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घुन लग गया है बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को

-हरिवंश- बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के 72वें स्थापना दिवस के अवसर पर छात्रों और पुलिस के बीच फिर मुठभेड़ हुई. पिछले एक-डेढ़ साल के दौरान ऐसी अनगिनत झड़पें हुई हैं, लेकिन स्थापना दिवस के अवसर पर पुलिस ने जिस बर्बरता और वहशी तरीके से छात्रों की पिटाई की, उससे पूरे पूर्वांचल में आंदोलन सुलग रहा है. […]

-हरिवंश-

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के 72वें स्थापना दिवस के अवसर पर छात्रों और पुलिस के बीच फिर मुठभेड़ हुई. पिछले एक-डेढ़ साल के दौरान ऐसी अनगिनत झड़पें हुई हैं, लेकिन स्थापना दिवस के अवसर पर पुलिस ने जिस बर्बरता और वहशी तरीके से छात्रों की पिटाई की, उससे पूरे पूर्वांचल में आंदोलन सुलग रहा है. गोरखपुर में भी इसकी प्रतिक्रिया हुई. तीन दिनों तक लगातार छात्रों और पुलिस के बीच इलाहाबाद में मारपीट हुई. आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाएं हुईं. स्थापना दिवस पर हुए पुलिस अत्याचार के खिलाफ बनारस में अभूतपूर्व बंद रहा. भारत की राष्ट्रीय गरिमा, संस्कृति और अस्मिता की पहचान के उद्देश्य से महामना मदनमोहन मालवीय ने जिस विश्वविद्यालय की नींव डाली थी, वह कैसे अनाचार, व्यभिचार और अराजकता का केंद्र बन गया है. बता रहे हैं, हरिवंश, चंचल और कुरबान अली.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना 72 वर्ष पूर्व वसंत पंचमी के दिन हुई थी. दशकों से स्थापना दिवस के अवसर पर यहां समारोह आयोजित करने की परंपरा है. लड़के-लड़कियां रंगारंग जुलूस निकालते हैं. झांकियां निकाली जाती हैं. सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन ने इस वर्ष स्थापना दिवस नहीं मनाने का निर्णय किया. छात्र इससे खिन्न थे. लड़कों ने पांच-पांच रुपये प्रति छात्र चंदा जुटाने का संकल्प किया. स्थापना दिवस की पूर्ववत तैयारी हुई. तीन फरवरी को बिड़ला-ब्रोचा छात्रावासों की चौमुहानी से लड़कों ने परंपरागत जुलूस निकाला. ट्रकों पर झांकिया सजायी गयीं. विश्वविद्यालय के तकरीबन पांच-छह हजार छात्र इस जुलूस में शरीक थे.

जुलूस का नेतृत्व कर हे थे निलंबित छात्रसंघ के अध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव और महामंत्री ओमप्रकाश सिंह. कुछ ही फर्लांग की दूरी पर मालवीय भवन के पास पुलिस ने जुलूस को रोकने की कोशिश की. नगर पुलिस अधीक्षक हिम्मत सिंह और अतिरिक्त नगर पुलिस अधीक्षक जावेद अहमद की योजना और आदेशानुसार अचानक पुलिस निहत्थे छात्रों पर टूट पड़ी. पुलिस के दोनों आइपीएस अधिकारी भी पीछे नहीं थे. इन दोनों अधिकारियों ने खुलेआम निलंबित छात्रसंघ के महामंत्री ओमप्रकाश सिंह की जम कर पिटाई की.

पूरे विश्वविद्यालय परिसर में पुलिस ने छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा. छात्रवासों में सोये-बैठे और अचानक आक्रमण से हतप्रभ छात्र भी पीटे गये. जिन ट्रकों पर झांकियां सजायी गयी थीं, उन्हें भी नहीं बख्शा गया. महामना और गांधी जी की मूर्तियों को भी पुलिस बूटों ने रौंद डाला.

ओमप्रकाश को पुलिस कैंट थाने ले गयी. वहां उन्हें दोबारा ‘दुरुस्त’ किया गया. दोनों आइपीएस अधिकारियों ने खुद यह काम किया. पिटाई के कारण ओमप्रकाश की हालत नाजुक हो गयी. अंतत: उन्हें सर सुंदरलाल चिकित्सालय (विश्वविद्यालय) में भरती किया गया.

विश्वविद्यालय में ‘मरम्मत’ करने के बाद ओमप्रकाश के दोनों हाथ बांध दिये गये. जीप से उन्हें थाना ले जाया गया. आंखों में वायरलेस के तार घुसाये गये. नाजुक जगहों पर बूट से ठोकरें मारी गयीं. कान में पाइप डाल कर सिपाहियों ने आवाज लगायी.

