-हरिवंश-
हालांकि एससी झा का नाम प्रोन्नति सूची में पहला था. उनसे जूनियर अधिकारी को डीआइजी बनाने का आदेश बिहार सरकार निर्गत कर चुकी है. श्री झा ने रामाश्रय प्रसाद सिंह, (मंत्री, बिहार सरकार), सांसद किंग महेंद्र, कुछ विधायकों और अन्य ताकतवर लोगों को इन वारदातों के लिए दोषी ठहराया था. श्री झा को तत्काल स्थानांतरित किया गया और डीएन सहाय (आइ.जी.) को बिहार सरकार ने जांच का आदेश दिया. बहुत ही कम समय में श्री सहाय ने जांच का काम पूरा किया और झा के पत्र में लगाये गये आरोपों को असत्य ठहराया. मंत्री रामाश्रय प्रसाद सिंह की इन वारदातों से संबंधित न होने की रिपोर्ट दी.
जिस प्रचलित शैली में यह ड्रामा हुआ, उससे इस आरोप को बल मिलता है कि बिहार सरकार संगठित अपराधियों के कब्जे में है. एकाध मंत्री अपवाद हो सकते हैं. पर प्रशासन ऐसे लोगों के इशारे पर नहीं चलता. चोरी के आरोप में गिरफ्तार थामस हांसदा बिहार सरकार में महत्वपूर्ण मंत्री हैं. दूसरे मंत्री महावीर पासवान पर फरजी बिल भुनाने के आरोप प्रमाणित हो चुके हैं. ऐसे मंत्रियों और उनके कार्यकलापों की सूची बिहार में लंबी है. लेकिन आइजी डीएन सहाय ने जिस तौर-तरीके से श्री झा द्वारा लगाये गये गंभीर आरोपों की जांच की, उससे साफ है कि नौकरशाह राजनेताओं से अधिक पक्षपाती हो गये हैं.
श्री सहाय विवादास्पद अधिकारी हैं. वह पुलिस अधिकारी कम, राजनेता अधिक हैं. हालांकि बिहार के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री (अब केंद्रीय मंत्री) के समय में वह सुपर मुख्यमंत्री कहे जाते थे. श्री सहाय की एकमात्र काबिलियत है कि वह किसी ताकतवर को नाखुश नहीं रख सकते. जनता पार्टी के शासन में उन्होंने कांग्रेस (इं) के नेताओं की हर संभव मदद की थी और जनता नेताओं के भी लाडले थे. बांका उपचुनाव में उनके कार्यकलाप जग जाहिर हैं. ऐसे विवादास्पद व्यक्ति को जिस क्षण बिहार सरकार ने एससी झा द्वारा लगाये गये आरोपों की जांच का आदेश दिया, उसी वक्त सरकार की मंशा स्पष्ट हो गयी.
सरकार मानती है कि श्री झा ने अखिल भारतीय सेवा आचार संहिता का उल्लंघन किया है. अगर ऐसा है, तो उन्हें दंड मिलना ही चाहिए, लेकिन उन्होंने बिहार के जिन ताकतवर नेताओं पर प्रमाण सहित आरोप लगाये हैं, उन्हें कौन दंडित करेगा? यह भी स्पष्ट है कि इन लोगों के विरुद्ध कार्रवाई का आदेश मांगने के पूर्व श्री झा ने बारीकी से आरोपों की जांच की होगी. सबूत पाया होगा, तभी इन्हें पकड़ने का आदेश मांगा होगा, अन्यथा मनमाने ढंग से आधारहीन कारणों पर उनकी हिम्मत इन ताकतवर लोगों के खिलाफ कुछ कहने की नहीं होती. अगर सरकार अपने मंत्री रामाश्रय प्रसाद सिंह और सांसद किंग महेंद्र एवं अन्य दोषी विधायकों को पाक-साफ मानती है, तो उसे न्यायिक जांच का आदेश देना चाहिए.
