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राजनीतिज्ञ वेश्या हैं!

– हरिवंश – लालकृष्ण आडवाणी ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया, इसके चार दिनों बाद आरएसएस के सुदर्शन जी का बयान आया कि राजनीतिज्ञ वेश्या की तरह होते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख ने यहां तक कह डाला कि लोगों को रिझाने-लुभाने के लिए जिस तरह वेश्या रोज नया रूप बदलती है, वैसे ही राजनेता […]

– हरिवंश –

लालकृष्ण आडवाणी ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया, इसके चार दिनों बाद आरएसएस के सुदर्शन जी का बयान आया कि राजनीतिज्ञ वेश्या की तरह होते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख ने यहां तक कह डाला कि लोगों को रिझाने-लुभाने के लिए जिस तरह वेश्या रोज नया रूप बदलती है, वैसे ही राजनेता भी रोज नये रूप बदलते हैं. नि›त रूप से यह बयान आडवाणी के इस्तीफा प्रकरण से जुड़ा है, साथ ही राजनीतिज्ञों के चरित्र-बरताव पर यह गंभीर टिप्पणी है.
लालकृष्ण आडवाणी ने आजीवन जिन सिद्धांतों-आदर्शों को मूल मान कर राजनीति की, पाकिस्तान जा कर ठीक उसके उल्टा बयान दिया. इस ‘हृदय परिवर्त्तन’ से भाजपा से जुड़े संगठनों और उनकी विचारधारा से सहमत लोगों में प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक थीं. कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने टिप्पणी की कि देंग सियाओ पेंग (चीन के साम्यवादी नेता, जिन्होंने 77-78 में ही वहां मार्केट इकॉनामी लागू कर दिया) जैसा आडवाणी का मानस परिवर्त्तन हो गया है.
उल्लेखनीय है कि 80 वर्ष की उम्र के आसपास ही देंग ने चीन में बाजार व्यवस्था को लागू कर दिया था. मार्क्सवाद-साम्यवाद से पूंजीवाद की देंग की यात्रा, चीन के इतिहास में उल्लेखनीय है. मनुष्य के जीवन में परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन स्वाभाविक है, पर उस परिवर्तन -बदलाव पर वह इंसान टिका रहे, तब प्रमाणित होता है कि यह बदलाव जेनुइन है. यह बदलाव वैसा, जैसा अब्राहम लिंकन ने अपने बेटे के बारे में कामना की थी.
उन्होंने उस स्कूल के एक अध्यापक को पत्र लिखा, जहां उनका बेटा पढ़ता था. उस ऐतिहासिक पत्र में उन्होंने उस अध्यापक से आग्रह किया कि आप ऐसी शिक्षा दें, कि मेरा बेटा विवेकसंपन्न हो. अगर उसे लगे कि वह सही बात कह रहा है, तो पूरी दुनिया भी खिलाफ हो जाये, तो वह अकेले डटा रहे. वह भले अकेला एक तरफ रहे, दूसरी ओर सारे लोग हों, पर अपने ‘कन्विकशन’ (आस्था) से न डिगे.
विचारों में बदलाव का यह जेनुइन प्रतीक है. देंग सियाओ पेंग को ’77-78 में सत्ता में वापसी पर लगा कि मार्क्सवाद-साम्यवाद के रास्ते अब चीन समृद्ध नहीं होगा, तो उन्‍होंने बगैर प्रचार-विचारों में बदलाव का ढ़िंढ़ोरा पीटे चीन को ‘साम्यवाद’ से ‘मार्केट इकॉनामी’ के रास्ते डाल दिया.
उनका एक बड़ा मशहूर फ्रेज (मुहावरा) उन दिनों प्रचलित हुआ, ‘इट हार्डली मैटर्स, व्हेदर कैट इज ब्लैक आर हाइट, टिल हट कैचेज माइस’ (यह बड़ी बात नहीं है कि बिल्ली काली या सफेद है, मूल बात है कि वह चूहा पकड़ने की क्षमता रखती है या नहीं?) इस कथन से संकेतों में उनका आशय यह था कि साम्यवाद हो या पूंजीवाद, यह बड़ा सवाल नहीं है. सिद्धांत या आदर्श बड़े बात नहीं है. मूल सवाल है कि देश-समाज को कौन समृद्ध बना पाता है? फिर देंग आजीवन इसी विचारधारा को आगे बढ़ाने में लग गये और आज ‘चीन दुनिया का सुपरपावर’ बन रहा है, तो यह माना जाता है कि इसके मूल में देंग के विचारों में 1977-78 में आया क्रांतिकारी परिवर्तन है.