इस पाशविक यातना से उनका पूरा शरीर काला पड़ गया. एक हाथ तथा एक पैर तोड़ डाले गये. पूरे बदन पर 77 गंभीर चोटें आयीं. इसी बीच लोक दल के युवा विधायक शतरुद्र प्रकाश थाने पर पहुंच गये. तब जा कर लगातार चार घंटे की यातना के बाद ओमप्रकाश को मुक्ति मिली. दोनों वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के सौजन्य से ओमप्रकाश लगभग बहरे हो गये हैं. फिलहाल विश्वविद्यालय में उनकी चिकित्सा हो रही है.
पुलिस की इस पाशविकता के खिलाफ पूरे बनारस में लोग उग्र हो गये. द सेंट्रल बार एसोसिएशन और बनारस बार एसोसिएशन के तत्वावधान में 7 फरवरी को बनारस बंद का आह्वान किया गया. यह अभूतपूर्व बंद था. इस पुलिस जुल्म की गूंज गोरखपुर और इलाहाबाद में भी हुई. सभी राजनीतिक दलों और युवा संगठनों के लोग इसमें शरीक हुए. इलाहाबाद में लगातार तीन दिनों तक पुलिस और लड़कों की मुठभेड़ होती रही. शिक्षा संस्थान बंद किये गये. छात्र गिरफ्तार किये गये, लेकिन पुलिस के खिलाफ उपजा यह आक्रोश पूरे पूर्वांचल में तेजी से फैल रहा है.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान यह विश्वविद्यालय पुलिस छावनी में बदल गया है. वस्तुत: इस विश्वविद्यालय की बीमारी की जड़ें गहरी हैं. यह घटिया छात्र नेताओं, भ्रष्ट अधिकारियों प्रशासकों और उद्देश्यहीन अध्यापकों का अखाड़ा बन गया है. प्रतिवर्ष आंदोलन होते हैं. छात्र-पुलिस मुठभेड़ होती है, फिर विश्वविद्यालय अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया जाता है. पिछले वर्ष भी ऐसा ही हुआ. इस वर्ष पुलिस की पाशविकता ने इस पूरे आंदोलन को अलग मोड़ दे दिया है. एक छात्र का कहना है, ‘जिन छात्र नेताओं से हम नफरत करते हैं, पुलिस बर्बरता के खिलाफ मौजूदा स्थिति में हम उन्हीं का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए विवश हैं, क्योंकि पुलिस हमारे ऊपर उसी तरह धावा बोलती है,जैसे दुश्मनों पर फौज का हमला होता है. पुलिस कब, किस समय लड़कों पर टूट पड़े, छात्रावासों में घुस जाये, यह कहना मुमकिन नहीं है.’

पिछले वर्ष यहां आंदोलन हुआ. उसके बाद पुलिस अचानक छात्रवासों में कई बार घुस चुकी है. छात्रवासों में पुलिस के घुसने के दौरान छात्रवास संरक्षकों की उपस्थिति नियमानुसार आवश्यक है, पर उसके अनुपालन की परवाह न विश्वविद्यालय प्रशासन को है और न पुलिस को. दिसंबर के आरंभ में राजाराम मोहन राय छात्रावास के तीन दरवाजों को तोड़ कर पुलिस अंदर घुसी. छात्रों की निर्मम पिटाई की गयी. सामान लूटे गये. फिर गिरफ्तार छात्रों की जमानत डॉ आनंद कुमार ने करायी और इस पुलिस जुल्म के खिलाफ आवाज भी उठायी.
विश्वविद्यालय के एक फौरी निर्णय के खिलाफ बीएससी के छात्र दिसंबर में कक्षाओं का बहिष्कार कर रहे थे. अचानक एक रात पुलिस ब्रोचा छात्रावास में आ घुसी. यहां विज्ञान संकाय (बीएससी) के छात्र रहते हैं. पुलिस के साथ विज्ञान संकाय के डीन भी थे. बीएससी अंतिम वर्ष के छात्रों को एक जगह बुलवाया गया. छात्रावास के संरक्षक को भी बुलाया गया. छात्रों को बहिष्कार खत्म करने का हुक्म दिया गया. लंका थाने के थानेदार ने छात्रावास के संरक्षक से बदतमीजी की. इसके बाद उग्र छात्र दिसंबर की कड़ाके की ठंड में 12-13 कि.मी. पैदल चल कर दो बजे रात में पुलिस जुल्म की कहानी सुनाने जिलाधीश के आवास पर गये. ये छात्र चार बजे वहां पहुंचे. जिलाधीश महोदय सुबह सात बजे सो कर उठे. उनकी बातें सुनीं और उन्हें विश्वविद्यालय लौट जाने की सलाह दी. वि़ज्ञान संकाय के इन जूनियर छात्रों के बारे में आम राय है कि इनमें नेतागीरी की ललक नहीं है. ये पढ़ने-लिखनेवाले छात्र है. लेकिन पुलिस खौफ से ये भी आंदोलन करने के लिए विवश हैं.
वस्तुत: विश्वविद्यालय को इस कगार पर पहुंचाने का श्रेय यहां के बदमिजाज प्रशासकों, भ्रष्ट अध्यापकों और पेशेवर छात्र नेताओं की तिकड़ी को है. प्रशासकों और अध्यापकों के चरित्र की बानगी पहले.बनारस में ‘काउंसिल फॉर वर्ल्ड रेलीजन न्यूयॉर्क’ के तत्वावधान में दिसंबर 1996 में एक सेमिनार हुआ. विश्वविद्यालय के आमंत्रित मशहूर प्राध्यापकों को मार्ग व्यय दे रहे थे. एक अध्यापक ने मात्र 80 रुपये व्यय का दावा किया, तो अमेरिकी संयोजक चौका. क्योंकि विश्वविद्यालय के बाकी मशहूर अध्यापक महज कुछ किमी यात्रा व्यय के रूप में 800 रुपये ले रहे थे. वह विदेशी आयोजक विश्वविद्यालय के गौरव से वाकिफ थे. इस कारण यह सेमिनार बनारस में हुआ. इस छोटी-सी घटना ने इस विश्वविद्यालय के बारे में उसकी पूरी धारणा बदल दी.

