनुसार. यह रिपोर्ट बताती है कि 1990 में प्रति एक लाख जीवित शिशु जन्म पर मातृत्व मुत्यु दर 556 थी. इस प्रकार मातृ मृत्यु दर में आनेवाली यह कमी भारत सरकार के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के उद्देश्यों को प्राप्त करने के प्रयासों का नतीजा माना जा सकता है. भारत सरकार ने हाशिए पर रहनेवाली आबादी के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए एसडीजी के तहत यह तय किया है कि वर्ष 2030 तक या उससे पहले ही वह एमएमआर को 70 से नीचे ले आयेगी.

129वें स्थान पर है भारत कुल 184 देशों में मातृत्व मृत्यु दर में और 193 देशों में 145वें स्थान पर है शिशु मृत्यु दर में, विश्व बैंक के अनुसार.

प्रति दो मिनट में औसतन एक मां की मौत
3,03,000 महिलायें वैश्विक स्तर पर प्रतिवर्ष प्रसव के दौरान या गर्भावस्था में होनेवाली परेशानियों के कारण अपनी जान गंवा बैठती हैं, यूएन ग्लोबल के ताजा अनुमान के अनुसार. इन आंकड़ों की मानें, तो इस वजह से प्रतिदिन तकरीबन 830 महिलाएं यानी प्रति दो मिनट में एक महिला अपनी जान से हाथ धो बैठती है.

गर्भावस्था या प्रसव के दौरान महिलाओं की होनेवाली मृत्यु में बहुत बड़ी संख्या विकासशील देशों से आती है. वैश्विक स्तर पर इस दौरान जितनी भी मौतें होती हैं, उनमें दो तिहाई सब-सहारन अफ्रीकी देशों में होती हैं. इन मौतों में एक तिहाई मौत अकेले भारत और नाइजीरिया में होती है.

66 प्रतिशत (2,01,000) वैश्विक मातृत्व मृत्यु दर का बोझ अकेले सब-सहारन अफ्रीकी क्षेत्रों पर है. इसके बाद 22 प्रतिशत (66,000) के साथ दक्षिण एशिया का स्थान आता है.

5 प्रतिशत देश वैश्विक मातृत्व मृत्य दर का 59 प्रतिशत बोझ उठाने को बाध्य हैं.

436 माताओं की मौत हो जाती है प्रति एक लाख जीवित शिशु के जन्म पर विश्व के सबसे कम विकसित देशों में, जबकि धनी देशों में यह औसत महज 12 है.

विश्व बैंक द्वारा 2015 में जारी रिपोर्ट बताती है कि विश्व में सबसे ज्यादा मातृत्व मृत्यु दर सिएरा लियोन की है. यहां प्रति एक लाख शिशु के जन्म पर मातृत्व मृत्यु दर 1,360 है. वर्ष 1990 से इस मृत्यु दर में 50 प्रतिशत की कमी आने के बाद यहां यह स्थिति है.

13 प्रतिशत महिलाओं को प्रतिवर्ष असुरक्षित गर्भपात की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ती है, विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार.

खून की कमी से होती हैं सबसे ज्यादा मौतें

प्रसव के दौरान सबसे ज्यादा मौतें खून की कमी (एनीमिया) होने के कारण होती हैं. एक अध्ययन के अनुसार भारत में लगभग 59 प्रतिशत महिलायें एनीमिया की शिकार हैं. खून की कमी से जूझने वाली दुनिया में सबसे ज्यादा महिलायें भारत में हैं. शरीर में खून की कमी के होते हुए प्रसव से गुजरना महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है. जानकारों के मुताबिक शरीर में 60 प्रतिशत से कम हीमोग्लोबिन खतरे का संकेत होता है. ज्यादातर मामलों में शरीर में खून की कमी होने से प्रसव के समय गर्भवती स्त्री में कई किस्म की जटिलताएं पैदा होती हैं, जिससे मृत्यु का खतरा उत्पन्न होता है. ग्रामीण क्षेत्र में गर्भवती महिलायें प्रसव के लिए आती हैं, जिनमें औसतन पांच से सात ग्राम के बीच ही हिमोग्लोबिन पाया जाता है. एनीमिया से पीड़ित गर्भवती महिला को उच्च रक्तचाप की शिकायत बनी रहती है, जिससे ब्रेन हेमरेज व पैरालिसिस का खतरा पैदा होता है. एनीमिया की वजह से ही पेशाब में एल्बुमिन की मात्रा शामिल हो जाती है. इसके परिणामस्वरूप पैर में सूजन होता है और शरीर में कंपन रहने लगता है. इसकी शिकायत पहले प्रसव के दौरान महिलाओं में होती है. कई मामलों में यह भी देखा गया है कि इसकी वजह से प्रसव के बाद दौरा भी पड़ने लगता है. खून की कमी से प्रसव के बाद गर्भाशय के सिकुड़ने की क्षमता घट जाती है और रक्त स्राव बढ़ जाता है. प्रसव के बाद रक्त स्राव को रोकने के लिए चार घंटे के भीतर महिला को ब्लड न चढ़ाने की स्थिति में उसकी मृत्यु हो जाती है.

मातृत्व मृत्यु दर में 44 प्रतिशत की गिरावट

प्रसव के समय या गर्भावस्स्था के दौरान विश्व भर के मातृ मृत्यु दर के आंकड़े चिंता पैदा करने वाले हैं, लेकिन इस संख्या को कम करने के प्रयास हो रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1990 में उपरोक्त कारणों से दुनिया भर में प्रतिवर्ष अनुमानत: 5,32,000 महिलाओं की मृत्यु हुई थी लेकिन वर्ष 1990 से 2015 के बीच इसमें 44 प्रतिशत की कमी आ चुकी है. 1990 में प्रति एक लाख पर जहां 385 मातृत्व मृत्यु दर थी वह 2015 में घटकर 216 पर आ गयी.