क्या आडवाणी का हृदय परिवर्तन देंग जैसा था? बिल्कुल नहीं! भाजपा ने मोहम्मद अली जिन्ना के संबंध में जो प्रस्ताव पास किया, उस पर आडवाणी को हस्ताक्षर करना पड़ा. उसे स्वीकार करना पड़ा. भाजपा के उस प्रस्ताव में जिन्ना के बारे में भाजपा के वही कट्टर विचार थे, जो जनसंघ के जन्म से चले आ रहे हैं. जिन्ना के बारे में अगर आडवाणी अपने पाकिस्तान में दिये गये बयानों पर डटे रहते, तो वह कतई भाजपा के जिन्ना संबंधी प्रस्ताव पर हस्ताक्षर नहीं करते.
आडवाणी ने 17-18 मई को इस संबंध में एक और बयान दिया. कहा कि इतिहास बदल गया है, समय बदल गया है, भारत-पाक दोनों देशों में युवा पीढ़ी आ गयी है, जो नयी दुनिया बनाना-बसाना चाहती है. वह धर्म के अनुसार नहीं, आधुनिक सपनों के अनुसार जीना चाहती है. आडवाणी की यह स्वीकारोक्ति सही है. यही बातें आडवाणी की यात्रा के दौरान पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ ने कही थी कि इतिहास की यात्रा में हम आगे निकल आये हैं. पीछे लौटने का अब रास्ता नहीं, इसलिए हम मिल कर नयी शुरूआत करें, यह कहना था, मुशर्रफ का.
दोनों देशों के हित में यही है कि वे पुरानी कटुता को भूल कर नयी चुनौतियों का सामना करें. वैसे भी अब समाज धर्म से नियंत्रित होनेवाला नहीं. भारत में पहले ही पंडितों-कट्टर हिंदू संगठनों की लोकप्रियता घट रही है. उधर मुसलमानों में भी मौलवी-मौलाना, अब धर्म के आधार पर लोगों को लुभा नहीं पा रहे. खुद पाकिस्तान में मौलवी-मौलानाओं की अपील का असर पहले जैसा नहीं रहा.
आडवाणी अगर इस मानस परिवर्तन को समझते हैं, तो उन्हें भाजपा के इस उदारवादी रास्ते पर ले जाने की कोशिश करनी चाहिए. यह आसान नहीं है. पिछले 50 वर्षों से जो दल सांप्रदायिक मुद्दों की पूंजी पर फलता-फूलता रहा, उसे अचानक उदार-मध्यमार्गी नहीं बनाया जा सकता.
उस दल के जींस में धर्म ‘सांप्रदायिकता’ के सवाल हैं. पर आडवाणी ऐसा कर पाते, तो वे देंग की तरह भारत की राजनीति को नये रास्ते पर डालनेवाले ‘पुरुष’ की तरह याद किये जाते. पर उन्होंने भाजपा अध्यक्ष पद पर पुन: आसीन होने के लिए हथियार डाल दिये. इससे यह भी प्रमाणित हो गया कि वे भाजपा के एक नेता भर हैं, उनमें वह क्षमता, दृष्टि और आत्मविश्वास नहीं कि एक नयी शुरूआत कर सकें. इसलिए आरएसएस के सुदर्शन कहते हैं कि राजनीतिज्ञ वेश्या की तरह हो गये हैं. उनकी निष्ठा-मान्यता कहीं एक जगह नहीं है.
वे (वेश्याएं) जैसे पैसे के लिए ग्राहक बदलती हैं, वैसे ही पद, प्रतिष्ठा के लिए नेता अपना विचार-मान्यता-प्रतिबद्धता-निष्ठा बदलते हैं.
दरअसल यह टिप्पणी भारतीय मध्यमार्गी राजनीति के संदर्भ में अत्यंत कठोर लगती है, पर सच है. नेता का अर्थ माना जाता था कि वह जो कहता है, उस पर चलता है. उसकी कथनी-करनी में कोई फर्क नहीं होता. असली नेता ‘स्टेट्समैन’ माना जाता है, जो भीड़ की इच्छानुसार नहीं चलता. वह अलोकप्रियता का जोखिम उठा कर, धारा के खिलाफ चलने का साहस करता है.
जो वोट और कुरसी के लिए जनता की भावनाओं के अनुसार बयान देता या बदलता है, वह लालू प्रसाद की तरह ‘पापुलिस्ट नेता है’. कन्विकशन का नेता नहीं. ऐसे नेता निजी भला करते हैं. आत्मकेंद्रित होते हैं. समाज का भला नहीं करते.
एक रोचक प्रसंग है. बरसों पहले, एक दिन लालू प्रसाद ने पटना के सरकारी कार्यक्रम में पत्नी मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के साथ भाग लिया. वहां कंप्यूटर टेक्नालॉजी की बड़ी प्रशंसा की. उसी दिन शाम में वह पटना में 70 कि.मी. दूर मुजफ्फरपुर की एक मीटिंग में कंप्यूटर को गरीबों का दुश्मन बताया.