रामाश्रय प्रसाद सिंह को स्वयं कांग्रेस (इं) ने अपने सफाई अभियान के दौरान पिछले वर्ष विधानसभा का टिकट नहीं दिया था, बाद में उन्हें विधान परिषद के पिछले दरवाजे से प्रवेश मिला और मंत्री पद भी. किंग महेंद्र भी कांग्रेस (इं) के टिकट पर लोकसभा चुनाव हार गये थे. इन दोनों लोगों के अतिरिक्त श्री झा ने इस इलाके के कुछ विधायकों पर भी हिंसा फैलाने-अपराधियों को संरक्षण देने के आरोप लगाये हैं. श्री झा बिना कारण ऐसे लोगों के खिलाफ नामजद शिकायत नहीं कर सकते थे, यह स्पष्ट है.
इन चंद लोगों ने पटना से गया तक के करोड़ों लोगों का जीना मुहाल कर दिया है. पंजाब में हो रही हत्याओं के लिए तो रोज आवाज उठाते हैं, लेकिन पिछले एक दशक से इस क्षेत्र में निरंतर अनगिनत हत्याएं हो रही हैं, लेकिन शोषक भू-सामंतों और संरक्षक राजनेताओं के खिलाफ कभी आवाज नहीं उठी. महज कागज पर एससी झा दोषी लोगों पर आरोप लगाते हैं, तो उन्हें प्रताड़ित किया जाता है. उनकी प्रोन्नति नहीं होती. लेकिन इस क्षेत्र के जो करोड़ों बाशिंदे आरोप लगा रहे हैं. सरकार की नजर में वे झूठे हैं, क्योंकि दोषी मंत्री या सांसद हैं? न्याय के जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, तो हिंसा भड़कना स्वाभाविक है. इस क्षेत्र में हो रही हिंसा के मूल में यही है.
खुद कांग्रेस (इं) विधायकों के एक समूह ने प्रधानमंत्री को अरवल की जो रिपोर्ट भेजी है, उसमें सरकार को दोषी ठहराया है. इस रिपोर्ट में उल्लेख है कि एक खास जाति के लोग प्रशासन और पुलिस के सहयोग से इस इलाके में खेतिहर मजदूरों की हत्या करते रहे हैं. इस रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि अरवल में 100 लोग मारे गये. साथ ही यह भी कहा गया है कि अरवल कांड से कांग्रेस (इं) का इस क्षेत्र से सफाया हो गया है. अगर पुलिस अधीक्षक एससी झा को सच कहने के लिए सरकार प्रताड़ित करती है, तो उससे पहले सरकार का नैतिक दायित्व है कि अपनी पार्टी के विधायकों को दंडित करें, जिन्होंने अरवल कांड के तथ्यों से प्रधानमंत्री को अवगत कराया है. ये तथ्य एससी झा के आरोपों से भी भयानक है.
आज कांग्रेसी विधायक प्रधानमंत्री-गृहमंत्री से चिरौरी कर रहे हैं कि वे इस क्षेत्र में आकर कांग्रेस (इं) की मिटी साख को बचायें. अक्षम और संवेदनहीन मुख्यमंत्री को पटना में नाच-गानों के समारोहों में जाने-उदघाटन करने का वक्त है, लेकिन पटना से अरवल जाने की फुरसत उन्हें आज तक नहीं मिली. वैसे भी मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे डॉ जगन्नाथ मिश्र के खिलाफ रणनीति बनाने में ही अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं. लेकिन उन्हें मालूम नहीं है कि वह डॉ जगन्नाथ मिश्र को कमजोर करने के बदले कांग्रेस (इं) की बुनियाद बिहार से साफ कर रहे हैं.
