-हरिवंश-
‘कोयलांचल का अफसर माफिया’ (11-17) दिसंबर ’88) लेख के संबंध में बीसीसीएल अधिकारी संघ समेत अनेक प्रतिक्रियाएं हमें मिली हैं. इससे संबंधित कुछ पत्र छप भी चुके हैं. अब अंतिम किस्त में पढ़िए धनबाद के उपायुक्त मदनमोहन झा की लंबी प्रक्रिया और इस संदर्भ में हरिवंश का जवाब.
‘रविवार’ (11-17 दिसंबर ’88) के अंक में हरिवंश का ‘कोयलांचल का अफसर माफिया’ शीर्षक लेख देखा. मैं यह दावा कर सकता हूं कि उपरोक्त लेख तैयार करने में आपके संवाददाता ने कोई मेहनत नहीं की है.मेरे मकान की कहानी. 1980 में भारतीय प्रशासनिक सेवा के 20 अधिकारियों ने घर बनाने की योजना के तहत सरकार से संपर्क किया. हाउसिंग बोर्ड ने जमीन का आवंटन किया. 1980 से 1983 तक निगरानी, फिर हाइकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले की जांच हुई. अंतत: 1984 के आरंभ में प्लाटों का आवंटन हुआ.
मई, 1984 में निर्माण आरंभ हुआ. मार्च 1986 में मेरे मकान का काम पूरा हुआ. निर्माण खर्च छह लाख नहीं, बल्कि 3,48 लाख है. जिसमें सरकार का ऋण (1,75 लाख) हाउसिंग फेडरेशन का ऋण (1.10 लाख) बैंक ओवर ड्राफ्ट (0.50 लाख) तथा कुछ निजी रुपये लगे. सारे खर्च का हिसाब सरकार के पास उपलब्ध है. दरअसल, कोई भी भा.प्र.से. का अधिकारी बिना कर्जखोरी के मकान नहीं बना सकता – पूरी सेवा अवधि में भी नहीं.
आपके रिपोर्टर ने कतिपय अधिकारियों के नामों का विशेष रूप से उल्लेख किया है. वे शायद इसकी जानकारी प्राप्त कर लेते कि क्या वे भी (मेरी तरह) मकानविहीन हैं, तथा मकान बनाने का उनका कोई कार्यक्रम नहीं है. जहां मैंने मकान बनाया है, वहां कम-से-कम धनबाद के तीन पूर्व उपायुक्त के मकान/जमीन हैं. उन पर आपके रिपोर्टर को संभवत: कोई शक नहीं होगा. क्योंकि वे एक साल से अधिक यहां नहीं रह सके. उन्होंने धनबाद में जो शुरू किया, वह आगे नहीं बढ़ सका. मेरी बदकिस्मती है कि मैं यहां ढाई साल से हूं, तथा मेरे द्वारा शुरू किया गया ‘उन्मूलन’ बीच में टूट नहीं सका है. उसे सरकार का भी पुरजोर समर्थन मिल रहा है.
मेरी अन्य संपत्ति (नामी/बेनामी) के संदर्भ में मैं पुन: आग्रह करूंगा कि इसका पता लगा दें. अगर आपके पत्रकार मेरी मदद नहीं करेंगे, तो मेरा बड़ा बुरा होगा. क्योंकि मेरे पिता-माता, जो गांव में अन्य के मकान में रहते हैं, उन्हें अपने ‘नालायक बेटे’ पर बड़ा ही अविश्वास होगा कि ‘अथाह आमद तथा बेनामी संपत्ति’ रखते हुए भी मैं उनकी कोई मदद नहीं कर सकता.
कोयला मजदूर की स्मृति में बनी मूर्ति के प्रसंग को ले कर यहां के एक ‘पावरफुल ग्रुप’ (जिनके द्वारा हो रही स्लरी के करोड़ों की लूट मेरे द्वारा बंद करायी गयी) ने रांची बेंच में याचिका दायर की थी, जो खारिज हो गयी. इसी प्रसंग में सूर्यदेव सिंह ने भी मेरे विरुद्ध सरकार को कंपलेन किया था. अतएव, आपके पत्रकार ने कोई नयी ‘खोज’ नहीं की है.
