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दामन पर दाग: यौनशोषण की कालिख

मुजफ्फरपुर बालिका गृह की बच्चियों के यौनशोषण का मामला सामने आने के बाद पूरे देश में इसकी चर्चा हो रही है. वहां रह रही बालिकाओं की वेदना चहारदीवारी में कैद होकर रह जाती, यदि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस की ऑडिट टीम ने इसकी जांच कर रिपोर्ट न दी होती. रसूखदारों की मिलीभगत से वर्षों […]

मुजफ्फरपुर बालिका गृह की बच्चियों के यौनशोषण का मामला सामने आने के बाद पूरे देश में इसकी चर्चा हो रही है. वहां रह रही बालिकाओं की वेदना चहारदीवारी में कैद होकर रह जाती, यदि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस की ऑडिट टीम ने इसकी जांच कर रिपोर्ट न दी होती. रसूखदारों की मिलीभगत से वर्षों से चल रहे कुकृत्य ने पूरे समाज को झकझोर दिया है. विधानमंडल व संसद में भी इसकी गूंज सुनाई दी. मामले की गंभीरता को देखते हुए राज्य सरकार ने इसकी सीबीआई जांच की सिफारिश की है.

सीबीआई की जांच में क्या नतीजा निकलता है, इसमें समय लगेगा. इसके पहले भी बिहार में यौन अपराध के कई मामले उजागर हुए थे, जिन्होंने बिहार को कलंकित किया था. मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड का मामला उजागर होने के बाद ऐसे पुराने मामलों की चर्चा हो रही है. आइए, नजर डालते हैं राज्य की कुछ पुरानी चर्चित घटनाओं पर, जिन्होंने अपने समय में राजनीति और समाज को उद्वेलित किया था. मकसद यह है कि ऐसी घटनाओं से समाज सबक ले और ऐसी व्यवस्था बने कि घटना की पुनरावृत्ति न हो और दोषी दंडित हों. यौनशोषण से जुड़ी कुछ चर्चित घटनाओं पर पढ़िए मिथिलेश और पवन प्रत्यय की रिपोर्ट.

1983: बॉबी हत्याकांड

गुत्थी रह गयी थी अनसुलझी

करीब 35 साल पहले बिहार विधानसभा सचिवालय की क्लर्क श्वेत निशा उर्फ बॉबी की हत्या ने तत्कालीन कांग्रेसी सरकार की नींव हिला कर रख दी थी़ तत्कालीन सीएम डॉ जगन्नाथ मिश्र को जबरन इस केस की जांच सीबीआई को सौंपनी पड़ी. उनके ही दल के करीब सौ विधायकों ने सरकार गिराने की धमकी दी थी़ श्वेत निशा के संबंध उन दिनों के बड़े कांग्रेसी नेताओं और उनके पुत्रों से रहे थे़ उसके हत्यारों तक सीबीआई नहीं पहुंच पायी और जांच टीम ने उसे आत्महत्या करार दिया़ तब जाकर सरकार बच सकी़

