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Friday, March 29, 2024

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हर खेत को पानी के सुंदर सपने को पूरा करने में सावधानी जरूरी

सुरेंद्र किशोर, राजनीतिक विश्लेषक बिजलीकरण का सुंदर सपना लगभग पूरा हो रहा है. अब सरकार हर खेत को पानी देने के सुंदर सपने को पूरा करने के लिए सचेष्ट है. बिहार सरकार की यह कोशिश ऐतिहासिक है. पर, संकेत हैं कि बड़ी संख्या में बंद पड़े राजकीय नलकूपों को फिर से चालू करने की बड़ी […]

सुरेंद्र किशोर, राजनीतिक विश्लेषक

बिजलीकरण का सुंदर सपना लगभग पूरा हो रहा है. अब सरकार हर खेत को पानी देने के सुंदर सपने को पूरा करने के लिए सचेष्ट है. बिहार सरकार की यह कोशिश ऐतिहासिक है. पर, संकेत हैं कि बड़ी संख्या में बंद पड़े राजकीय नलकूपों को फिर से चालू करने की बड़ी योजना शुरू हो सकती है. वह भी अच्छी बात है. पर, उस सिलसिले में इस बात पर ध्यान रखना जरूरी है कि हम कितना भूजल निकालने जा रहे हैं. क्या उतने के पुनर्भरण का भी देर-सवेर प्रबंध हो सकेगा? यदि हो सकेगा तो बहुत अच्छा. यदि नहीं तो हम आगे के जल संकट के लिए तैयार रहें.

हालांकि, इस संबंध में कोई पक्की बात विशेषज्ञ ही बता सकते हैं. पर, इस देश का ‘पारंपरिक विवेक’ खेती के लिए भूजल की जगह सतही जल के इस्तेमाल के पक्ष में रहा है. इसलिए, हजारों साल से भूजल संकट नहीं रहा. संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रपट, 2015 के अनुसार कुछ दशकों में बिहार में जल संकट गंभीर हो सकता है. सतही जल संपदा के मामले में बिहार एक धनी राज्य है. फिर भी भूजल को निकालने की होड़ लगी रहती है, पुनर्भरण की चिंता किये बिना.

जल संरक्षण पर गांधीवादी नजरिया : पूर्व मंत्री व कट्टर गांधीवादी जगलाल चौधरी से उनके चुनाव क्षेत्र के लोग अक्सर कहा करते थे कि चौधरी जी, सिंचाई के लिए नलकूप की व्यवस्था करवा दीजिए. उनका जवाब होता था कि नलकूप लगाने से पाताल का पानी सूख जायेगा. यह साठ के दशक की बात है. उस समय जल संकट आज जैसा नहीं था. पर, चौधरीजी को आज के संकट का पूर्वानुमान था. गांधीवादी शिक्षा का उन पर असर जो था. खेतों में सिंचाई के लिए सतही जल के इस्तेमाल के तरीके उपलब्ध हैं. कुछ राज्यों में इस पर काम हो चुके हैं. पर यदि नलकूप की भी जरूरत हो, तो जल पुनर्भरण का प्रबंध होने पर आने वाले जल संकट से उबरा जा सकता है.

अनुकरणीय कदम : जस्टिस एके सिकरी ने लंदन स्थित राष्ट्रमंडल सचिवालय मध्यस्थता न्यायाधीकरण में नामित करने के केंद्र सरकार के प्रस्ताव पर दी गयी अपनी सहमति वापस ले ली है. विवाद के बाद जस्टिस सिकरी ने यह कदम उठाया है. यानी जस्टिस सिकरी उन चंद लोगों में शामिल हो गये हैं, जिन्हें पद से अधिक अपनी प्रतिष्ठा प्यारी होती है. उनके वंशज भी उन पर गर्व करेंगे. इस अवसर पर इसी तरह का एक प्रसंग याद आ गया. इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने 1975 में इंदिरा गांधी का लोकसभा चुनाव रद्द कर दिया था. 1977 में इंदिरा गांधी की जगह मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. देसाई सरकार ने उन्हें एक बड़े पद का आॅफर दिया था. उन्होंने उसे तत्काल ठुकरा दिया. रिटायर्ड जस्टिस सिन्हा ने कहा था कि मुझे पुस्तकें पढ़ने और बागवानी करने से बेहतर कोई दूसरा सुखद काम नहीं लगता.

नार्को-डीएनए के लिए स्वीकृति जरूरी क्यों? : सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जांच के दौरान पुलिस यदि फिंगर प्रिंट उठाती है और उसके लिए उसके पास मजिस्ट्रेट के आदेश नहीं हैं तो भी ये फिंगर प्रिंट अमान्य नहीं होंगे. ये फिंगर प्रिंट कोर्ट मेें स्वीकार्य साक्ष्य होंगे. काश! सुप्रीम कोर्ट का ऐसा ही निर्णय नार्को टेस्ट और डीएनए जांच को लेकर भी किसी दिन आ जाता. कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि आरोपित की पूर्वानुमति के बिना उसका न तो नार्को टेस्ट हो सकता है और न ही डीएनए जांच. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इस देश के अनेक खूंखार अपराधियों के लिए कवच बन गया है. यदि सुप्रीम कोर्ट अपने इस निर्णय को पलट दे तो देश में गंभीर अपराधों पर काबू पाने में सुविधा होगी. जरूरत के अनुसार सुप्रीम कोर्ट अपने पिछले निर्णयों को पलटता भी रहा है.