दरअसल, मूर्ति प्रकरण की शुरुआत 1984 में हुई. तत्कालीन उपायुक्त तथा अध्यक्ष, (बीसीसीएल) ने इस स्थल पर कोयला मजदूर को मूर्ति स्थापित करने की घोषणा की. उस आशय की एक पट्टी भी लगायी. मैं मई 1986 में धनबाद आया. श्री सोनावाडेकर को मैं तो जानता ही था. बीसीसीएल के तत्कालीन अध्यक्ष बीआर प्रसाद भी अच्छी तरह जानते थे. सोनावाडेकर राष्ट्रीय ख्याति के मूर्तिकार हैं, जो कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानंद की मूर्ति के अतिरिक्त पटना सचिवालय में डॉ श्रीकृष्ण सिंह, जमशेदपुर में जमशेदजी टाटा तथा देश के विभिन्न शहरों में दर्जनों मूर्तियां लगा चुके हैं. मैं तथा श्री प्रसाद इन्हें रांची से ही जानते थे, वहां उन्होंने एक पूर्व सैनिक एलबर्ट एक्का की मूर्ति लगायी है.
जहां तक मेरे द्वारा बीसीसीएल को पत्र लिखने का सवाल है, तो मैंने सैकड़ों पत्र बीसीसीएल को लिखे हैं. लेकिन किसी ने ‘प्रबंधन पर कब्जा जमाने’ का आरोप नहीं लगाया. हां, बीसीसीएल की एक बैठक में सूर्यदेव सिंह ने ऐसा कहा था. दूसरी तथ्यात्मक गलती आपके रिपोर्टर ने मूर्ति की प्रस्तावित कीमत में अनेक बार वृद्धि कर 8 लाख रुपये व्यय करने की बात छाप कर की है. मूर्ति की कीमत शुरू से अंत तक 3.50 लाख रुपये ही रही. शेष खर्च बीसीसीएल के अधिकारियों ने किया. अगर कुल 8 लाख खर्च हुए, तो वस्तुत: अधिक है.
यह झूठ लिखा गया है कि सोनावाडेकर और बीसीसीएल में प्रत्यक्ष संवाद नहीं हुआ. बी.आर. प्रसाद (पूर्व अध्यक्ष) के घर पर, उनके कार्यालय प्रकोष्ठ में, फिर कोयला भवन की बैठक में अध्यक्ष, निदेशक (कार्मिक) तथा सभी निदेशकों से बातचीत हुई थी. अंतत: बीसीसीएल के निदेशकमंडल ने इसकी स्वीकृति दी (जिसमें मैं उपस्थित नहीं था). यह दुर्भाग्य है कि आपके रिपोर्टर कलाकृति तथा ठेकेदारी में अंतर नहीं समझते. मूर्ति बनाना एक कला है, जिसका सृजन ठेकेदारी से नहीं हो सकता है. सोनावाडेकर का बंबई का स्टूडियो मैंने देखा है. वे शतप्रतिशत कलाकार हैं, ठेकेदार या सप्लायर नहीं. इसलिए सिद्धांत: वे ‘टेंडर’ या कोटेशन नहीं देते. फिर भी दर्जनों मूर्तियां उन्होंने देश के कोने-कोने में स्थापित की हैं, सिर्फ बीसीसीएल के लिए मूर्ति नहीं बनायी. श्री प्रसाद को, तथा अन्य निदेशकों को सोनावाडेकर की कला अच्छी लगी. उन्होंने पांच महीने में मूर्ति बनाने का प्रस्ताव दिया. अतएव इस प्रकरण में मुझे ‘बिचौलिया’ कह कर आपके रिपोर्टर ने मेरा ही नहीं, वरन एक राष्ट्र प्रसिद्ध कलाकार का अपमान किया है.
बीसीसीएल में परिवहन कार्य. बीसीसीएल क्षेत्र में पहली बार आदिवासी, हरिजन-पिछड़े वर्ग के लोग तथा पूर्व सैनिक संगठित हो रहे हैं. इसलिए पेशेवर, कुख्यात ठेकेदार तथा बीसीसीएल के मुट्ठी भर भ्रष्ट अधिकारियों में कंपकंपी है. उन्होंने परिवहन समिति बनायी है. आलोचकों तथा स्वार्थी बेरोजगार नवयुवकों को झारखंडी, तो कभी मार्क्सवादी, तो कभी उग्रवादी कहते रहे. अब इन्हें श्रीमती गांधी का आक्रामक कहने लगे हैं. इस सहयोग समिति के सभी सदस्यों का चरित्र तथा पूर्व इतिहास सत्यापन कराया गया है. जिस नवयुवक की ओर आपके रिपोर्टर द्वारा ‘श्रीमती गांधी पर आक्रमण’ का इशारा किया गया है, वह जेपी आंदोलन में सक्रिय था. आवेश में उसने संसद में परचे फेंके थे. विभिन्न राजनीतिक दलों से नाता जोड़ते-तोड़ते, अंतत: उसने पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार के लिए दर्जनों जगह भाषण दिया तथा वोट मांगे.