क्या हुआ था : करीब 33 वर्ष की युवती श्वेत निशा विधान परिषद की उपसभापति राजेश्वरी सरोज दास की दत्तक पुत्री थी़ विधानसभा सचिवालय में उसे नौकरी मिली थी़ कहते हैं, उस जमाने में युवा और रसिक माने जानेवाले कांग्रेसी नेताओं की वह चहेती थी़ इनमें मंत्री और विधायक और युवा व उम्रदराज नेता भी शामिल थे़ विधानसभा सचिवालय के पास के एक बड़े होटल में रोज देर रात बड़े लोगों का मजमा लगता था. सचिवालय के पास ही विधान परिषद के उपसभापति का सरकारी आवास था़ इसी में 7 मई, 1983 की रात नौ बजे श्वेत निशा की मौत संदिग्ध हालत में होती है. हद तो तब हो गयी जब उसे दफना भी दिया गया‍. दो डॉक्टरों ने उसके मृत होने के अलग-अलग कारण बताये़ पहले ने अत्यधिक रक्तस्राव होना तो दूसरे ने हृदयगति रुक जाने को मौत का कारण बताया़ अगली सुबह जब लोगों को उसकी मौत की जानकारी मिली, तो सत्ता के गलियारे में बेचैनी बढ़ने लगी़ उस समय तेज तर्रार आईपीएस अधिकारी किशोर कुणाल पटना के एसएसपी थे़ कांग्रेस की गुटबाजी ऐसी थी कि दूसरे पक्ष को श्वेत निशा की आत्महत्या की खबर पच नहीं रही थी़ लिहाजा,अखबारों में उसकी मौत खबर बनने लगी़ एसएसपी किशोर कुणाल ने स्वत: संज्ञान लिया और केस की तहकीकात की जिम्मेवारी खुद संभाली़ मध्य पटना के कदमकुआं इलाके में दफनायी गयी श्वेत निशा की कब्र खोदी गयी व दोबारा पोस्टमार्टम हुआ़ रिपोर्ट के अनुसार, श्वेत निशा की मौत मेलेथियम जहर खाने से हुई थी. जब यह खबर फैली, तो पटना में राजनीतिक तूफान खड़ा हो गया़ कांग्रेस के दिग्गजों के नाम सामने आने लगे़ घाघ नेताओं ने तत्कालीन सीएम डॉ जगन्नाथ मिश्र की घेराबंदी की़ पहले तो एसएसपी किशोर कुणाल पर दबाव बनाया गया़ लेकिन, जब वह दबाव में नहीं आये. नाराज कांग्रेसियों का खेमा दिल्ली पहुंचा़ कहते हैं कि दिल्ली दरबार से सीएम भी दबाव में आ गये और 18 दिन बाद 25 मई, 1983 को मामला सीबीआई को सौंप दिया गया. करीब एक साल तक सीबीआई बैठी रही और अंत में मई, 1984 में अंतिम रिपोर्ट फाइल कर दी, जिसमें कहा गया कि प्रेम में धोखा खाने के बाद श्वेत निशा ने खुद ही जहर खाया था. कुछ दिन बाद केस को बंद भी कर दिया गया़ लोग आज तक यह नहीं जान पाये कि आखिरकार 7 मई, 1983 को क्या हुआ था.

1999:शिल्पी गौतम हत्याकांड

गैराज में मिले थे शव, उछले थे बड़े नाम

तीन जुलाई,1999. रात के नौ बजे पटना में गांधी मैदान थाना क्षेत्र में रिजर्व बैंक के पीछे एक बड़े बंगले के गैराज में एक युवक और युवती के शव होने की खबर आयी, तो पहली नजर में पुलिस को लगा कि शायद यह किसी प्रेमी-प्रेमिका की आत्महत्या से अधिक कुछ नहीं है. थाने के अधिकारी अभी पहली तफ्तीश कर चैन की सांस भी नहीं ले पाये थे कि यह साधारण-सी दिखनेवाली घटना के बारे में चौतरफा शोरगुल शुरू होने लगा़ दोनों लाशों को देखनेवालों की भीड़ जुट गयी़ मारुति कार में 23 साल की युवती और करीब 28 साल के युवक की लाशें पड़ी थीं. उनके बदन में कपड़े नहीं थे. भीड़ में से कुछ ने युवक को गौतम सिंह के नाम से पहचाना़ जिस परिसर में लाश मिली थी, वह गौतम का ही घर था़ गौतम के पिता बाहर रहते थे़ वह घर में संभवत: अकेले ही रहता था़ युवती की पहचान पटना जंक्शन के करीब रेडिमेड कपड़े की एक बड़ी दुकान के मालिक की बेटी शिल्पी जैन के रूप में हुई़ अब सवाल यह था कि दोनों ने आत्महत्या की थी या बड़ी साजिश के शिकार हुए थे़ देर रात पटना पुलिस के आला अधिकारी मगजमारी करते रहे़ हालांकि, दबी जुबां इस केस के तार तत्कालीन सत्ताधारी दल के बड़े नेताओं से जुड़ने लगे थे़ कहते हैं, शिल्पी घर से अकेली कॉलेज जाने के लिए निकली थी़ फिर वह कैसे गौतम के घर पहुंची, जहां उसकी लाश मिली. उसके घर वाले आत्महत्या मानने को तैयार नहीं थे़ पुलिस भले ही केस की तार को कहीं नहीं जोड़ पा रही थी, लेकिन, कानोंकान खबर फैल रही थी. उसके मुताबिक शिल्पी को उसे जाननेवाली एक महिला ने अपनी कार पर बिठा कर फुलवारीशरीफ स्थित वाल्मी के पास सुनसान स्थल पर पहुंचाया था़ शिल्पी के वहां पहुंचने की जानकारी जब गौतम को मिली, तो वह भी भागा-भागा वहां पहुंचा़ गौतम ने देखा कि शिल्पी के ऊपर कुछ नेता किस्म के लोग टूटे पड़े थे़ दोनों ने इसका विरोध किया़ लेकिन, उन लोगों के सामने उनकी एक नहीं चली़ शिल्पी से दुष्कर्म के बाद दोनों की गला दबा कर हत्या कर दी गयी़ पर, पुलिस के पास इन घटनाओं के कोई भी सबूत नहीं थे़ यह सुनी-सुनायी घटना थी, जिसे लोग सत्य मान रहे थे़ इस केस में दो सांसद व कुछ विधायकों के भी नाम भी चर्चा में रहे थे़ उन दिनों प्रदेश में राबड़ी देवी की सरकार थी़ घटना को लेकर विपक्ष ने राजद सरकार को घेरने की रणनीति बनायी़ धरना, बंद और प्रदर्शन का दौर शुरू हो गया़ अंत में दो महीने बाद सरकार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपने का आदेश दिया़ लेकिन, चार साल तक चली सीबीआइ्र जांच का कोई नतीजा सामने नहीं आया़ सीबीआई ने तत्कालीन एक सांसद से कई दफा पूछताछ की़ लेकिन, उसे सबूत नहीं मिला़ आखिरकार, एक अगस्त 2003 को सीबीआई ने फाइनल रिपोर्ट कोर्ट में पेश की और इस तरह केस बंद कर दिया गया.