फासिस्टवाद मानव-सभ्यता का निषेध था. उसका उत्तराधिकारी अमेरिकी साम्राज्यवाद भी मानव सभ्यता का निषेध है. इस सभ्यता के विकास में भारत का योगदान गौरवपूर्ण था.’ जो मार्क्सवादी चिंतक यह दलील देते नहीं अघाते कि अंगरेजों ने हमारा उद्धार किया, उन्हें डॉ शर्मा की यह मान्यता नहीं सुहायेगी. ‘इतिहास के साथ यह बहुत बड़ा मजाक है कि अंगरेजी राज के इस खेतिहर भारत को बहुत से विवेचकों ने सनातन भारत मान लिया है. जो कुछ औद्योगिक प्रगति हुई, वह अंगरेजी राज में, अंगरेजी राज का विरोध करके नहीं, उसकी कृपा से! उससे पहले यहां केवल उपयोग मूल्यों का सृजन करनेवाला आत्मनिर्भर कृषितंत्र था! पूरा भारत एक विशाल देहात था! यूरोप के प्रबुद्ध व्यापारी इस देश में बना माल खरीदने क्यों आते थे, बदले में अपना बहुमूल्य सोना-चांदी इस देहात को क्यों दे जाते थे, इसकी कैफियत देना इन विद्वानों ने जरूरी नहीं समझा.’
भारत के प्राचीन साहित्य और लोक कवियों को विलासी, दकियानूसी और प्रतिगामी विशेषणों से विभूषित करनेवाले साम्यवादियों को भले ही डॉ शर्मा का कथन… ‘सूरदास का श्रृंगार वर्णन लोक संस्कृति का प्रतिबिंब है, दरबारी कवियों का श्रृंगार वर्णन सामंती अभिरुचि का’ प्रतिगामी लगे, लेकिन इस पुस्तक की विशेषता है कि भारत के अतीत व इतिहास का विश्लेषण इसमें देश-काल व तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप किया गया है.
यह सही है कि पिछड़ी दुनिया के देशों में परिवर्तन की पक्षधर ताकतों को संघर्ष के लिए मार्क्सवाद से ताकत और प्रेरणा मिलती रही है. लेकिन मार्क्स ने जिस समाज को केंद्र बना कर अध्ययन-वश्लिेषण किया, वह 19वीं शताब्दी के यूरोपीय समाज का पूंजीवाद है. यूरोप के पूंजीपति एशिया-अफ्रीका की लूट से ‘अतिरक्ति मूल्य’ का संचय करते थे. औद्योगिक क्रांति की बुनियाद में भी ऐसी ही पूंजी है. तब मार्क्स के अनुयायियों के लिए कल्पना से परे की बात थी कि ‘अर्द्ध बर्बर एशियाई’ देशों में भी क्रांति हो सकती है, इतिहास का यह एक विचित्र प्रसंग है कि क्रांति से पूर्व जिस रूस को मार्क्सवादी अर्द्ध एशियाई देश कहते थे, क्रांति के बाद उसी देश की कम्युनिस्ट पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने यह दलील दी कि गैर यूरोपीय देशों की साम्यवादी क्रांतियां दोयम दरजे की क्रांतियां हैं, यानी क्रांति के बाद साम्यवादी नेता यूरोप की पंगत में बैठने के लिए इतने उतावले हो गये कि उन्होंने फतवा दे दिया कि गैर यूरोपीय देशों की क्रांतियां दोयम दरजे की है.
