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हिंदी के नाम पर व्यापार

-हरिवंश- सरकारी संरक्षण में एक नयी हिंदी (सरकारी भाषा) पनप रही है. इस भाषा में बड़े पैमाने पर सरकारी कामकाज हो रहे हैं. प्रतिवर्ष इसे समृद्ध बनाने में करोड़ों रुपये व्यय किये जा रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद से अब तक तकरीबन 2800 करोड़ रुपये हिंदी को विकसित करने के लिए सरकार खर्च कर चुकी […]

-हरिवंश-

सरकारी संरक्षण में एक नयी हिंदी (सरकारी भाषा) पनप रही है. इस भाषा में बड़े पैमाने पर सरकारी कामकाज हो रहे हैं. प्रतिवर्ष इसे समृद्ध बनाने में करोड़ों रुपये व्यय किये जा रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद से अब तक तकरीबन 2800 करोड़ रुपये हिंदी को विकसित करने के लिए सरकार खर्च कर चुकी है. इस भाषा की खूबी है कि यह .चीनी. (दुनिया की सबसे कठिन भाषा) से भी कठिन है और इस भाषा का ईजाद करनेवाले खुद इसे नहीं समझते.

हिंदी सप्ताह के दौरान दिल्ली के विभिन्न मंत्रालयों में एक व्यक्तिगत सर्वे किया गया. सर्वे के अनुसार हिंदी भाषाभाषी अधिकारियों ने स्वीकार किया कि उन्हें मौजूदा सरकारी हिंदी समझ में नहीं आती. वे बोलचाल की हिंदी में काम करना पसंद करेंगे. लेकिन ऐसी हिंदी को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है.

संविधान बनाने के पूर्व हिंदी को राजभाषा बनाने की दलील देनेवाले दो खेमों में बंटे थे. एक समूह संस्कृतनिष्ठ हिंदी का पक्षधर था, दूसरा हिंदुस्तानी का. हिंदुस्तानी में उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से आये शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग होता था. गांधी जी भी ऐसी भाषा के ही पक्षधर थे. नेहरू भी इसे ही तरजीह देते थे. दूसरे खेमे के लोगों को हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्दों के प्रयोग से परहेज था. फिलहाल सरकार की देखरेख में जिस हिंदी का विकास हो रहा है, वह इन दोनों से अलग और एक नयी धारा है.

यह धारा लोकोन्मुख नहीं, लोक विपरीत है, जो भाषा अपने आधार से कट जाती है, वह जीवंत नहीं रहती और धीरे-धीरे मर जाती है. संस्कृत के पराभव और संपन्नता पर गौर करें, तो यह स्पष्ट होगा. संस्कृत में वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, रामायण, महाभारत और न जाने कितना महत्वपूर्ण रचनाएं हैं. लेकिन इस समृद्ध भाषा का अस्तित्व आज खतरे में है. भाषा का क्लिष्ट होना उसकी लोकप्रियता और स्थायित्व की गारंटी नहीं है.

अगर ऐसा होता, तो आज विश्व में लैटिन, ग्रीक संस्कृत-चीनी भाषाओं का ही बोलबाला रहता. भाषा की जीवंतता की पहली और महत्वपूर्ण शर्त है कि वह लोक से न कटे. जिस क्षण भाषा बौद्धिकों-विद्धानों की गिरफ्त में आ जाती है, वह मरने लगती है. वस्तुत: करोड़ों की लागत से जो कठिन सरकारी हिंदी विकसित की जा रही है, वह चलनेवाली नहीं हैं. न उसमें सरकारी कामकाज हो सकता है, न वह लोकभाषा बन सकती है. वस्तुत: यह हिंदी के साथ एक षडयंत्र है.

अब सरकारी बुद्धिजीवी यह फतवा दे रहे हैं कि यह भाषा व्यावहारिक नहीं है, कठिन है. अत: यह राजभाषा नहीं हो सकती. सरकारी देखरेख में हिंदी को न तो संस्कृत की तरह परिमार्जित किया जा रहा है और न ही इसका फलक व्यापक बनाया जा रहा है. हां अशुद्ध अनुवाद, जटिल और अस्पष्ट शब्दों के प्रयोग और समझ में न आने वाले वाक्य सरकारी हिंदी को न समृद्ध कर रहे हैं, न लोकप्रिय बना रहे हैं. बल्कि इसकी जड़ों पर प्रहार कर रहे हैं. दूसरी भाषाओं के सरल और सहज शब्दों को अपनाने में हिंदी का एक बड़ा तबका संकोच करता है. वस्तुत: भाषा की समृद्धि का यह राज है कि वह विकास की प्रक्रिया में दूसरी भाषाओं के शब्दों को पचा लेती है.