मुफ्त शराब पीने, विदेश जाने और सरकारी प्रोजेक्ट पाने के लिए विश्वविद्यालय के अधिकांश अध्यापक अपनी प्रतिभा-योग्यता को गिरवी रख चुके हैं. कौशल किशोर मिश्र इस विश्वविद्यालय के पूर्व शोध छात्र हैं. उन्होंने राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हरिहरनाथ त्रिपाठी के मार्गदर्शन में पीएचडी किया है. कौशल किशोर की थीसिस जमा होने और बाहर के परीक्षकों की रिपोर्ट आने के बाद उनके गाइड प्रो. त्रिपाठी ने आरोप लगाया कि पूरी थीसिस नकल है. हालांकि उन्होंने खुद थीसिस को डिग्री अवार्ड करने के लिए रिकोमेंड (अनुशंसा) किया था. बाद में थीसिस की जांच सात परीक्षकों ने की. संतुष्ट हो कर परीक्षकों ने डिग्री देने की अनुशंसा की. जिस पुस्तक से प्रो. त्रिपाठी ने कौशल पर नकल का आरोप लगाया. इस पुस्तक से उन्होंने खुद अपनी पुस्तक ‘भारतीय विचारधारा’ में कुछ हिस्सा हूबहू नकल किया है. ‘सिद्धांत’ पत्रिका के पुरुषार्थ अंक (2013 वि.) में श्याम बहादुर सिंह का लेख ‘विकेंद्रित राजतंत्र’ छपा था. प्रो त्रिपाठी ने उसे पुस्तक में ले लिया है. कुलपति के यहां प्रमाण सहित यह शिकायत पहुंची. कुलपति ने इसे गंभीर मसला बताया, पर उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की.

विश्वविद्यालय से ‘प्रज्ञा’ नामक एक पत्रिका निकलती है. पत्रिका का अंक 30-31 कार्ल मार्क्स स्मृति अंक है. इस पत्रिका में प्रोफेसर त्रिपाठी का एक लेख छपा है, ‘ए मार्क्ससिस्ट क्रिटिसिज्म ऑफ मार्क्स’. लेखक का नाम है एचएन त्रिपाठी यानी हरिहरनाथ त्रिपाठी. राजनीति विज्ञान विभाग के एक प्रोफेसर ने ही कुलपति से शिकायत की कि यह लेख वीपी वर्मा की पुस्तक ‘मॉर्डन इंडियन पॉलिटिकल थॉट’ की नकल है. खासकर पत्रिका के पृष्ठ 172, 173, 174, 176 हूबहू नकल है.

इन गंभीर आरोपों के संबंध में यह संवाददाता प्रो. त्रिपाठी का पक्ष जानने के लिए उनके विभाग में भी गया. बहरहाल, मुलाकात नहीं हुई. प्रो त्रिपाठी ने अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए इस संबंध में पत्र लिखा, ‘वस्तुत: लेख (प्रज्ञा में छपा लेख) का शीर्षक ही बताता है कि विचार मेरे नहीं एमएन राय के हैं. और मैंने उनकी ही रचना को संक्षिप्त कर रखा है और प्रत्येक पंक्ति का संदर्भ ईमानदारी से दिया है. डॉ वीपी वर्मा ने भी यही अपनी किताब में किया है. उन्होंने भी लिखा है कि विचार उनके नहीं, एमएन राय के है, लेकिन स्रोत एक होने से दोनों की भाषा कहीं मिल गयी है, क्योंकि दोनों ने राय की ही भाषा संक्षेप किया है, जहां डॉ वर्मा का मत आया है. वहां मैंने उन्हें सम्मान के साथ उद्धृत कर दिया है.

एक दूसरा आक्षेप मुझ पर उठाया गया कि मेरी 1961 में प्रकाशित पुस्तक ‘भारतीय विचारधारा’ में तीन पृष्ठ सिद्धांत में प्रकाशित श्याम सुंदर सिंह के लेख का अंश है. वस्तुत: उस पुस्तक की भूमिका में ही मैंने लिखा है कि पुस्तक मेरे नाम और अन्य नामों से स्वयं मेरे द्वारा लिखे लेखों का संकलन है. श्यामसुंदर सिंह मेरे गांव के है. उस समय मेरे साथ धर्म संघ शिक्षा मंडल में रह कर वे पढ़ते थे. एमए इतिहास में कर इस समय वाराणसी में ही रेलवे में सेवारत हैं. इन्होंने खुद लिख दिया है कि यह लेख उन्होंने नहीं, हरिहरनाथ त्रिपाठी ने मेरे नाम लिखा था.’