मुझे आश्चर्य लगता है कि एसोसिएशनवाले इसका इस्तेमाल मेरे विरुद्ध क्यों कर रहे हैं. कैसी विडंबना है कि अपने एक-दो अधिकारी की गिरफ्तारी के लिए वे हड़ताल कर देते हैं. लेकिन ‘श्रीमती गांधी के आक्रामक’ का बीसीसीएल में कारोबार देख कर चुप हैं.
बीसीसीएल की जमीन पर वृक्षारोपण
बीसीसीएल ने धनबाद में पर्यावरण बुरी तरह बरबाद किया है. राज्य सरकार के ग्रामीण विकास कार्यक्रम में वृक्षारोपण की व्यवस्था है, लेकिन घेरा डालने के तार, बल्ले आदि के खर्च पर प्रतिबंध है. पूर्व अध्यक्ष बी.आर. प्रसाद के साथ बातचीत के बाद तय हुआ कि गौफलैंड पर वृक्षारोपण का श्रम खर्च जिला प्रशासन करेगा, तथा कंटीले तार लगाने का खर्च बीसीसीएल वहन करेगा. इस प्रस्ताव पर सरकार के ग्रामीण विकास विभाग की विधिवत स्वीकृति प्राप्त हुई. एक बड़े समारोह में बीसीसीएल के पूर्व अध्यक्ष तथा कई अधिकारियों और सैकड़ों स्थानीय लोगों की मौजूदगी में सामूहिक वृक्षारोपण किया गया.
गौफलैंड तथा सरकारी जमीन पर कोयला क्षेत्र में वृक्षारोपण का पहला नुकसान सूर्यदेव सिंह के भागा कॉलेज को हुआ, जिसका एक साइन बोर्ड एक बहुमूल्य जमीन के टुकड़े पर लगा दिया गया था और रातोंरात उसे चारदीवारी से घेरने की योजना बनायी गयी थी. फिर, गोधर में दरिंदे कारों में बैठ कर आये और कार्यरत मजदूरों को भगाने की कोशिश की. पुलिस के हस्तक्षेप से वृक्षारोपण का कार्य हुआ. इसके बारे में भी सूर्यदेव सिंह ने बहुत पहले सरकार को ‘कंपलेन’ किया था.
भूली टाउनशिप में जलापूर्ति
भूरी टाउन से कोयला खनन क्षेत्र विकास प्राधिकार के वर्तमान अध्यक्ष तथा बीसीसीएल के निदेशक (कार्मिक) ने बातचीत करके 82 लाख की योजना शुरू की. इतनी बड़ी योजना की तकनीकी स्वीकृत नहीं ली गयी. मैंने जब प्राधिकार का कार्य देखना शुरू किया, तो योजना को सरकार के पास भेजा. सरकार ने इसमें रद्दो-बदल कर तकनीकी स्वीकृति भेजी है. अब जी-जान से मैं 90 लाख गैलन प्रतिदिन अतिरिक्त जलापूर्ति की योजना को पूरा करने के लिए लगा हूं.
उपरोक्त व्यक्तिगत आक्षेपों के अतिरिक्त ‘विशेष रिपोर्ट’ में कई और गलत तथ्य हैं, जिन्हें मैं जानता हूं. संक्षेप में उनकी चर्चा कर रहा हूं. ‘कोयला खदानों में कार्यरत नीचे के लोगों से माफिया गिरोहों की अवश्य सांठगांठ है.’ आपके रिपोर्टर ने इस वाक्य को बेलगाम प्रयोग कर ֹ‘नीचे के लोगों’ का बहुत अपमान किया है. आपको शायद मालूम नहीं कि ‘माफिया गिरोहों’ ने सबसे बड़ा नुकसान ‘नीचे के लोगों’ (हरिजन-आदिवासी) को पहुंचाया है. हजारों मजदूरों की नौकरियां उन्होंने छीन ली हैं. आदिवासी मजदूरों की संख्या यहां निरंतर कम हुई है, जबकि कुल मजदूरों की संख्या बढ़ती रही है. आतंकित होकर आदिवासी-हरिजन कोयला क्षेत्र छोड़ने लगे थे. झरिया अंचल में आदिवासी जनसंख्या प्राय: लुप्त हो रही है.