यह दृष्टि दोष है. आलोचक इस दोष का मूल मार्क्स के लेखन में ही बताते हैं. एशिया-अफ्रीका के लोगों को हिकारत और नफरत से देखने का यह भाव है. मार्क्स भी यूरोप की श्रेष्ठता की वकालत के आरोप लगाये जाते हैं. अत: रामविलास जी की यह मान्यता कि ‘मार्क्सवाद का जितना संबंध पिछड़े हुए देशों की जनता से है, उतना आगे बढ़े हुए देशों की जनता से नहीं.’ सटीक नहीं है. सैद्धांतिक विवेचन के स्तर पर मार्क्स ने ऐसे समाज को अपने अध्ययन का मूल केंद्र नहीं बनाया. हां! अन्याय, गैरबराबरी और दकियानूसी प्रवृत्ति के खिलाफ लड़ने के लिए तीसरी दुनिया के देशों में मार्क्सवाद से लोगों ने प्रेरणा ग्रहण की. मार्क्स को गरीबों के मसीहा के रूप में लोगों ने देखा. उसने ‘गरीबों के लोकतंत्र’ की परिकल्पना की. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की और एक वर्ग के संगठन की वकालत की. इस संदर्भ में मार्क्सवाद वास्तव में पिछड़ी दुनिया के देशों के लिए मार्गदर्शक और उत्प्रेरक साबित हुआ. धर्म और समाज के शोषक तत्वों की उसने कटु आलोचना की. सर्वहारा के पक्षधर लोगों को वास्तविक जगत के नियमों के अनुरूप सामाजिक समीकरण को विश्लेषित करने के लिए प्रेरित किया.
इस पुस्तक में कुल नौ अध्याय हैं. पहले अध्याय में मार्क्स के व्यक्तित्व के निर्माण में यूनानी काव्य और दर्शन का प्रभाव देखा जा सकता है. मार्क्स ने जिस द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का विकास किया, वह पुराने भौतिकवाद से जुड़ा हुआ है. वस्तुत: विचार शून्य में जन्म नहीं लेते. उनके आधार होते हैं. मार्क्स के विचारों को भी मार्क्स के पूर्ववर्ती दार्शनिकों ने प्रभावित किया. एपिकुरुस के दर्शन ने मार्क्स की धार्मिक मान्यताओं को प्रभावित किया, ‘जहां तक द्वंद्ववादी तर्क पद्धति का सवाल है, मार्क्स ने हेगल से बहुत कुछ ग्रहण किया, किंतु जहां तक भौतिकवादी दर्शन का सवाल है, वह हेगल की अपेक्षा एपिकुरुस के निकट ज्यादा है.’
1838 में मार्क्स ने शोध कार्य के लिए यूनानी दर्शन पर अपना प्रबंध लिखा था, भूमिका में उसने एपिकुरुस की मान्यता को उद्धृत किया था, ‘पापी वह नहीं है, जो जनसाधारण द्वारा पूजित देवताओं को अस्वीकार करता है, पापी वह है जो इन देवताओं के बारे में उन बातों की पुष्टि करता है, जिन पर जनसाधारण को विश्वास है.’ बाद के दिनों में मार्क्स ने धर्म के संबंध में जो कुछ भी कहा, उसका मूल यहां देखा जा सकता है.
दूसरे अध्याय में सौदागरी पूंजी की विशेषताओं का वर्णन है. तीसरे अध्याय में भारतीय ग्राम समाजों का विवेचन है. यूरोप और जर्मन ग्राम समाज के साथ भारतीय ग्राम समाज का तुलनात्मक वर्णन है. भारतीय इतिहास के विश्लेषण में हम कैसे महत्वपूर्ण तथ्यों को नजरअंदाज करते हैं, इसका भी उल्लेख है. इनके अभाव में हम अपने देश के अतीत के साथ न्याय नहीं कर पाते, न सांगोपांग उसका विश्लेषण कर पाते हैं. मसलन, भारत-यूरोप के अतीत की तुलना करते समय हम यह भूल जाते हैं कि 17वीं सदी में भारतीय व्यापारी कपड़ा बेचते थे और यूरोप के व्यापारी गुलाम बेचते थे. इस अंतर पर भारतीय इतिहास के विवेचक ध्यान देते, तो यूरोप के पुनर्जागरण काल और भारत के मध्यकाल में कहां का अर्थतंत्र अधिक विकसित है.