यह भाषा की कमी नहीं, उसकी विशेषता है. 1752 के आसपास चंद हजार शब्द अंगरेजी की कुल संपदा थे. फिलहाल उसके पास 18-20 लाख शब्द हैं. इनमें 40 फीसदी शब्द लैटिन, ग्रीक और फ्रेंच से अंगरेजी में आये हैं. वनस्पतिशास्त्र में सभी पौधों के नाम लैटिन में हैं. अब सरकारी हिंदी में रिक्शा के लिए .नरयान. और .स्टेशन. के लिए स्थात्र जैसे शब्दों के प्रयोग हो रहे हैं. सरकारी परिपत्रों के हिंदी अनुवाद समझ में ही नहीं आते. यह हिंदी के पक्षधरों को भूलना नहीं चाहिए कि अंगरेजी में बहुत सारे हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं. इन शब्दों का प्रयोग अंगरेजी के प्रतिष्ठित अखबार-पत्रिकाएं भी इंग्लैंड में करती है. .आना., .बनिया., .बख्शीश., .घेराव., .सत्याग्रह., .डैम., .कैश., जैसे शब्द अंगरेजी में भारतीय भाषाओं से ही गये हैं.

अंगरेजी भाषा की विशेषता स्थानीय भाषाओं से एकाकार होने की रही है. कभी फ्रेंच, इंग्लैंड की प्रमुख भाषा थी. लेकिन फ्रेंच भाषाशास्त्रियों ने फ्रेंच भाषा की शुद्धता, सौंदर्य और विशिष्टता बनाये रखने के चक्कर में दूसरी भाषाओं के शब्दों को अछूत समझा. परिणाम, जो फ्रेंच कभी अंगरेजी से अधिक संपन्न थी, विकासक्रम में वह पिछड़ गयी और अब हालत यह है कि अंगरेजी उसे बहुत पीछे छोड़ गयी है.

विक्टोरिया युग. के दौरान ही भारतीय भाषाओं के शब्द अंगरेजी में व्यवहृत होने लगे थे. अंगरेजों के आने के तकरीबन 50 वर्ष बाद अंगरेजी की पढ़ाई इस देश में आरंभ हुई. इन 50 वर्षों में हजारों भारतीय भाषाओं के शब्द अंगरेजी में .स्वीकृत. हुए. प्रसिद्ध भाषाशास्त्री जी सुब्बाराव ने अपने शोध में यह निष्कर्ष निकाला है कि 17वीं शताब्दी तक करीब 300 शब्द .ऑक्सफोर्ड इंगलिश शब्दकोश. में भारतीय मूल के थे. फिलहाल अनुमान है कि 2,000 भारतीय मूल के शब्द इस शब्दकोश में है. यह अंगरेजी का प्रतिष्ठित शब्दकोश है.

इस देश में आने के बाद से ही अंगरेजी करी खाने लगे थे. बंगलों के बरांडों में बैठ कर चुरूट पीते थे. .नवाब. .बाबू. और .आया. लोगों से अंगरेजों का दैनंदिन संपर्क था. अंगरेजी बहुत ही लचीली भाषा है. इस कारण इसने स्थानीय शब्दों को अपनी धारा में समाहित कर दिया. हिंदुस्तान में बंगला, तमिल और पंजाबी भाषी लोग अलग-अलग ढंग से अंगरेजी बोलते-बतियाते हैं.