अधिकारियों पर माफिया सरदारों द्वारा हमले से पुलिस ने क्या कार्रवाई की, इसकी पूरी विवेचना यहां संभव नहीं. लेकिन, इतना कहना चाहूंगा कि कई ऐसे अपराधी बीसीसीएल के संरक्षण में फलते-फूलते हैं. उनके यहां ठेकेदारी करते हैं. कोयले के डी ओ का कारोबार करते हैं. पुलिस द्वारा गिरफ्तार होने तथा कोर्ट से सजा पा लेने के बाद भी बीसीसीएल की सेवा में कायम रहते हैं. कई बार बीसीसीएल के कर्मचारी तथा अधिकारी अपना बयान बदल कर उनकी मदद करते हैं. पुलिस की पूरी मेहनत बेकार हो जाती है.
के कुमार प्रकरण.
इस प्रकरण की पूरी जानकारी तब मिल पायेगी, जब रामनाथ बिंद की चर्चा हो. श्री बिंद को सूर्यदेव सिंह के लोगों ने वर्षों पहले मार कर भगा दिया था, श्री कुमार 1986 में श्री सिंह के बॉडीगार्ड राजगृह ओझा की ‘अस्थायी नियुक्ति’ उन्हें रामनाथ बिंद बना कर कर दी. श्री कुमार के विरुद्ध मुकदमा फरवरी 1987 में ही दर्ज हो गया था.
अप्रैल 1988 में जिस कांड में श्री कुमार को पकड़ने की बात हुई, उसे पुलिस ने नहीं, बल्कि सीआरपीएफ ने दर्ज कराया था. श्री कुमार ने पूरी जानकारी में विस्फोटक सामग्री अवांछनीय स्थान पर रखी थी. किसी भी मुकदमे में चार्जशीट समर्पित करने के पूर्व अभियुक्तों की गिरफ्तारी जरूरी होती है. पुलिस अधीक्षक ने बीसीसीएल प्रबंधन को लिखित रूप से सूचित किया, जिससे कि श्री कुमार कोर्ट में या पुलिस के समक्ष उपस्थित होकर सम्मानित ढंग से जमानत ले ले. पर उन्हें यहां से हटा दिया गया. फलत: कोर्ट ने कुर्की-जब्ती का आदेश जारी किया.
आर.के. अरोड़ा के बारे में जानकारी के लिए मोतीचंद तेली को जानना आवश्यक होगा. उनकी जगह पर हुकुमचंद यादव को दो बार काम दिया गया. गिरफ्तारी के बाद वापस लौटने पर पुन: हुकुमचंद यादव को श्री अरोड़ा ने काम पर रख लिया. दो वर्षों तक श्री अरोड़ा मोतीचंद तेली तथा अन्य लोगों से संबंधित कागजात को छुपाते रहे. दरअसल बीसीसीएल अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमे तथा गिरफ्तारी की यह पहली घटना नहीं थी. अंतर यह था कि इस बार 21 ऐसे जाली नियुक्त व्यक्तियों का भंडाफोड़ हुआ, जो प्राय: सूर्यदेव सिंह के गांव के थे.
एन.एल. सिंह मुझसे भी एक दो बार अपने विरुद्ध दर्ज मामलों की ‘पैरवी’ के लिए थे. मैंने अनुरोध किया था कि वह हमारी मदद करे, दोषी व्यक्तियों को पकड़ने में सहयोग करे. प्रबंधन से इन सैकड़ों जाली लोगों की सूची देने के लिए एसोसिएशन की तरफ से मांग रखें, जिन्हें कभी अवैध बहाली के तहत हटाया गया, लेकिन धीरे-धीरे पुन: वापस ले लिया गया. लेकिन वह सिर्फ अपने विरुद्ध दर्ज कांडों से ‘निकलने के लिए’ ही इच्छुक थे.
अगर लेखक थोड़ा-सा प्रयास करते, तो उन्हें पता लग जाता कि वर्ष 1986 में दो कमजोर महिलाओं की नौकरी ‘जाली दामाद’ बन कर हड़पने में मदद के लिए झरिया बीडीओ अभियुक्त थे. केस में इनके विरुद्ध आरोप-पत्र समर्पित किया गया है. कांड में अभियुक्त पंचायत सेवक को सेवा से बरखास्त किया जा चुका है. अभियुक्त झरिया प्रमुख को सरकार ने बरखास्त कर दिया है, शायद यह बिहार की पहली घटना है. जारी बहाली के विभिन्न मुकदमों में कम-से-कम चार तत्कालीन प्रखंड विकास पदाधिकारी अभियुक्त हैं. हरिवंश अगर मुझसे पूछते और इन ‘आरोपों’ का जिक्र करते, जिसकी चर्चा बीसीसीएल अधिकारियों ने की या जिनकी खोज उन्होंने की, तो उनकी विशेष रिपोर्ट एकतरफा बीसीसीएल का ‘स्पांसर्ड प्रोग्राम’ (प्रायोजित) नहीं लगता.