फिलहाल प्रज्ञा में छपे लेख की बाबत.
प्रोफेसर त्रिपाठी के लेख का शीर्षक है ‘ए मार्क्ससिस्ट क्रिटिसज्मि ऑफ मार्क्स’- एचएन त्रिपाठी. इस शीर्षक से तो यही स्पष्ट होता है कि लेख के लेखक एच.एन. त्रिपाठी हैं. इससे कहीं नहीं लगता कि एम.एन. राय के विचारों को इसमें संक्षप्ति करके रखा गया है. विद्वान प्रोफेसर शायद भूल रहे हैं कि मशहूर विचारकों के संकलित विचारों की पुस्तक अगर अलग से छापी जाये, तो भी उसका लेखक वह विचारक ही होगा, विचारों का संकलनकर्ता नहीं. मान भी लिया जाये कि एम.एन. राय के विचारों को दो विद्वान लेखकों ने संक्षेप किया और लेखक के रूप में एम.एन. राय की जगह अपने-अपने नाम दिये. फिर भी हूबहू भाषा में समानता कैसे आयेंगे.

बहरहाल इस दिलचस्प प्रकरण का फैसला अब सुधि पाठक स्वयं कर लेंगे! विश्वविद्यालय के ही एक वरिष्ठ प्राध्यापक दुखड़ा रोते हैं कि ‘सामाजिक विज्ञान संकाय में 80 से 90 फीसदी और विज्ञान में 50-60 फीसदी के बीच हो रहे शोध कार्य पहले हुए शोध कार्यों की ही नकल हैं. सामाजिक विज्ञान संकाय में तो कुछ शोध कार्य महज पहले अंगरेजी में हुए शोध कार्यों के अनुवाद भर हैं. यह नकल का काम महज शेध छात्र ही नहीं कर रहे, उससे तेजी से शिक्षक कर रहे हैं. मौलिक काम करनेवाले शिक्षकों की संख्या अब 1500 से 20 से अधिक नहीं है.’
वनस्पति विज्ञान विभाग में यहां एक प्रोफेसर थे. कनिष्क जहाज दुर्घटना में उनका पूरा परिवार समाप्त हो गया. विभाग में उनकी अलमारी थी. उसमें उनके कुछ अप्रकाशित शोधपत्र थे. अचानक एक दिन आग लग गयी और महज वह अलमारी ही जली. कहते हैं कि इस आगजनी में अप्रकाशित शोध पत्र उड़ा दिये गये.
‘इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस’ से पाकस्तिान के एक शोध छात्र को पीएचडी की डिग्री मिलनेवाली थी. कहा जाता है कि रजिस्ट्रेशन के बाद वह पाकस्तिान में ही रहा. लेकिन उसकी थीसिस जमा हो गयी. शोध बिहार पर किया गया था. शोध समाप्त होने पर अंतिम सेमिनार होता है. उस सेमिनार में इस थीसिस को ले कर हो-हल्ला हुआ. इस कारण उक्त शोध छात्र को डिग्री नहीं मिल सकी. यानी यहां पुस्तकें लिखने और शोध करने की प्रक्रिया ही भ्रष्टाचार, नकल और फरेब पर आधारित है.

यूजीसीसी, सीएसआइआर, आइसीएआर, आइसीएमआर, आइसीएसएसआर, आइसीएचआर और गंगा प्रोजेक्ट के तहत करीब 70-80 करोड़ के प्रोजेक्ट प्रति वर्ष इस विश्वविद्यालय के शिक्षकों के पास आ रहे हैं. इन प्रोजेक्टों में मनमानी नियुक्तियां होती हैं. अच्छे शोध छात्रों से लेख तैयार करा कर वरिष्ठ अध्यापक अपना नाम भी उसमें घुसेड़ देते हैं. कांटिजेंसी फंड में करोड़ों का घपला हो रहा है. शोध छात्रों का हर संभव शोषण होता है. मसलन व्यक्तिगत उपयोग के लिए अध्यापक स्लाइड प्रोजेक्ट साढ़े तीन हजार में खरीदते हैं. लेकिन जब उसे सरकारी शोध के लिए खरीदा जाता है, तो एक स्थानीय कंपनी उसी चीज को 12 हजार रुपये में देती है. भूगोल विभाग में 13 महंगे प्रोजेक्ट खरीदे गये हैं. लेकिन सब बेकार पड़े हैं.