शराब की कमाई से खतरनाक हथियार : खबर है कि बिहार में अन्य लोगों के अलावा शराब के अवैध धंधे में अनेक छोटे-बड़े अपराधी भी लगे हुए हैं. अधिकांश धंधा पुलिस के सहयोग से चल रहा है. एक तीसरी बात भी निकल कर आ रही है. शराब के धंधे में लगे छोटे अपराधी अब बड़े अपराधी बनने की प्रक्रिया में हैं. क्योंकि वे बड़े पैमाने पर एके-47 और अन्य छोटे घातक आग्नेयास्त्र खरीद रहे हैं. शराब के धंधे में अपार पैसा जो है! जिस अपराधी के पास जितना अधिक घातक हथियार होता है, वह उतना ही बड़ा अपराधी माना जाता है! बाद में वह राजनीति में भी अपनी भूमिका निभाता है. फिलहाल, ये अपराधी आने वाले दिनों में पुलिसकर्मियों के समक्ष भी खतरा पैदा करेंगे, जब पुलिसकर्मी किसी केस में उन्हें गिरफ्तार करने जायेंगे. यानी शराब के धंधे में मददगार पुलिसकर्मी अपने लिए भस्मासुर तैयार कर रहे हैं.

भूली-बिसरी याद : एक अप्रैल, 1997 को दिल्ली की एक अदालत में उस समय अजीब दृश्य उपस्थित हो गया, जब झामुमो सांसद शैलेंद्र महतो ने कहा कि मेरे बैंक खाते में जमा रिश्वत की राशि सरकार जब्त कर सकती है. याद रहे कि सांसदों को रिश्वत देने के मामले में झामुमो के 4 सासंदों सहित 21 अभियुक्तों पर मुकदमा चल रहा था. उससे पहले 22 मार्च को दिये गये अपने इकबालिया बयान में शैलेंद्र महतो ने यह स्वीकार किया था कि 28 जुलाई 1993 को पीवी नरसिंह राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट देने के लिए उन्होंने बतौर रिश्वत 40 लाख रुपये प्राप्त किये थे. इसमें से 39 लाख 80 हजार रुपये मैंने पंजाब नेशनल बैंक की नौरोजी नगर स्थित शाखा में जमा कर दिये. बीस हजार रुपये अपने व्यक्तिगत खर्च के लिए रख लिए. नरसिंंह राव के वकील आरके आनंद ने कोर्ट में कहा कि शैलेंद्र महतो दंड से बचने के लिए सरकारी गवाह बनना चाहते हैं. उसे बचकर नहीं जाने देना चाहिए. यह पूर्व सांसद रिश्वत प्राप्तकर्ता होने के कारण ज्यादा बड़ा अपराधी है. याद रहे कि झामुमो सांसद शिबू सोरेन, सूरज मंडल, साइमन मरांडी और शैलेंद्र महतो ने यह स्वीकार किया था कि उन्हें ‘देशहित में’ नरसिंह राव की अल्पमत सरकार को सदन में गिरने से बचाने के एक करोड़ 20 लाख रुपये दिये गये थे. हमने सरकार को बचाया भी. बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो सबसे बड़ी अदालत ने इस पर कुछ करने से साफ इन्कार कर दिया. कहा कि संसद के अंदर किये गये किसी काम के खिलाफ अदालत कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, चाहे वह रिश्वत लेने का मामला ही क्यों न हो. अदालत ने कहा कि इसमें संविधान ने हमारे हाथ बांध रखे हैं. यानी ऐसे रिश्वतखाेरों के खिलाफ कार्रवाई के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत है. पर, इतने साल के बाद भी किसी सत्ताधारी दल ने अब तक संशोधन दिशा में कोई पहल नहीं की. पता नहीं, कब किस दल को नरसिंह राव की तरह ‘देशहित में’ अपनी सरकार बचाने की जरूरत आ पड़े!

और अंत में : जनता पार्टी के शासनकाल में प्रधानमंत्री के पद को लेकर तीन बुजुर्ग नेता आपस में भिड़े हुए थे. तब किसी ने कहा था कि प्रधानमंत्री की कुर्सी को हटा कर वहां एक बेंच लगा दिया जाना चाहिए. पर, 2019 के लिए देश में जितनी संख्या में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नजर आ रहे हैं, उसे मद्देनजर रखते हुए अब एक बेंच से भी काम नहीं चलेगा! मूल बात यह है कि यदि किसी बड़े पद के लिए भी किसी तरह की न्यूनतम योग्यता की घोषित या अघोषित अनिवार्यता न रह जाये, तो ऐसी ही स्थिति पैदा हो जाती है.

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