1998: चंपा विश्वास प्रकरण

थर्रा गयी थी ब्यूरोक्रेसी, राज्यपाल ने केंद्र से किया था कार्रवाई का अाग्रह

वरिष्ठ आईएएस अधिकारी बीबी विश्वास की पत्नी चंपा विश्वास के साथ 1998 में तत्कालीन सत्ताधारी दल राजद से जुड़ी एक नेत्री के बेटे पर दुष्कर्म का आरोप लगा तो राजनीतिक गलियारों के साथ-साथ पूरी ब्यूरोक्रेसी भी थर्रा गयी़ आईएएस अधिकारी की पत्नी का आरोप राजद नेत्री व पूर्व विधायक के पुत्र पर था़ चंपा विश्वास ने कहा था कि नेत्री के पुत्र ने उसके व उसकी नौकरानी के साथ कई बार दुष्कर्म किया. चंपा विश्वास और उनके पति आईएएस अधिकारी बीबी विश्वास ने आरोपों की पूरी कहानी का ब्योरा तत्कालीन राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी को सौंपा था़ 1982 बैच के आईएएस अधिकारी बीबी विश्वास उन दिनों समाज कल्याण विभाग में सचिव के पद पर तैनात थे़ तब राजद नेत्री समाज कल्याण बोर्ड की चेयरमैन थी़ दोनों के सरकारी आवास आसपास ही थे. चंपा ने अपनी शिकायत में कहा कि आरोपित नेत्री के पुत्र ने दुष्कर्म के लिए न सिर्फ आपराधिक दबाव बनाया और चुप रहने की धमकी दी, बल्कि हिंसा के साथ दुष्कर्म, छेड़छाड़ और सरकारी नौकरियों के वादे का प्रलोभन देकर उनके परिजनों का यौनशोषण किया था़ चंपा ने यह भी कहा कि उसे जबरन एक बार गर्भपात भी कराया गया था़ उसने यह भी कहा कि उसकी दो नौकरानी और भतीजी गायब हैं.आईएएस अधिकारी की पत्नी की इस शिकायत पर राज्यपाल ने केंद्रीय गृह मंत्रालय से इस मामले में उचित कार्रवाई करने का अनुरोध किया और इसके बाद राज्य स्तर पर डीजीपी (प्रशासन) नियाज अहमद ने पुलिस को जांच का आदेश दिया

यह ऐसा मामला था, जिसमें आईएएस अधिकारी होने के बावजूद, बीबी विश्वास यौनशोषण से अपनी पत्नी और अन्य रिश्तेदारों की रक्षा में असहाय थे़ वहीं ब्यूरोक्रेसी भी असहज महसूस कर रही थी़ शिकायत के कुछ दिन बाद श्री विश्वास और उनका परिवार दिल्ली चला गया़ चंपा विश्वास का कहना था कि उनके पति का जीवन खतरे में था और इसलिए उन्होंने एक सुरक्षित स्थान पर जाने का फैसला किया था़ दूसरी ओर नेत्री का बेटा अपने को निर्दोष बताता रहा़ इसके बावजूद उसे कई महीनों तक जेल में रहना पड़ा़