शिक्षकों में जाति के आधार पर चीजें तय होती हैं, मार्क्सवादी अध्यापक महंतों के पैर छूते हैं, स्वजातीय आरएसएस के प्रत्याशी को शिक्षक संघ के चुनाव में मदद करते हैं. योग्य प्राध्यापकों को मानसिक यंत्रणा दी जाती है. डॉ राणाप्रताप सिंह भूगोल विभाग में प्रवक्ता हैं. उनके 85 शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं. 22 विदेशों की प्रतिष्ठित विशिष्ट पत्रिकाओं में मशहूर न्यूयार्क स्टेट यूनिवर्सिटी से उनकी एक पुस्तक छप रही है. उनकी कुल 14 किताबें छप चुकी हैं. कुछ मशहूर विदेशी विद्वानों के साथ भी वर्जिनियाटेक (अमेरिका) एवं ओकायामा (जापान) विश्वविद्यालयों में वह काफी समय तक पढ़ा चुके हैं. अमेरिका में विश्व के 4000 प्रमुख वैज्ञानिकों की जो सूची छपी है, उसमें डॉ राणाप्रताप का भी नाम है. लेकिन अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त युवा भूगोलविद डॉ. राणाप्रताप विश्वविद्यालय में रीडर नहीं हो सके. उनके पढ़ाये छात्र भूगोल विभाग में रीडर हो गये. कारण उनकी अंतरराष्ट्रीय ख्याति से विभाग के आका लोगों को जलन होती है. हालांकि यह अलग प्रश्न है कि विदेशों के प्रतिष्ठिति विश्वविद्यालयों से उन्हें प्रोफेसर के रूप में काम करने के प्रस्ताव अकसर मिलते रहते हैं.

एलटीसी के मद में करोड़ों का घपला हुआ है. अध्यापकों ने भी यात्रा के नाम पर इस मद से पैसे लिये और झूठे बिल बना कर पेश किये. भुगतान भी हुआ. जाली अंकपत्रों पर विश्वविद्यालय में छात्र भरती किये गये हैं. अध्यापकों की बौद्धिक क्षमता का यह आलम है कि अध्यापक रजस्ट्रिार और परीक्षा नियंत्रक के खेमे में बंटे हुए हैं. पहले भी यहां गुटबाजी थी. लेकिन मशहूर और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शिक्षकों के अलग-अलग गुट होते थे. अब परीक्षा नियंत्रक और रजिस्ट्रार के खेमे हैं. ये लोग विश्वविद्यालय के अध्यापकों की रहनुमाई करते हैं. रजस्ट्रिार महोदय ‘राजा साहब’ के उपनाम से चर्चित हैं.

विश्वविद्यालय प्रशासन पर लालची और घोर भ्रष्ट तत्व हावी हैं. छात्रों से शुल्क लेकर उन्हें फर्जी रसीद दी जाती थी. पैसा विश्वविद्यालय के खाते में न जा कर ऐसे तत्वों के पास पहुंच रहा था. जब इस बात का सुराग लगा, तो शुल्क काउंटर पर ही आग लगा दी गयी. महिला महाविद्यालय से जाली हस्ताक्षर कर खेल के सामान खरीदने के नाम पर लाखों रुपये निकाले गये. खरीद-फरोख्त के लिए प्रशासनिक अधिकारियों के कमीशन तय हैं. विश्वविद्यालय के एक मशहूर प्रशासनिक पदाधिकारी को एक चर्चित ठेकेदार ने मारुति कार भेंट की है. कारण उस ठेकेदार को विश्वविद्यालय से प्रति वर्ष लाखों की आय है. मालवीय जी को देश के कोने-कोने में दान में स्थायी संपत्ति भी मिली थी. प्रो. इकबाल नारायण जब यहां कुलपति थे, तब विश्वविद्यालय के कुछ वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों ने देश के विभिन्न हिस्सों से मिली महामना की भीख को मामूली रकम पर बेच दिया. यह कारनामा ‘संपदाकांड’ से मशहूर है. इसमें अनेक लोगों का कल्याण हुआ. रातोंरात लोग मालामाल हो गये.

मेडिकल इंस्टीट्यूट में ‘कैट स्कैनिंग मशीन’ (एक्स-रे-मशीन) आ कर रखी है. यह महंगी चीज है. फिलहाल लखनऊ में यह मशीन है, यहां के डॉक्टर रोगियों को वहां भेजते हैं. संस्थान के वरिष्ठ डॉक्टर इस मशीन को चलने नहीं दे रहे हैं. कारण लखनऊ से उनका तय कमीशन कट जायेगा. अपने वरिष्ठ डॉक्टरों-अध्यापकों की नाजायज हरकतों के खिलाफ जूनियर डॉक्टरों ने चार जून से तीन जुलाई 1986 तक हड़ताल की थी. लेकिन परिणाम सिफर रहा. विभाग में शिक्षक एक दूसरे की मां-बहन करते हैं और बाकायदा कुलपति के यहां एक दूसरे की चारित्रिक और भ्रष्टाचार की लिखित शिकायतें करते हैं. कुलपति के प्रियपात्र लोगों के पास चरने के लिए अनेक विभाग हैं.


विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी की लड़की स्नातक की परीक्षा में बैठी. उस कक्षा में दूसरी लड़की को पहला स्थान मिला. उक्त अधिकारी की लड़की दूसरे स्थान पर थी. लेकिन स्वर्णपदक उक्त अधिकारी की लड़की को दिया गया. विश्वविद्यालय के कानूनी सलाहकार ने इसे सरासर गलत ठहराया, तो उदार अधिकारियों ने दोनों लड़कियों को स्वर्ण पदक दिये. हालांकि नियमानुसार प्रथम आनेवाले विद्यार्थी को ही स्वर्ण पदक मिलता है. नंबर बढ़वाने, अपने-अपने पुत्र-पुत्रियों को आगे बढ़ाने के काम में इस विश्वविद्यालय के अध्यापक भी अब पीछे नहीं हैं. आज यह विश्वविद्यालय बौद्धिक व्यभिचार और घोटालों का अड्डा बन गया है. यहां जातिवाद और अपराध का बोलबाला है.

लेकिन कुछ ही दशकों पूर्व यह विश्वविद्यालय देश के मनीषियों-ऋषियों का केंद्र था. मालवीय जी के आग्रह और अनुरोध के कारण बड़े-बड़े उद्भट विद्वान मामूली वेतन पर विश्वविद्यालय में काम कर रहे थे. इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिंसिपल थे, चार्ल्स-ए-किंग. अपने विषय के मशहूर विद्वान, छात्रों के लिए जान देने के लिए तत्पर. कट्टर शाकाहारी. विज्ञान विभाग में सर शांतिस्वरूप भटनागर, सर सीवी रमण, सर प्रफुल्लचंद्र राय, राजनीति और अर्थशास्त्र में प्रो. गुरुमुख निहाल सिंह (बाद में राजस्थान के गवर्नर), डॉ. ज्ञानचंद, प्रो. कृपलानी, अंगरेजी में पी. शेषाद्री, प्रो. निक्सन, प्रो. साहनी, प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग में प्रो. राखाल दास बनर्जी, अनंत सदाशिव पाटेकर, प्रो पुणतांबेकर, गणित में डॉ. गणेश प्रसाद, दर्शन में प्रो. फणिभूषण अधिकारी, संस्कृत में पं. राम अवतार शर्मा, गुलेरी जी, महामहोपध्याय पं. जयदेव मिश्र, महामहोपाध्याय पं. बालकृष्ण मिश्र, धर्म विभाग में श्री पाटणकर, दूसरे विभागों में प्रो. ईनामदार, प्रो राणे, प्रो. श्यामचंद्र दे (जो मात्र एक रुपया वेतन लेते थे) जैसी हस्तियां थीं. हिंदी विभाग में श्याम सुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, लाला भगवानदीन और केशवचंद मिश्र जैसे लोग थे.

पिछले वर्ष हुई बंदी के औचित्य को समझाने के लिए अखबारों को विज्ञापन जारी किये गये. पहले विश्वविद्यालय से अखबारों को जो विज्ञापन भेजे जाते थे, उनमें सिर्फ 10 फीसदी कमीशन विश्वविद्यालय को मिलता था. यह पैसा विश्वविद्यालय के पास ही रहता था. इस बार अखबारों को एक एजेंसी के माध्यम से विज्ञापन दिये गये. एजेंसी को 10 फीसदी कमीशन मिला. उस विज्ञापन एजेंसी को यह लाभ इस कारण मिला कि उसमें विश्वविद्यालय के एक अधिकारी की पत्नी कार्यरत हैं.
विश्वविद्यालय की मौजूदा बदाहाली के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार बदमिजाज और अपराधी प्रवृत्ति के ज्ञानशून्य छात्र नेता हैं. इन विवेकहीन छात्र नेताओं के लिए विश्वविद्यालय दुधारू गाय है. दशकों से यहीं जमे रहनेवाले ये छात्र नेता ठेकेदारी करते हैं और छात्रों की तथाकथित रहनुमाई, विश्वविद्यालय के एक पूर्व अध्यक्ष फिलहाल एक विभाग में शोध छात्र है. साथ ही उन विभाग के केमिकल ‘इंस्ट्रूमेंट्स’ के सप्लायर भी. अब यहां छात्रसंघ के चुनावों में पूर्वांचल के माफिया गिरोहों के सरदार आते हैं. अपने प्रत्याशियों की हर संभव मदद करते हैं. वस्तुत: यहां के 98 फीसदी छात्र-नेताओं का संबंध किसी-न-किसी अपराधी संगठन से है. छात्र राजनीति पर ऐसे ही तत्वों का कब्जा है.

कुछ छात्र नेता तो एक ठेकेदार के पैसे पर पलते हैं. विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा ठेकेदार न सिर्फ विश्वविद्यालय के अधिकारियों को ही बहुमूल्य भेंट देता है, बल्कि छात्र नेताओं को भी. छात्रसंघ के एक पूर्व महामंत्री को इस ठेकेदार ने चेतक स्कूटर उपहार में दिया.

वर्तमान कुलपति के आने के बाद कुछ ही समय में यहां सात बलात्कार, चार हत्याएं और लूटपाट की दर्जनों घटनाएं हुईं. विदेशी महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ. पहले शायद ही कभी परिसर में ऐसी घटनाएं होती थीं.एक अपराधी छात्र राइफल लेकर परीक्षा में बैठता था. जब वह छात्र पकड़ा गया, तो विश्वविद्यालय की पूरी छात्र संघर्ष समिति (एकाध सदस्यों को छोड़ कर) एसएसपी के यहां गयी. उस अपराधी छात्र पर हत्या के आरोप हैं, लेकिन उसे बेगुनाह और छात्र नेता बता कर छोड़ने का आग्रह किया गया.

