झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है. यहां के ग्रामीण इलाकों से रोजगार की तलाश में हजारों लोग हर साल बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं. उनमें से अगर महिलाओं की बात की जाये, तो अधिकांशत: घरेलू कामकाज करने वाली ‘दाई’ बनकर रह जाती हैं. गौर करने वाली बात यह है कि इन ‘महिला दाइयों’ […]
झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है. यहां के ग्रामीण इलाकों से रोजगार की तलाश में हजारों लोग हर साल बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं. उनमें से अगर महिलाओं की बात की जाये, तो अधिकांशत: घरेलू कामकाज करने वाली ‘दाई’ बनकर रह जाती हैं. गौर करने वाली बात यह है कि इन ‘महिला दाइयों’ को अभी तक कामगारों की श्रेणी में नहीं रखा गया है, जिसके कारण उनके अधिकारों की अनदेखी और हनन आम बात है. सबसे बड़ी जो समस्या इन ‘दाइयों’ के साथ है वह है असमान वेतन. इन्हें अपने श्रम के अनुरूप पारिश्रमिक नहीं मिलता है, साथ ही इनके साथ अमानवीय व्यवहार भी होता है. संजय मिश्र, राज्य प्रमुख ऐटसैक इंडिया एंड formal Membar बाल अधिकार संरचन अधिकार आयोग झारखंड, ने बताया कि झारखंड से गरीबी के कारण लड़कियां मेट्रो सीटीज में जाती हैं. लेकिन इनका जो मानसिक और शारीरिक शोषण होता है,उसका कारण है इनका अवैध तरीके से पलायन करना. कानून 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से घरेलू कामकाज नहीं कराया जा सकता है, लेकिन दलालों के चंगुल में फंसकर लड़कियां वहां जाती हैं और यातना का शिकार बनती है. इन्हें वेतन के नाम पर जो कुछ मिलता है वह तो असंतोषजनक है ही, चौंकाने वाली बात यह होती है कि जब वे वापस आती हैं तो उनके हाथ में कुछ नहीं होता है. हालांकि पहले से अब स्थिति कुछ सुधरी है, लेकिन अभी काफी कुछ किया जाना शेष है.
वेतन की समस्या
गरीबी के कारण अपना घर-बार छोड़कर जो महिलाएं और लड़कियां बड़े शहरों का रुख करती हैं, वहां उन्हें उनके श्रम के अनुसार वेतन नहीं मिलता है. कार्यालयों और कारखानों में कामगारों के लिए अमूनन आठ घंटे काम करने प्रावधान होता है, लेकिन घरेलू दाइयों के लिए काम के घंटे निर्धारित नहीं होते हैं, वे पूरा दिन और रात, जब तक कि उनके मालिक के घर में लोग सो नहीं जाते, उनकी ड्यूटी लगी होती है. बावजूद इसके इन्हें सम्माजनक वेतन नहीं मिलता है. सच्चाई यह है कि इन महिलाओं को मात्र दो से पांच हजार रुपये तक में पूरे महीने काम करना होता है. चूंकि इन महिला दाइयों ने अपना कोई संगठन भी उस तरह से नहीं बनाया जो बहुत एक्टिव हो इसलिए इनकी दुर्दशा का लोगों को उस तरह से पता भी नहीं चलता है और इनकी मांगों को और जरूरतों को दरकिनार कर दिया जाता है.
जरूरतों और सुविधाओं का नहीं रखा जाता ध्यान
‘घरेलू दाई’ के रूप में काम करने वाली महिलाओं को वेतन तो कम मिलता ही है, उनकी जरूरतों और सुविधाओं का भी ध्यान नहीं रखा जाता है. यहां तक कि उन्हें बीमारी और प्रसव के दौरान भी छुट्टी से वंचित कर दिया जाता है. चूंकि देश में घरेलू कामगारों की संख्या लाखों में है इसलिए सरकार इन्हें उचित अधिकार दिये जाने के लिए प्रयासरत तो दिखती है, लेकिन अभी तक कोई ऐसी ठोस पहल नहीं हुई, जिससे इनकी स्थिति में आशातीत बदलाव दिखे. देश में कुछ कानून हैं, जिनके जरिये इन्हें अधिकार दिलाने की हो रही कोशिश, मसलन सामाजिक सुरक्षा कानून (2008) जिसमें घरेलू कामगारों को भी शामिल किया गया है. इसके अतिरिक्त न्यूनतम मजदूरी से संबंधित कानून (1948), मुआवजा देने से संबंधित कानून (1923) तथा समान भुगतान से संबंधित कानून (1976) और इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कमैन एक्ट (1967), जो घरेलू कामगारों के हक में इस्तेमाल किये जा सकते हैं. बावजूद इसके घरेलू दाइयों की स्थिति सुधर नहीं पाई है और उन्हें अपने कार्यस्थल पर प्रताडकेंद्र सरकार ने असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून (2008) लागू किया, तो उसमें घरेलू कामगारों को भी शामिल किया गया है. साथ ही, कुछ और कानून हैं, जैसे- न्यूनतम मजदूरी से संबंधित कानून (1948), मुआवजा देने से संबंधित कानून (1923) तथा समान भुगतान से संबंधित कानून (1976) और इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कमैन एक्ट (1967), जो घरेलू कामगारों के हक में इस्तेमाल किये जा सकते हैं. इन कानूनों के बावजूद अभी तक महिला दाइयों को अपने कार्यक्षेत्र में वेतन और अधिकारों के लिए जूझना पड़ रहा है.