2011: रूपम पाठक प्रकरण

विधायक आवास में घुस घोंप दिया था चाकू

यौनशोषण के विरोध में किसी विधायक की हत्या की पहली घटना थी. चार जनवरी, 2011 को पूर्णिया के तत्कालीन विधायक राज किशोर केसरी की चाकू मार कर हत्या कर दी थी. इनकी हत्या एक प्राइवेट स्कूल की संचालिका रूपम पाठक ने की थी. गिरफ्तारी के बाद रूपम ने जो आरोप लगाये थे, वे काफी सनसनीखेज थे. उसने 28 मई, 2010 को विधायक व उनके सहयोगी विपिन राय पर तीन वर्षों तक दुष्कर्म करने का आरोप लगाकर प्राथमिकी दर्ज करायी थी. इस कांड में साक्ष्य की कमी के कारण पुलिस ने 31 अगस्त, 2010 को फाइनल रिपोर्ट कोर्ट में सौंप कर फाइल बंद कर दी थी. 16 सितंबर, 2010 को पुलिस अनुसंधान में लापरवाही का आरोप लगा रूपम ने कोर्ट में पिटीशन दाखिल किया था. 25 मार्च , 2011 को सुनवाई की तिथि तय थी. लेकिन, सुनवाई से पहले ही चार जनवरी, 2011 को विधायक आवास में घुस कर राज किशोर केसरी की हत्या कर दी गयी.

चादर में लपेट कर लायी थी ‘मौत’ : चार जनवरी, 2011 को आम दिनों की तरह विधायक राज किशोर केसरी अपने आवास पर समर्थकों के साथ बैठे थे, तभी रूपम चादर लपेटे आयी और बात करने के बहाने विधायक को अलग ले गयी. बात करने के दौरान ही चादर में छिपाये चाकू को निकाल रूपम ने विधायक के पेट में गोद दिया. विधायक वहीं पर गिर पड़े. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया. लेकिन, उनकी जान नहीं बच सकी. इस घटना के बाद समर्थकों ने रूपम की पिटाई के बाद कमरे में बंद कर दिया. उसी दिन रूपम को विधायक के आवास से गिरफ्तार किया गया था, जबकि दूसरे आरोपित और पूर्णिया के ही निजी पत्रिका के संचालक नवलेश पाठक को दो दिन बाद उनके पैतृक आवास से गिरफ्तार किया गया था. मामले में हाइकोर्ट से जमानत के बाद रिहा रूपम को सुप्रीम कोर्ट ने राहत नहीं दी और जमानत खारिज कर दी. इसके बाद सीबीआई कोर्ट उम्रकैद की सजा सुनायी थी. वहीं, इस बहुचर्चित यौनशोषण मामले में कोर्ट ने दोषी विपिन राय को 10 मार्च, 2016 को 10 वर्षों की सजा सुनायी. गौरतलब है कि रूपम पाठक ने तत्कालीन विधायक राज किशोर केसरी और उनके पीए विपिन राय के खिलाफ सीजेएम कोर्ट में यौन शोषण का मुकदमा दायर किया था.

2016: राजबल्लभ प्रसाद प्रकरण

यौनशोषण में जेल की हवा खा रहे हैं ‘विधायक जी’

सूबे में यौनशोषण के दो मामलों में सीधे-सीधे विधायकों के नाम सामने आये थे. एक तो पूर्णिया के तत्कालीन विधायक राज किशोर केसरी पर निजी स्कूल की संचालिका रूपम पाठक ने 2011 में तीन वर्षों तक यौनशोषण का आरोप लगाया था. बाद में इस प्रकरण में रूपम ने राज किशोर केसरी की हत्या कर दी थी. वहीं, दूसरे मामले में नवादा के विधायक राजबल्लभ प्रसाद पर नाबालिग से दुष्कर्म का आरोप लगाया गया. नालंदा जिले के रहुई थाने के सुल्तानपुर की 15 वर्षीया लड़की ने महिला थाने में नौ फरवरी, 2016 को दुष्कर्म की शिकायत दर्ज करायी थी. पीड़िता ने आरोप लगाया था कि छह फरवरी, 2016 को बिहारशरीफ के धनेश्वर घाट मोहल्ले की सुलेखा देवी उसे एक जन्मदिन की पार्टी में ले जाने के बहाने गिरियक ले गयी. इसके बाद नवादा के विधायक राजबल्लभ के हवाले कर दिया गया. लड़की को सात फरवरी को बिहारशरीफ में उसके घर छोड़ दिया गया और उसे मुंह बंद रखने की धमकी दी गयी. लेकिन, मामला दर्ज होने के बाद से राजबल्लभ फरार हो गये थे व एक माह बाद सरेंडर किया था. राजबल्लभ को पटना हाईकोर्ट ने पहले जमानत दे दी थी. पर सुप्रीम कोर्ट ने अपील पर उस फैसले को निरस्त कर दिया था.