छात्र संघ की गाड़ी लेकर छात्र नेता देश के कोने-कोने में जाते थे. कोष का व्यय खुल कर करते थे. विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है कि छात्र संघ के पदाधिकारियों ने विश्वविद्यालय से 27 लाख रुपये निकाल कर व्यय किया है. छात्र संघ पर काबिज छात्र नेताओं ने पैसे का व्यापक घोटाला किया है, यह निर्विविाद सत्य है. लेकिन छात्र संघ का कोषाध्यक्ष तो विश्वविद्यालय का वरिष्ठ अध्यापक होता है. उसने इसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की.

विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता शतरुद्र प्रकाश (विधायक) के अनुसार छात्र संघ की ओर से एक से डेढ़ लाख रुपया खर्च कर ‘तलत अजीज नाइट’ और ‘बिसमल्लिाह खां का शहनाई वादन’ कार्यक्रम आयोजित किये गये. कुलपति ने इन कार्यक्रमों की अध्यक्षता की. जाहिर है कि इन आयोजनों के प्रति उनकी सहमति रही होगी. इन आयोजनों के नाम पर भी घोटाले हुए.

एक शिक्षक के अनुसार कुलपति की मनमानी और निरंकुशता खत्म करने के लिए तत्काल संसद में बीएचयू बिल आना आवश्यक है. गजेंद्र गडकर आयोग की रिपोटर के बाद यह विश्वविद्यालय अध्यादेश पर ही चल रहा है. अध्यादेश के कारण सारे अधिकार कुलपति और चंद अध्यापकों की मुट्ठी में हैं.
जैसे-जैसे विश्वविद्यालय का बजट बढ़ रहा है (फिलहाल 65 करोड़), वैसे-वैसे यहां छात्रों की संख्या घट रही है. 1977 में यहां छात्र-छात्राओं की संख्या 22 हजार थी, अब यह संख्या घट कर 14 हजार रह गयी है. विश्वविद्यालय के मौजूदा कुलपति कला व सामाजिक विज्ञान संकाय के छात्रों को हेय दृष्टि से देखते हैं. उनकी दृष्टि में समस्याओं की जड़ में ये छात्र ही हैं. पिछली बंदी के दौरान पहली बार ऐसा हुआ कि प्रयोगशाला भी बंद रहे. लेकिन कुलपति की देखरेख में शोध करनेवाले छात्रों को आवास, रिसर्च-लैब की सुविधाएं मिलती रहीं. पेशेवर व ठेकेदार छात्र नेताओं को विश्वविद्यालय से दूर रखने के मोरचे पर कुलपति को कामयाबी मिली, लेकिन अब विश्वविद्यालय के घुटे हुए लोग उनके सलाहकार बन गये हैं.