कुछ वर्ष पूर्व आरइ हॉकिंस की पुस्तक कॉमन इंडियन वर्डस इन इंग्लिश ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुई. इस कोश में 2,500 भारतीय मूल के शब्द के लिए गये हैं. .अंत्योदय., .चमचा., चार सौ बीस., .फालतू., .गोलमाल., .हुकुम., .लफंगा. और तकरार जैसे भारतीय मूल के शब्द अंगरेजी शब्दकोश में शामिल कर लिये गये हैं. देवयानी चौबल .स्टार स्टाइल. की लोकप्रिय स्तंभकार है. वह .लिपटना., .बेटी. आदि जैसे तमाम हिंदी के लोकप्रिय शब्द का अंगरेजी में हूबहू इस्तेमाल करती हैं. देवयानी का लेखन काफी लोकप्रिय है.

इसलिए हिंदी के हित में है कि दूसरी भाषाओं के लोकप्रिय और स्वीकृत शब्दों का हिंदी में बिना हिचक प्रयोग हो. मसलन बैंक, चेक, स्टेशन जैसे शब्दों के हिंदी पर्याय ढूंढने से हिंदी की जड़ें कमजोर होंगी. हां! हिंदी में एक नया वर्ग भी पनप रहा है, जो हिंदी में व्याकरण की अशुद्धियों की परवाह नहीं करता और अंगरेजी के शब्दों के हूबहू प्रयोग को बढ़ावा दे रहा है. उसे वर्तनी की शुद्धता और व्याकरण-लिंग से बिल्कुल परहेज है. अंगरेजी के शब्दों का हिंदी में धड़ल्ले से प्रयोग करना वह शान समझता है. इस प्रवृत्ति पर अंकुश आवश्यक है.

सरकार द्वारा हिंदी को भ्रष्ट बनाने का काम कई स्तरों पर हो रहा है. गृह मंत्रालय के अंतर्गत एक अलग राजभाषा विभाग है. केंद्र सरकार के अन्य विभागों की तरह यहां भी वरिष्ठ अधिकारी तैनात किये जाते हैं. दिल्ली में यह कहा जाता है कि जिस नौकरशाह का कोई आका नहीं है, या जो अनेक वर्ष दिल्ली में गुजार कर भी बाहर नहीं जाना चाहते हैं, उन्हें राजनीतिक संरक्षण से इस विभाग में पनाह मिलती है. पिछले वर्ष आयकर विभाग के एक अधिकारी दिल्ली में ही नियुक्ति चाहते थे. उन्होंने अपने राजनीतिक आकाओं की मदद ली. इस विभाग में उन्हें एक वरिष्ठ पद मिल गया. जिन्हें हिंदी की समझ ही नहीं है. ऐसे लोगों से भाषा को निखारने की उम्मीद कहां तक तर्कसंगत है. फिलहाल इस विभाग के लोगों को अधिकार मिला है कि सार्वजनिक उपक्रमों और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में जा कर समय-समय पर हिंदी में कामकाज की समीक्षा करें, लेकिन इन अवसर का लाभ ये लोग तफरीह या व्यक्तिगत कामों के लिए करते हैं. सरकारी प्रतिष्ठान इनका खर्च वहन करते हैं. गृह मंत्रालय के अंतर्गत ही हिंदी शिक्षण योजना विभाग है. इसे गैर हिंदी भाषा-भाषी लोगों को हिंदी पढ़ाने के उद्देश्य से आरंभ किया गया.

इसकी शाखाएं पूरे देश में है. बंबई बेलार्ड पियर में भी इसकी शाखा है. इस कार्यालय में न पर्याप्त टाइपराइटर है, न प्रशिक्षक. देवनागरी टाइपराइटर काफी पुरानी हैं. नीलामी हुई, तो इन्हें किसी ने खरीदा नहीं. यहां प्रशिक्षार्थियों को अपने साथ बाहर से टाइपराइटर ला कर हिंदी टाइप सीखने की सलाह दी जाती है. बैठने तक की समुचित व्यवस्था नहीं है. कमोबेश पूरे देश में ये कार्यालय ऐसे ही हैं.

भारत सरकार के नियमानुसार सरकारी कार्यालयों से एक निश्चित संख्या में प्रति छह माह बाद लोगों को प्रशिक्षण के लिए यहां नामजद किया जाना है, लेकिन कोई भी यहां प्रशिक्षार्थी नहीं भेजता. हां! सरकार अवश्य करोड़ों रुपये इस योजना पर व्यय कर रही है. राजभाषा विभाग के अधिकारी या संसदीय समिति के सदस्य अपने दौरों में यह सवाल नहीं उठाते कि सरकार जब लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, फिर भी सरकार के नियमानुसार लोगों को हिंदी सीखने के लिए नामजद क्यों नहीं किया जाता? केंद्र सरकार के कार्यालयों या स्वायत्त संगठनों में हिंदी के नाम पर भयंकर त्रुटियां हो रही हैं.