चौथे अध्याय में प्राचीन मध्यकालीन भारत की अकूत पूंजी एवं बार-बार विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा लूटे जाने पर भी उस पूंजी के निरंतर सृजन पर विचार किया गया है. तत्कालीन रोम और यूनान से भारत किन संदर्भों में अलग व विकसित था, इसका विवेचन है. ‘रोम-यूनान और भारत के आर्थिक विकास में अंतर यह है कि रोम-यूनान में पगारवाली प्रथा गौण थी, भारत में वह प्रधान थी, रोम-यूनान में दासों का श्रम प्रधान था. भारत में वह गौण था. रोम-यूनान में दास प्रथा का फिर व्यापक चलन न हुआ, इसलिए लगभग हजार साल तक वहां उद्योग-व्यापार केंद्र कायम ही न हुए. भारत में कभी पूरी तरह पगारवाले श्रम तथा नाश नहीं हुआ, इसलिए बार-बार लूटे जाने पर भी उद्योग-व्यापार केंद्र फिर विकसित हुए.’
प्राचीन भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक परस्थितियों को समझने की दृष्टि से कौटल्यि के ‘अर्थशास्त्र’ की सविस्तार चर्चा इस अध्याय में है. मनुस्मृति, स्मृतिग्रंथ और जातक कथाओं के संदर्भ में तत्कालीन समाज को निरखने-परखने की गंभीर कोशिश की गयी है. इस पुस्तक की यह विशिष्टता है कि लेखक अपने धरातल पर खड़े हो कर चीजों का सांगोपांग विवेचन करता है. जिन प्राचीन पुस्तकों को हम बिना पढ़े दकियानूसी करार देते हैं, उनके आधार पर तत्कालीन समाज को बेहतर ढंग से समझने की कोशिश इसमें की गयी है.
पांचवें अध्याय में हेगल की स्थापनाओं को मूल बना कर मार्क्स पर उसके प्रभाव का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है. छठा अध्याय मजदूर, किसान और जनवादी क्रांति से संबंधित विभिन्न पक्षों पर मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के विचारों पर सार संक्षेप है. अगले अध्याय से क्रांति के बाद सर्वहारा अधिनायकवाद, राज्य सत्ता में सर्वहारा पार्टी की भूमिका, फासिस्ट तानाशाही से लड़ने के दांवपेंच, राज्यसत्ता के दो रूपों जनतंत्र और तानाशाही को अलग करने की आवश्यकता आदि बातों की चर्चा है.’
आठवें अध्याय में ‘दूसरे महायुद्ध के बाद की अंतरराष्ट्रीय परस्थिति को ध्यान में रखते हुए’ लेनिन की मान्यताओं, रूस और पूरब की क्रांतियां नयी जनवादी क्रांति और पूंजीवादी वर्ग, नया जनतंत्र और समाजवाद की ओर संक्रमण तथा रूसी क्रांति और भारत के बारे में विचार किया गया है. अंतिम भाग यानी उपसंहार में ‘मार्क्सवादी अध्ययन से संबंधित समस्याओं का उल्लेख है.’
एशियाई उत्पादन प्रणाली को मार्क्स आदिम समाज की उत्पादन पद्धति से ही जोड़ते हैं. भारत पर मार्क्स के लिखे निबंधों से साफ लगता है कि उनका भी मानना था कि पिछड़े, बर्बर, असभ्य और भोंदू लोगों को सभ्य, सलीकेदार बनने का औजार ब्रिटेन के पास ही है. पुस्तक की भूमिका में ही इस विवादास्पद प्रसंग की चर्चा है, ’उद्योग प्रधान पूंजीवादी देशों के विकास में पिछड़े हुए देशों की आर्थिक भूमिका सतह के ऊपर नहीं दिखाई देती, उसी तरह यूरोप के तकनीकी विकास में एशिया की भूमिका दिखाई नहीं देती. पिछले तीस चालीस साल में ऐसा काफी शोधकार्य हुआ है, जिससे यूरोप के वैज्ञानिक और तकनीकी विकास में एशिया के योगदान का पता चलता है.’