हालांकि अपनी बेटी की शादी कंप्यूटर इंजीनियर से की. इसी तरह एक सरकारी बैठक में उन्होंने जनसंख्या पर नियंत्रण की अपील की, तो दूसरी बैठक में गरीबों की बढ़ती जनसंख्या को शुभ माना. समय और परिस्थिति के अनुसार बयान बदलना, राजनीतिज्ञों के व्यक्तित्व का हिस्सा हो गया है. चौधरी चरण सिंह कहा करते थे कि नेता का तो कोई व्यक्तिगत रूप या जीवन होता ही नहीं, वह हर समय सार्वजनिक है.
किसी मुद्दे पर वह अकेले में जो कहे, वह उसके सार्वजनिक मंचों के बयान से मेल खाना चाहिए. समय, जगह, परिस्थिति के अनुसार नेताओं के बयान नहीं बदलने चाहिए. पर भारतीय राजनीति का यह चरित्र हो गया है. कब कौन नेता क्या कहेगा, अनुमान लगाना कठिन है. जिन नेताओं के चरित्र विश्वसनीय न हों, जिन पर लोगों की आस्था न बने, वे कभी इतिहास में बड़ा बदलाव नहीं करते. 1974 इस देश की राजनीति के लिए बड़ा लैंड मार्क है.
1974 के पहले की कांग्रेस में पतन दिखने लगा था, फिर भी तत्कालीन नेताओं के कुछ मूल्य-सरोकार थे. वे दिखावे के लिए इस्तीफा नहीं देते थे. वे किसी एक विषय पर जो कहते थे, उसे सुविधा, लोभ या परिस्थिति के अनुसार बदलते नहीं थे. इस कारण लोग नेताओं पर यकीन करते थे. जब जयप्रकाश नारायण ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का आवाहन किया, तो जनता उनके साथ खड़ी हुई. लोगों को लगा कि जेपी का चरित्र विश्वसनीय है.
पर ’77 में सत्ता परिवर्त्तन के बाद जनता पार्टी जेपी के सपनों के अनुसार नहीं चल सकी. जनता का राजनेताओं से मोहभंग होने लगा. पराकाष्ठा तो 1989 में हुई. पुन: भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष के लिए राजनेताओं ने जनता से अपील की. भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष के नायक हुए वीपी सिंह. वह गद्दी पर भी बैठे. पर भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष के अपने वायदे को भूल गये.
यह रिकार्डों में-अखबारों में दर्ज है. 1988 में पटना की ऐतिहासिक भीड़-रैली में उन्होंने बोफोर्स प्रकरण में घूस लेनेवालों के नाम कहे थे. स्विस बैंक के ‘लोट्स एकाउंट’ का हवाला दिया था. उसी दिन शाम में वह दिल्ली पहुंच कर लोकसभा भी गये. लोकसभा में जब तत्कालीन कांग्रेसी सांसदों कल्पनाथ राय और केके तिवारी ने उन्हें वही आरोप लोकसभा में दोहराने को कहा, जो उस दिन उन्होंने पटना की रैली में लगाया था, संसद में तो वीपी सिंह मौन बैठे रहे.
कुछ नहीं कहा. लोगों ने कहा कि सदन के रिकॉर्ड पर वह कुछ कहना नहीं चाहते हैं. बाहर दिये गये बयान का कानूनी ढंग से कोई अर्थ नहीं है. लोकसभा में अपने आरोप दोहराते, तो उन पर संसदीय जांच होती. उसमें सबूत चाहिए थे, जो नहीं थे. यानी वीपी सिंह जिस आरोप की सीढ़ी पर चढ़ कर गद्दी पा रहे थे, उसके बारे में शुरू से सच जानते थे. पर जनता को भ्रम में रखा. आज वह कहते घूम रहे हैं कि मैंने बोफोर्स प्रकरण में कभी राजीव गांधी का नाम नहीं लिया. 1989 में जब उन्हें प्रधानमंत्री बनना था, तो भाजपा का साथ लेने में हिचक नहीं हुई.
इन भाजपाइयों ने उन दिनों विश्वनाथ प्रताप सिंह को राजर्षि का खिताब, बनारस की एक बड़ी जनसभा में दिया था. वहीं नारा लगा था कि ‘राजा नहीं फकीर हैं, देश की तकदीर हैं’ यह नारा लगा, क्योंकि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में उतरे थे. उनका दावा था कि सत्ता में बैठने के 24 घंटे के अंदर बोफोर्स की दलाली खानेवाले को उजागर करेंगे. पर सत्ता में बैठते ही वे पलट गये.
यह स्थिति सिर्फ आडवाणी, वीपी सिंह, लालू प्रसाद की ही नहीं है. आप किसी नेता को लें, (वामपंथियों को छोड़ कर) वह अकसर कपड़े की तरह बयान और विचार बदलता है. क्या जनता की आस्था इन नेताओं के प्रति होगी? क्या ऐसे अविश्वसनीय नेता भारत के इतिहास-भविष्य को एक सार्थक देश दे पायेंगे?

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