आकाशवाणी (कलकत्ता) से जो द्विभाषी कांट्रेक्टर फार्म प्रसारकों के पास भेजा जाता है, उस दो पेज के फार्म में हिंदी खंड में 158 गलतियां हैं. आठों शर्तें समझ से परे हैं. केंद्र सरकार के कार्यालयों में भी हिंदी में काम करने वालों की एक बड़ी तादाद है. वहां अनुवाद कार्य की गणना यूनिट में की जाती है. किसने-कितने यूनिट काम किये, यही बताना पर्याप्त है. वह अनुवाद कितना उपयोगी, शुद्ध और स्पष्ट है, इससे किसी को ताल्लुक नहीं. 1950 में ही भारत सरकार ने वैज्ञानिक शब्दावली आयोग का गठन किया था. इस विभाग का काम वैज्ञानिक -तकनीकी शब्दों के हिंदी पर्याय ढूंढ़ना था. इस आयोग ने अनेक कोश बनाये. सरकारी कार्यालयों और सरकारी मालगोदामों में दीमक इन कोशों का उपयोग कर रहे हैं. शब्दावली निर्माण के पीछे कोई सुचिंतित योजना नहीं थी. जिसे जो मन आया, शब्द बना दिया. केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो के अनुवाद को समझना भी आसान नहीं है.

राजभाषा संसदीय समिति में लोकसभा के 20 और राज्यसभा के 10 सदस्य होते हैं. हिंदी के कामों की समीक्षा के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण समिति है. कुछ वर्षों पूर्व यह समिति बंबई गयी. सरकार की ओर से पहले ही समिति के कार्यक्रम की पूर्व सूचना भेजी जा चुकी थी. यह समिति सेंट्रल बैंक, एक्जिम बैंक, रिजर्व बैंक, हिंद साइकिल राष्ट्रीय केमिकल्स फैक्टरी के मुआयने के लिए बंबई पधारी थी. इन कार्यालयों की ओर से सदस्यों के लिए फाइव स्टार में ठहरने का प्रबंध था. इसे फाइव स्टार समिति कहते थी हैं. सेंट्रल बैंक ने इन सदस्यों को घड़ियां भेंट दीं.

हिंद साइकिल ने साइकिलें दीं, तो सदस्यों ने कहा कि दिल्ली में हमारे निवास पर इन साइकिलों की डिलीवरी करा दें. यूनाइटेड बैंक ने .कलम. भेंट की, तो सदस्यों ने नाराजगी जाहिर की. ये सदस्य जब तक शहर में होते हैं. सरकारी कार्यालयों की ओर से अधिकारियों-कारों का काफिला इनके स्वागत में तत्पर रहता है. हां! चूंकि इन व्यस्त सदस्यों के पास समय का अभाव होता है. अत: किसी संस्थान में ये आधे-एक घंटे से अधिक समय निरीक्षण में नहीं लगाते. एक दिन में बमुश्किल दो जगह का मुआयना करते हैं. हां, घूमने मौज-मस्ती करने और नवाबी रौब गालिब करनेवाले इन सदस्यों का एक मामूली फर्ज भी है-राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट दाखिल करने का.

लेकिन सन 86 तक देश में अनेक जगह दर्जनों बार यात्रा कर लेने के बाद भी इस समिति की कोई रिपोर्ट राष्ट्रपति के पास रिपोर्ट नहीं पहुंच सकी थीं. देश के 28 सार्वजनिक बैंकों और उनकी करीब 52 हजार शाखाओं में हिंदी के नाम पर व्यापार हो रहा है. बंबई दिल्ली में हिंदी के नाम पर बैंकों में रोज नये-नये कारनामे हो रहे हैं. कुछ राजभाषा अधिकारियों ने मिल कर फरजी अनुवाद एजेंसियां गठित कर ली हैं. वस्तुत: इन एजेंसियों को ये लोग ही फरजी नामों से चलाते हैं. अपने कार्यालयों से लाखों रुपये का अनुवाद कार्य इन फरजी एजेंसियों को देते हैं. फिर एजेंसियों से ले कर स्वयं घटिया और फिजूल अनुवाद करते हैं.