डॉ रामविलास शर्मा अपनी पूर्व पुस्तकों भारत में अंगरेजी राज और मार्क्सवाद (दो खंड) में भी अंगरेजी राज की भारत में प्रगतिशील भूमिका नहीं मानते. कट्टर साम्यवादी पूर्वाग्रहों से मुक्त होने के कारण ही रामविलास जी के लेखन-चिंतन में स्पष्टता है. इस कारण इनकी पुस्तकों-विचारों में जड़ता नहीं है. एक स्वतंत्र मार्क्सवादी चिंतक की हैसियत से पुराने जड़ मार्क्सवादी चौखटे से बाहर निकल कर उन्होंने तत्कालीन भारतीय परस्थितियों में ऐतिहासिक तथ्यों का मूल्यांकन किया है, जो वामपंथी अभी भी अतीत में अंगरेजों के मुकाबले भारतीयों को बर्बर, असभ्य और आदिम होने का फतवा देते हैं, उन्होंने तथ्यों को सही ढंग से समझने की कोशिश नहीं की है.
इस पुस्तक की भाषा संबंधी अशुद्धियों के संबंध में हिंदी के कुछ प्रतिष्ठित लेखकों ने जोरशोर से सवाल उठाये हैं. उनकी नजर में भाषा संस्कार विकसित करने का काम यह पुस्तक नहीं करती. लिंग संबंधी अशुद्धियां, वर्तनी में एकरूपता का अभाव, विदेशी व्यक्तियों-स्थानों के नामों में विभिन्नता, शब्दों के चुनाव में सावधानी और गंभीरता का अभाव और अनावश्यक कथन जैसी गंभीर चूकों की ओर इन आलोचकों ने पाठकों का ध्यान खींचा है. वस्तुत: भाषा अनुशासन का जो काम हिंदी के भाषाविदों और प्रखर विद्वानों द्वारा संपन्न होना था, वह हिंदी में हुआ ही नहीं. इसके लिए किसी एक को दोषी ठहराना गलत है. एक शब्द अलग ढंग से लिखा व प्रयोग किया जाता है.
इस कारण हिंदी का कोई मानक रूप अभी भी विकसित नहीं हो पाया है. लिंग संबंधी अशुद्धियों के मूल में हिंदी में एकरूपता व स्पष्ट निर्देशन का ही अभाव है. इसका दायित्व हिंदी के जिन भाषाशास्त्रियों को है, वे ही अपना दायित्व दूसरों पर थोपें, तो हिंदी कैसे समृद्ध होगी? वस्तुत: भाषाविदों ने इस पुस्तक की जिन भूलों की ओर पाठकों का ध्यान खींचा है, वे किसी एक पुस्तक की नहीं, बल्कि पूरे हिंदी लेखन की हैं. भारतीय भाषाओं के नामों को इस हिंदी में तरह-तरह से लिखते हैं, यही हाल विदेशी संज्ञाओं-नामों या शब्दों के साथ है, फिर इस पुस्तक को ही इसके लिए दोषी करार करना कहां तक तर्कसंगत है?
डॉ रामविलास शर्मा हिंदी के चुनिंदा प्रखर चिंतकों में से एक हैं. वस्तुत: साठ और सत्तर के दशक में सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में गंभीर मुद्दों के विश्लेषण और विभिन्न वादों की गहराई में जा कर छानबीन की, जो प्रक्रिया हिंदी में चल रही थी, बाद के दिनों में इस धारा से वह तासीर और तेजी नहीं रही. आर्थिक सवालों, भारत के अतीत-पुनर्जागरण, विभिन्न वादों और दर्शन के गूढ़ विषयों पर मनन-चिंतन, बहस-मुबाहसा की जो धारा हिंदी में क्षीण होने लगी थी, उसे जिन लोगों ने जिलाये रखा है, उसमें डॉ रामविलास शर्मा प्रमुख हैं. इस विषय पर उन्होंने जो पुस्तकें लिखी हैं, उससे हिंदी समृद्ध हुई है.