शराब पीने को कहा था : पीड़िता ने आरोप लगाया था कि सुलेखा उसे गिरियक के एक घर में लेकर गयी और शराब पीने को कहा, पर उसने इन्कार कर दिया. उसके बाद एक व्यक्ति वहां पहुंचा, जिसने महिला के सामने ही दुष्कर्म किया और महिला उसे पकड़े रही. उस व्यक्ति ने महिला को कीमत 30 हजार रुपये दिये और दूसरे दिन पीड़िता को यह कह कर घर पंहुचा दिया कि यह बात किसी से नहीं कहना. पर पीड़िता ने सारी बातें बड़ी बहन को बता दीं. इसके बाद लड़की परिवार के साथ महिला था जाकर सुलेखा और उस व्यक्ति के खिलाफ मामला दर्ज कराया था. पीड़िता ने दुष्कर्म करनेवाले की पहचान न विधायक राजबल्लभ प्रसाद के रूप में की थी. मामले की गंभीरता को देखते हुए राजबल्लभ की गिरफ्तारी का आदेश दे दिया गया था.

सोशल ऑडिट से सामने आएंगे काले

अजय कुमार
सरकारी योजनाओं का सोशल ऑडिट का महत्व बढ़ रहा है. सरकार की अलग-अलग योजनाओं के बारे में इससे एक तस्वीर उभर कर सामने आती है. इससे पता चलता है कि योजनाओं के जरिये लोगों के जीवन में बदलाव लाने की जो कोशिश है, उसका परिणाम किस रूप में निकल रहा है. मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड को सामने लाने में ‘टिस’(टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस) की कोशिश टीम की रिपोर्ट की बड़ी भूमिका रही. बालिका गृहों की ऑडिट का जिम्मा उसे दिया गया था. उसने अपनी रिपोर्ट समाज कल्याण विभाग को दी थी. अब जरा सोचें कि बालिका गृह का ऑडिट नहीं हुआ रहता, तो वहां चल रहा धंधा और कितने दिनों तक चलता? समाज कल्याण विभाग या सरकारी ढांचे के तहत की जाने वाली निगरानी की नजर ऐसे लोगों पर कब पड़ती? सवाल यह भी है कि इतना बड़ा खेल चल रहा था और संबंधित विभाग के अधिकारियों को इनकी भनक तक नहीं लगी? इस पर सहज विश्वास नहीं होता. ऐसे में यह आशंका क्यों न पैदा हो कि इस खेल में वे भी आपाद मष्तस्क डूबे हुए थे जिन पर मजलूमों की आंखों में सिस्टम के प्रति भरोसा पैदा करने की जिम्मेदारी थी. सबसे बड़ी बात यह है कि बालिका गृहों के चलाने के लिए राज्य के खजाने के पैसे से दिये जाते हैं. आखिर इसकी एकाउंटिब्लिटी (उत्तरदायित्व) किसकी होगी. बिहार के कई इलाकों में मनरेगा को लेकर सोशल ऑडिट अलग-अलग संगठन कर रहे हैं. अररिया से मुजफ्फरपुर तक इस योजना के तहत पैसों की लूट करने वाले बेनकाब हुए. पर यह इतना आसान भी नहीं होता है. इसमें लगे लोगों का अनुभव है कि सरकारी चैनल में बैठे लालची अफसरों, बिचौलियों और लंपट तत्वों का ऐसा गिरोह बन जाता है जो अनेक तरह की बाधाएं पैदा करता है.अब तो सरकार ने सोशल ऑडिट के लिए निदेशालय बना दिया है, जिसकी ओर से पूर्णिया में सोशल ऑडिट चल रहा है. वहां का हाल जानने के लिए जन जागरण शक्ति संगठन में काम करने वाले आशीष रंजन पूर्णिया गये. उन्होंने अपने अनुभवों को फेसबुक वॉल पर साझा किया है. लिखते हैं-पूर्णिया की करीब 50 पंचायतो में इंदिरा आवास और मनरेगा योजना का सोशल आॅडिट चल रहा है. कल वहां जाना हुआ और वहां की टीम से मिलना हुआ. ऑडिटर कोई अफसर नहीं, बल्कि आम ग्रामीण हैं. गांव के ही स्कूल और पंचायत भवन में रहकर यह काम को अंजाम दे रहे हैं. पूरी प्रक्रिया में कई तरह की कमजोरी और कठिनाइयां हैं. ऐसा लगा कि टीम को मझधार में छोड़ दिया गया है. जिले के बड़े अधिकारी उदासीन हैं. पर अब हर पंचायत में यह प्रक्रिया चलेगी.

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