बौद्धिक दृष्टि से फिलहाल यह विश्वविद्यालय कंगाल हो गया है. आज संसद में यहां से निकले 50 पूर्व छात्र सांसद हैं. कुछ मंत्री हैं. लेकिन इस विश्वविद्यालय की गंभीर बीमारी की संसद में चर्चा नहीं हो रही. 1942 में इस विश्वविद्यालय के बने 25 वर्ष हुए थे. इस कारण 25वां स्थापना दिवस बड़े धूमधाम से मनाया गया. महामना मदनमोहन मालवीय जीवित थे. महात्मा गांधी समारोह के मुख्य अतिथि थे. डॉ. राधाकृष्णन, कुलपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पं. जवाहरलाल नेहरू, पंडित गोविंदवल्लभ पंत, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित हृदयनाथ कुंजरु, डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा, सर सीवी रमण, डॉ बीरबल साहनी आदि मौजूद थे. लंदन ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और दुनिया के अनेक मशहूर विश्वविद्यालयों के विद्वान आये थे.
गांधी जी ने उस स्थापना दिवस पर ऐतिहासिक भाषण दिया. उन्होंने कहा कि मैंने सभी वक्ताओं को सुना. मैं हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी, संस्कृति या किसी भारतीय भाषा में किसी वक्ता को सुनने के लिए अधीर था. लेकिन हमने देखा कि हम गुलाम हो रहे हैं. और यह महामना के विश्वविद्यालय में हो रहा है. दुनिया के मशहूर विश्वविद्यालयों की अपनी खासियत है. मसलन ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज आदि. मुझे डर है कि भारत के विश्वविद्यालय कहीं पश्चिम के विश्वविद्यालयों की घटिया अनुकृति न हो जायें. मैं इस विश्वविद्यालय की खासियत इस मापदंड पर पर रखूंगा कि यहां अलीगढ़ से कितने छात्र आकर्षित होकर आते हैं. नये भारत की नयी संस्कृति को उजागर करने में यह विश्वविद्यालय कहां तक सफल होता है. गरीब लड़के यहां पढ़ने आते हैं. राजमहलनुमा छात्रवासों में रहते हैं. लेकिन इन सुविधाओं के बीच वे अपने परिवेश-अपनी गरीबी के लिए कितना सचेत रहते हैं. यही इस विश्वविद्यालय की सफलता की कसौटी होगी.बहरहाल, ओछे शिक्षकों-भ्रष्ट प्रशासकों और अपराधी छात्र नेताओं के सौजन्य से यह विश्वविद्यालय मालवीय जी और महात्मा गांधी की कसौटी पर खरा नहीं उतरा.
कुछ रोचक प्रसंग
इन छोटी-छोटी घटनाओं से विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं के चरत्रि और प्रशासनिक अधिकारियों की कारगुजारियों की एक झलक मिलती है. ये चंद घटनाएं इस तथ्य को उजागर करती हैं कि महामना मदनमोहन मालवीय का सपना यह विश्वविद्यालय कैसे तत्वों के हाथ में हैं.
छात्रसंघ के एक भूतपूर्व महामंत्री ने विश्वविद्यालय के सदर दरवाजे पर हो रही एक सभा में ऐलान किया कि अगर कोई लड़का किसी पुलिस को पकड़ कर लाता है (जिंदा या मुरदा), तो उसे एक हजार का इनाम दूंगा. दारोगा पर दस हजार और कप्तान पर मुंहमांगा. भाषण अभी चल ही रहा था कि पुलिस आ गयी. लड़के भाग गये और पुलिस ने उक्त छात्र नेता की खूब पिटाई की.
स्12 अगस्त 1986 को विश्वविद्यालय अनश्चितिकाल के लिए बंद कर दिया गया. लेकिन बंदी के कारणों की खोज के लिए 16 अगस्त 1986 को विश्वविद्यालय के प्रशासनिक अधिकारियों की बैठक हुई.
1986 में बंदी के एक माह बाद सूचना अधिकारी कार्यालय से ‘बंदी क्यों’ की किताब तैयार की गयी और छात्रों-अभिभावकों में बांट भी दी गयी. इसमें क्या लिखा था, इसकी जानकारी उन्हें भी नहीं थी, जिनके नाम से यह छपी हैं.

विश्वविद्यालय की बंदी पर इस बार एक लाख चौंतीस हजार रुपये का अतिरक्ति खर्च आया है, जिसमें से मात्र 25 हजार के बोरे खरीदे गये हैं. यह खर्च हर साल होता है. और विश्वविद्यालय अपनी वार्षिक रपट में इसे स्थायी तौर पर दर्ज करता है.

विश्वविद्यालय में कभी दिहाड़ी पर मिट्टी ढोनेवाली, फिर बढ़ते-बढ़ते ठेकेदारी करनेवाला एक ठेकेदार फिलहाल काफी प्रभावी है.
आपातकाल के दौरान, कांग्रेस का बिल्ला लगा कर विश्वविद्यालय की चारदीवारी ऊंचा करने के लिए 19 लाख का ठेका उसने लिया था, फिर एक साल के अंदर विश्वविद्यालय के बगल में उसने तिमंजिली इमारत खड़ी कर ली है. इस बार की बंदी में उसका नया प्रस्ताव विचाराधीन है कि परिसर की दीवारों की मरम्मत दोबारा की जाये, क्योंकि छात्रों को चारदीवारी से भागने का मौका मिल जाता है. कुछ छात्र नेता उसके घर पर धरना की योजना बना रहे हैं और सरकार से मांग करनेवाले हैं कि इतनी संपत्ति उसके पास कहां से आयी, इसकी जांच की जाये. इससे न केवल वह ठेकेदार घबड़ाया है, बल्कि वे अधिकारी भी घबड़ाये हुए हैं, जिनकी इस ठेकेदार से सांठगांठ है.
विश्वविद्यालय केंद्रीय कार्यालय में चलनेवाले खरीद विभाग के अधिकांश अधिकारियों एवं कर्मचारियों के परिवार के लोग बाहर में सप्लाई एजेंसी चलाते हैं. इन्हीं से खरीद-फरोख्त होती है, क्योंकि विश्वविद्यालय के लिए सामान की खरीद पिता करता है और सामान की आपूर्ति करता है उसका बेटा.
एक सर्वदलीय छात्र नेता हैं, जिनका अधिकांश समय ‘राष्ट्रीय बहस’ में गुजरता है. पिछले कई माह से वह छात्र संघ के एक कमरे में रह रहे थे. छात्र संघ को बंदी के बाद उनका सारा सामान छात्र संघ में बंद हो गया था. नतीजतन हर रोज उनका एक सूत्रीय कार्यक्रम चल रहा था कि छात्रसंघ का ताला तोड़ा जाना चाहिए. छात्रों का जूलूस चलता, छात्रसंघ का ताला तोड़ता और इसके पहले कि उक्त छात्र नेता की अटैची बाहर निकलती, पुलिस दोबारा आ जाती और फिर पुलिस ताला लगा देती. आखिर तीसरी बार छात्रों ने ताला तोड़ा, तब उनकी अटैची निकल पायी.

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