मृत्यु दर में आनेवाली कमी पर्याप्त नहीं

वर्ष 2001 में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के बीच सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (एमडीजी)) के तहत वर्ष 2015 तक मातृ मृत्यु दर में तीन-तिहाई की कमी लाने को लेकर सहमित बनी थी. लेकिन एमडीजी द्वारा किये जा रह प्रयासों के बावजूद उच्च मातृ मृत्यु दर वाले देश लक्ष्य तक पहुंचने में सफल नहीं रहे. दूसरे अर्थों में कहा जाये तो इस मामले में इन देशों ने धीमी प्रगति की. इस संबंध में विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1990 से 2005 तक की रिपोर्ट कहती है कि इन वर्षों में मातृ मृत्यु दर में औसतन 2.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से ही गिरावट दर्ज हुई, जो 5.5 प्रतिशत के तय लक्ष्य का लगभग आधा ही था.

सामाजिक जागरूकता की आवश्यकता

मातृ मौतों की एक बड़ी वजह लोगों में पर्याप्त जागरूकता की कमी का होना भी है. भारत जैसे देश में एक बड़ा तबका ग्रामीण इलाकों में रहता है, आज भी जिन तक संसाधनों की पहुंच अपेक्षित गति को नहीं प्राप्त हो सकी है. इन इलाकों में आज भी अशिक्षा, जानकारी की कमी, समुचित स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, कुपोषण, कच्ची उम्र में विवाह, बिना तैयारी के गर्भधारण जैसी समस्याएं बनी हुई हैं. इस वजह से लोगों में जागरूकता की कमी बनी हुई है. इन सारी वजहों से भी गर्भावस्था ज्यादातर महिलाओं के लिए जानलेवा और जोखिम भरा साबित हो जाता है. गौरतलब है कि प्रसव के दौरान होने वाली समस्त मौतों में से लगभग 10 प्रतिशत मौतें गर्भपात से संबंधित जटिलताओं के कारण होती हैं. जागरूकता की कमी से लोग जच्चा-बच्चा का समुचित ध्यान नहीं रखते और कई मामलों में मां या नवजात शिशु अथवा दोनों की मृत्यु हो जाती है. ज्यादातर मामलों में प्रसव के दौरान बच्चे को जन्म देते वक्त अत्यधिक रक्त स्राव के कारण महिलाओं की मृत्यु होती है और लोगों में महिला के शरीर में खून की कमी को लेकर जानकारी ही नहीं होती. लोगों को पता ही नहीं होता कि प्रसव के दौरान लगभग 30 प्रतिशत महिलाओं को आपात स्तर की सहायता की जरूरत पड़ती है. जिसके क्रम में इंफेक्शन, असुरक्षित गर्भपात या ब्लड प्रेशर जानलेवा साबित होते हैं और गर्भवती महिला की मृत्यु हो जाती है. गर्भावस्था की जटिलताओं को न समझने से एवं समय पर चिकित्सा सुविधाओं के ना मिलने अथवा कई बार जानकारी के अभाव में बिना डॉक्टर की मदद के प्रसव कराने के कारण भी गर्भवती महिला की मौत हो जाती है. एक तथ्य यह भी है कि पुरुषों में गर्भावस्था से जुड़ी दिक्कतों के बारे में न्यूनतम जानकारी व जागरूकता होती है. जानकारों के अनुसार, दो प्रसव के बीच में कम से कम चार से पांच साल का अंतर होना चाहिए, जिससे स्त्री का शरीर फिर प्रसव की पीड़ा को झेल पाने के लिए तैयार हो सके. जागरूकता की कमी के कारण बच्चे की मौत की स्थिति में ज्यादातर महिलाओं को असमय गर्भ औैर प्रसव की प्रकिया में जाना पड़ता है. प्रसव के दौरान खून की कमी से जूृझ रही महिला के लिए, तुरंत बाद दूसरे प्रसव से गुजरना जानलेवा है. कई मामलों में यह भी धारणा देखनी में आयी है कि ग्रामीण इलाकों में महिलायें गर्भावस्था के दौरान पौष्टिक और पर्याप्त आहार नहीं लेती. उनका मानना होता है कि गर्भ में पल रहे शिशु का वजन अधिक नहीं होनी चाहिए, अन्यथा प्रसव के समय महिला को परेशानी होती है. इस तरह की निराधार धारणायें भी प्रसव के दौरान जटिलता पैदा करती है और महिलाओं की मौत का कारण बनती हैं. इसलिए, संस्थागत प्रसव सेवा बढ़ाने के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता को लेकर प्रयास तेज करने की आवश्यकता बनी हुई है.

राज्यवार मातृत्व मृत्यु दर (एमएमआर) प्रति एक लाख जीवित शिशु जन्म पर

एमएमआर में सर्वाधिक खराब प्रदर्शन करनेवाले राज्य

राज्य 2011-13 2014-16

असम 300 237

उत्तर प्रदेश/ उत्तराखंड 285 201

राजस्थान 244 199

ईएजी व असम सबटोटल 246 188

ओडिशा 222 180

मातृत्व मृत्यु दर में बेहतर प्रदर्शन करनेवाले राज्य

राज्य 2011-13 2014-16

केरल 61 46

महाराष्ट्र 68 61

तमिलनाडु 79 66

आंध्र प्रदेश 92 74

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