इस काम के लिए पहले से कमीशन तय रहता है. इस तरह फरजी एजेंसियों के नाम पर ये लोग कई लाख रुपये डकार चुके हैं. बैंकों, सरकारी उपक्रमों में राजभाषा कार्यान्वयन समिति की त्रैमासिक बैठक होती है. जहां मन हुआ, बैठक तय कर ली. हवाई यात्राएं कीं, एकाध घंटे चर्चा कर बैठक की खानापूर्ति कर ली. हिंदी के नाम पर करोड़ों-अरबों का व्यय कहां तक न्यायसंगत है? हां! कुछ बैंकों में ये पुस्तकें बिकवाते हैं. बैंकों में कार्यरत हिंदी अधिकारी हिंदी में कामकाज संबंधी पुस्तकें भी धड़ल्ले से लिख रहे हैं फिर निकड़म कर बैंकों में ये पुस्तक बिकवाते हैं. बैंकों की हजारों शाखाएं हिंदी में कामकाज को बढ़ावा देने के नाम पर इन पुस्तकों को खरीदती हैं. इस तरह लाखों की राशि लेखक (हिंदी अधिकारी) उदस्थ कर जाते हैं.

कुछ वर्ष पूर्व केंद्र सरकार ने निर्णय लिया कि विदेशों में नियुक्त भारतीय राजदूत, केंद्रीय मंत्री, संसदीय दल अब विदेशी अतिथियों से हिंदी में ही बातचीत करेंगे. विदेश मंत्रालय और भारतीय दूतावास, अनुवादकों की व्यवस्था करेंगे. लेकिन यह हिंदी कौन सी है, जिसके माध्यम से सरकार अपना कामकाज करना चाहती है? यह वही सरकारी हिंदी है, जिसे समझना चीनी भाषा सीखने जैसा प्रयास करना है. अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी में भाषण दिया था, उस पर मात्र 50 करोड़ रुपये खर्च हुए. लेकिन इससे हिंदी को सरकारी काम काज में बढ़ावा देने में कहां तक मदद मिली? आलम तो यह है कि सरकार गंभीरता से हिंदी के बारे में सोचती ही नहीं है.

50 वर्षों पूर्व पुष्पेंद्र चौहान नामक एक युवक ने एमएमएच कॉलेज गाजियाबाद से विधि स्नातक की परीक्षा हिंदी माध्यम से उत्तीर्ण की. दिल्ली में वकालत करने के लिए श्री चौहान ने दिल्ली बार कौंसिल में पंजीकरण हेतु आवेदन दिया लेकिन उन्हें कहा गया कि बार कौंसिल द्वारा आयोजित अंगरेजी की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर ही आपको वकालत करने की अनुमति दी जा सकती है. अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के शाहिद हुसैन अपना शोध पत्र देने संबंधी आवेदन पत्र विश्वविद्यालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में पड़ा है. कुछ वर्षों पूर्व दिल्ली नगर निगम की एक सात सदस्यों की प्रतिनिधिमंडल हिंदी को बढ़ावा देने के उपायों को तलाशने के लिए कलकत्ता व मद्रास की यात्रा कर वापस लौटा. एक तरफ सरकार हिंदी के नाम पर मौजमस्ती के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रही है. दूसरी ओर हिंदी में वकालत करने, कुछ संस्थानों में हिंदी शोध लिखने पर भी अभी पाबंदी है.

