भारत की आजदी के बाद बंगलदेश में प्रताड़ना झेल रहे बंगालाभासी हिन्दुओ का एक समूह बंगलादेश के चटगाँव से विस्तापित होकर ठाकुरगंज आया
बच्छराज नखत,ठाकुरगंजमूल रूप से बंगलादेश के चटगाँव से विस्थापित होकर रोजीरोटी की तलाश में ठाकुरगंज आये और विस्कुट निर्माण कर अपनी रोजी रोटी करने वाले लोगो द्वारा शुरू हुई मल्हाह पट्टी की दुर्गा पूजा, आज नगर की महत्वपूर्ण पूजा में शुमार हो चुकी है. पिछले 73 वर्षो से हो रही मिलन संघ की पूजा को लेकर ग्रामीणों में काफी उत्साह है .
पूजा का है स्वर्णिम इतिहास
मल्हाह पट्टी की मिलन संघ पूजा का स्वर्णिम इतिहास है. इस पूजा की शुरुआत की कहानी भी काफी रोचक है. भारत की आजदी के बाद बंगलदेश में प्रताड़ना झेल रहे बंगालाभासी हिन्दुओ का एक समूह बंगलादेश के चटगाँव से विस्तापित होकर ठाकुरगंज आया. अपनी रोजी रोटी के लिए इन लोगो ने विस्कुट बनाने का कम शुरू किया. इस दौरान धर्मिक प्रवृत्ति के हरिलाल चोधरी के संपर्क में आने के बाद दुर्गा पूजा का विचार इन लोगो के मन में आया. अपने जड़ से जुड़े होने का अहसास महसूस करते हुए पूजा करने का विचार इन लोगो ने जब हीरालाल केजड़ीवाल और घिसालाल मोर से साझा किया गया तो उन्होंने पूर्ण सहयोग का वायदा करते हुए लोगो को दुर्गा पूजा के लिए उत्साहित किया. फिर क्या था वर्तमान में वार्ड संख्या 10 में हरिलाल चोधरी के घर के समीप मिलन संघ की स्थापना कर दुर्गा पूजा शुरू हुई.कई जगहों पर स्थान्तरित हुई यह पूजा
मिलन संघ की शुरुआत जहा हरिलाल चोधरी के घर के सामने हुई फिर लोगो की आस्था धीरे धीरे बढ़ने लगी तो पूजा का स्वरुप बड़ा होने लगा तो पूजा स्थल भी छोटा दिखने लगा. जगह की कमी के कारण यह पूजा महावीर स्थान पर मोजूद रोहणी डाक्टर के घर के पास स्थानातरित हुई. वहां कुछ वर्षो बाद आई पुनः आई दिक्कतों के कारण लोगो ने यह पूजा मल्हाह पट्टी में स्थानातरित कर दी. जहा तेजनन्द लाल दत्ता और सुधांशु विमल चन्द्र की भूमी पर मल्हाह पट्टी में पूजा शुरू की गई. इस दौरान तेजनन्द लाल दत्ता, सोनामती देवी, हरिलाल चोधरी, सुकुमार देवनाथ की महत्वपूर्ण भूमिका रही. सात दशक पूर्ण कर चुकी मल्हाह पट्टी की मिलन संघ पूजा अब पक्के मंदिर में होती है.
मिलन संघ की थी अपनी जात्रा पार्टी
मल्हाह पट्टी मिलन संघ के गौरवमयी इतिहास के बाबत सुकुमार देवनाथ बताते है कि मिलन संघ का अपनी जात्रा पार्टी थी. जो समय समय पर रंगमंच के जरिये कार्यक्रम प्रस्तुत करती थी. बताते चले कि जात्रा एक पारंपरिक थिअटर या लोक नाट्य शैली है जिसमें कलाकार जगह-जगह पर घूम-घूमकर लोगों को नाटक दिखाते है. जात्रा पश्चिमबंगाल में पारंपरिक नाट्य शैली के तौर पर बेहद लोकप्रिय रहा है. अतीत में मनोरंजन के साधन के तौर पर इसका बखूबी इस्तेमाल किया जाता था . जात्रा की जड़ें चैतन्य महाप्रभु के पाला गीतों (भक्ति नाटकों के साथ गाए जाने वाले गीतों) में है. यह बंगाल की 500 साल पुरानी परंपरा है. मिलन संघ की जात्रा पार्टी सन 1980 तक चली. आज के आधुनिक युग में भी उसी परम्परागत रीति रिवाजो के साथ मनाई जाती है जैसी यह शुरूआती दिनों में मनाई जाती थी.आज भी बंगाली शैली से ही होती है पूजा
1951 में चटगाँव से आये लोगो द्वारा शुरू की गई इस पूजा में शुरुआत से ही पारंपरिक बंगाली शैली की प्रतिमाओं का निर्माण होता आया है. जिसमे एक ही मूर्ति में सभी देवताओं की मूर्ति समाहित होती है. अन्य पंडालो की तरह यहाँ अलग-अलग मूर्तिया नहीं बनाई जाती. मूर्तियों की वेशभूषा, गहने-मुकुट और श्रृंगार के दौरान भी परम्पराओ का पूरा ध्यान रखा जाता है. इस बाबत सुबोध मंडल, वरुणदत्ता, सूरज साह, धर्मेन्द्र दास, दीपक साह, सोनू साह, मिंटू साह, रजत चोधरी, चन्दन साह, मनोज चोधरी ने बताया कि सप्तमी से नवमी तक प्रतिदिन शाम होने वाली संध्या आरती होगी. दशमी को सिंदूर खेला जाएगा इसमें शादीशुदा महिलाएं शामिल होती हैं . बंगाली के अलावा दूसरे समाज की महिलाएं भी आती है. दशमी की सुबह विसर्जन पूजा होगी. दोपहर बाद प्रतिमा का विसर्जन के साथ पूजनोत्सव का समापन हो जाएगा.
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