धनबाद उपायुक्त द्वारा सरकार को प्रेषित टिप्पणी का रूपांतर
1986 में धनबाद माफिया के खिलाफ शुरू किया गया अभियान अभी चल रहा है. दो कुख्यात माफिया सरदारों – सकलदेव सिंह और रघुनाथ सिंह को आजीवन कारावास की सजा हो चुकी है. सूर्यदेव सिंह के सजा होने की संभावना बढ़ गयी है. लेकिन स्थानीय डॉक्टरों, कनिष्ठ स्तर के पुलिसकर्मियों और जेल स्टाफ के सहयोग के कारण वह अपने मुकदमों की सुनवाई स्थगित कराने में सफल रहे हैं. न्यायिक हिरासत में भी उन्हें जेल की सारी सुविधाएं मिलती रही हैं.
माफिया विरोधी अभियान के परिणामस्वरूप कोयला उद्योग में छह दिनों (मार्च 1986) की हड़ताल का बीसीसीएल पर कोई असर नहीं हुआ. एस.डी. सिंह का गढ़ माने जानेवाली खदानों में भी कोयले का करीब-करीब सामान्य उत्पादन होता रहा.
बीसीसीएल द्वारा दिये जानेवाले बालू या कोयले की ठेकेदारी से अनेक माफिया सरदारों को अलग रखा गया है. पूर्व सैनिकों, स्थानीय विस्थापित लोगों और बेरोजगार नवयुवकों के समूह बना कर सरकारी संघों का निर्माण किया गया है. और उन्हें प्रायोगिक स्तर पर काम दिया गया है. 1988 जून में आयकर विभाग द्वारा छापेमारी से माफिया सरदारों की आर्थिक शक्ति को गहरा धक्का पहुंचा. एसडी सिंह और दूसरे माफिया सरदारों का असर लगातार क्षीण हो रहा है. धनबाद-झरिया कोयलांचल में आत्मविश्वास और निर्भीकता का माहौल है. इंटक (आरसीएमएस) की गतिविधियों और सदस्य संख्या में नियमित वृद्धि हो रही है.
दुर्भाग्यवश बीसीसीएल अधिकारियों के एक समूह का माफिया सरदारों से संपर्क रहा है. आयकर छापेमारी में अनेक पत्र, फाइल मिले हैं, जो बीसीसीएल दफ्तर से माफिया तत्वों द्वारा ‘स्मगल’ किये गये हैं. जब से माफिया तत्वों के खिलाफ सुनवाई आरंभ हुई. तब से माफिया तत्व डीसी (एम.एस. झा) के खून के प्यासे हैं. दुर्भाग्यवश बीसीसीएल अधिकारियों के इस समूह का अधिकारी संघ में प्रभुत्व है. ये लोग उनकी सहायता भी कर रहे हैं. फर्जी नौकरी प्रमाण के मुकदमा दर्ज करने और बीसीसीएल अधिकारियों की गिरफ्तारी के बाद इन लोगों ने उपायुक्त के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है. हालांकि इन लोगों की गिरफ्तारी का निर्णय खुद एसपी द्वारा लिया गया (उपायुक्त की जानकारी के बगैर). फिर भी उपायुक्त ने इन अधिकारियों के खिलाफ स्पष्ट साक्ष्य देख कर इस कदम का समर्थन किया.
माफिया तत्वों द्वारा समर्पित अधिकारियों के इस समूह ने खासतौर से डीसी और सामान्य रूप से जिला प्रशासन के खिलाफ अफवाह का प्रचार करना आरंभ किया है. डीसी के खिलाफ बेबुनियाद और आधारहीन आरोप लगाते हुए ये लोग राज्य सरकार, प्रधानमंत्री कार्यालय, कोयला मंत्रालय और सीबीआइ आदि को पत्र लिख रहे हैं. अखबारों में भी ये लोग स्टोरी प्लांट कराने की कोशिश कर रहे हैं. उच्च न्यायालयों में मानहानि मुकदमे आरंभ कर ये लोग डीसी को उलझाना चाहते हैं. इसका उद्देश्य डीसी को परेशान और हतोत्साहित करना है, ताकि वह अपना अभियान छोड़ दें या इन मामलों में उलझे रहें. दुर्भाग्यपूर्ण है कि बीसीसीएल का उच्च प्रबंधन अभी तक इस छोटे समूह के अभियान को गंभीरता से नहीं ले पाया है, बल्कि ये लोग उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं और संरक्षण दे रहे हैं. बीसीसीएल अधिकारियों द्वारा आयोजित कथित हड़ताल ऐसे ही संरक्षण का परिणाम थी.