सरकार अगर लोकभाषा हिंदी को राजभाषा बनाना चाहती है, तो सबसे पहले उसे शब्दों के प्रयोग में एकरूपता की कोशिश करनी चाहिए, मसलन एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के लिए बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश में अलग-अलग हिंदी पर्याय इस्तेमाल किये जाते हैं. ऐसे लाखों शब्द हैं. आज सरकार के जो करोड़ों रुपये निरर्थक अनुवाद, संसदीय समितियों के दौरे, हिंदी के नाम पर विभिन्न समितियों की अनावश्यक बैठकों में खर्च हो रहे हैं. इस पैसे का सही उपयोग हिंदी में एकरूपता लाने की दिशा में हो सकता है. प्रबंध कंप्यूटर और उन्नत तकनीकी क्षेत्रों के अनुरूप सरल और सहज हिंदी विकसित करने के लिए इस कोश का उपयोग हो सकता है. स्वतंत्रता की लड़ाई में लोकभाषा को मजबूत बनाने का आग्रह इस हद तक था कि गांधी ने अपने पुत्र देवदास गांधी को हिंदी शिक्षक के रूप में मद्रास भेजा था. राजगोपालाचारी और रामास्वामी नायकर के घरों में हिंदी की कक्षाएं लगती थीं. उस समय इस मुद्दे को इतना महत्वपूर्ण क्यों माना गया. इस सवाल पर ठंडे दिमाग से हमने कभी सोचा ही नहीं है.

साम्राज्यवाद के पहले चरण में वर्ग विभाजन और श्रेष्ठता की पहचान की मूल मापदंड थी, लैटिन भाषा. श्रेष्ठिवर्ग में लैटिन को दरकिनार कर वहां अंगरेजी को प्रतिष्ठित किया गया. फिर अंगरेजी भी सामाजिक विषमता वर्ग वैमनस्य पैदा करने की भूमिका निभाने लगी. यह साम्राज्यवाद का दूसरा चरण था. गांधी के लोकतंत्र में शासक और शासित एक ही धरातल पर खड़े हों, यह मूल कल्पना थी. इसलिए उन्होंने लोकभाषा की वकालत की. चेतना जगाने, बदलाव लाने में जनभाषा के महत्व को हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने समझा था. उन्होंने पाया कि जो संस्कृत प्राचीन काल में मध्य एशिया तक फैली थी, ताकतवर वैदिक धर्म की जो भाषा वाहक थी उसे व्याकरण और साहित्य की दृष्टि से अविकसित व पिछड़ी लोक भाषाओं प्राकृत एवं पाली ने उखाड़ फेंका.

पाली तो तकरीबन पूरे एशिया में छा गयी थी. बौद्ध धर्म और जैन धर्म की सफलता का मुख्य कारण लोकभाषा के माध्यम से जनता के बीच उनकी पहुंच थी. नोबल पुरस्कार विजेता गुन्नार मिर्डल जैसे अर्थशास्त्री भी यह कह गये कि भारत को गरीबी दूर करने में तभी सफलता मिलेगी, जब देश भाषा में कामकाज आरंभ होगा. तमिलनाडु में अगर हिंदी का विरोध होता है तो हम गुस्से में उबलते हैं, लेकिन हमने कभी अपने घर में हिंदी के साथ अच्छा सलूक किया. प्रसिद्ध पत्रकार गिरिलाल जैन ने अपने एक लेख में सिमटे लोग वाकिफ नहीं है कि अंगरेजी की जड़े कमजोर हो रही है और विकल्प के रूप में हिंदी तेजी से उभर रही है. साथ ही लोकभाषा हिंदी और सरकारी हिंदी के बीच खाई निरंतर बढ़ रही है.

भाषा के सवाल पर पूरे देश में लोग नये ढंग से सोचने के लिए तैयार हैं. हाल ही में पूर्व केंद्रीय मंत्री सी सुब्रह्मण्यम ने दो किस्तों में भाषा विवाद पर एक विश्लेषात्मक लेख लिखा था. उसमें उन्होंने आग्रह किया था कि हिंदुस्तानी को तरजीह दी जाये जिसमें उर्दू, अंगरेजी और स्थानीय भाषाओं के शब्दों का पूर्ण समावेश हो. हां संस्कृतनिष्ठ हिंदी के नाम पर ऐसी कठिन हिंदी न गढ़ी जाये, जिसे हिंदीवाले भी न समझते हों. साथ ही देवनागरी के साथ-साथ रोमन में भी हिंदुस्तानी लिखने की संवैधानिक मान्यता मिले. इन कदमों को उठाने से, सुब्रह्मण्यम का विश्वास है कि हिंदुस्तानी को राजभाषा के रूप में स्वीकारने से एक नया माहौल पैदा होगा और हिंदी भाषी राज्य भी इसे स्वीकारेंगे.

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