-हरिवंश-
‘हिंदी के नैसर्गिक विकास में सबसे बड़ी बाधा खुद सरकार है. स्वतंत्रता के बाद से आज तक हिंदी के विकास के नाम पर तकरीबन 2800 करोड़ रुपये सरकार ने खर्च किये. इससे हिंदी की हालत तो नहीं सुधरी है, लेकिन हिंदी के तथाकथित समर्थकों का आर्थिक कायापलट अवश्य हुआ है. हकीकत यह है कि सरकारी देखरेख में जिस हिंदी के विकास का ढोंग हो रहा है, वह हिंदी, अंगरेजी से भी क्लिष्ट है. वस्तुत: हिंदी को खत्म करने का काम तो खुद सरकार कर रही है. हरिवंश का विश्लेषण.
सरकारी संरक्षण में नयी हिंदी (सरकारी भाषा) पनप रही है. इस भाषा में बड़े पैमाने पर सरकारी कामकाज हो रहे हैं. प्रतिवर्ष इसे समृद्ध बनाने में करोड़ों रुपये व्यय किये जा रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद से अब तक तकरीबन 2800 करोड़ रुपये हिंदी को विकसित करने के लिए सरकार खर्च कर चुकी है. इस भाषा की खूबी है कि यह ‘चीनी’ (दुनिया की सबसे कठिन भाषा) से भी कठिन है और इस भाषा का ईजाद करनेवाले खुद उसे नहीं समझते. ‘हिंदी सप्ताह’ के दौरान दिल्ली के विभिन्न मंत्रालयों में एक व्यक्तिगत सर्वे किया गया. सर्वे के अनुसार हिंदी भाषा-भाषी अधिकारियों ने स्वीकार किया कि उन्हें मौजूदा सरकारी हिंदी समझ में नहीं आती. वे बोलचाल की हिंदी में काम करना पसंद करेंगे. लेकिन ऐसा हिंदी को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है.
संविधान बनने के पूर्व हिंदी को राजभाषा बनाने की दलील देनेवाले दो खेमों में बंटे थे. एक समूह संस्कृतनिष्ठ हिंदी का पक्षधर था, दूसरा हिंदुस्तानी का. हिंदुस्तानी में उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से आये शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग होता था. गांधी जी भी ऐसी भाषा के ही पक्षधर थे. नेहरू भी इसे ही तरजीह देते थे. दूसरे खेमे के लोगों को हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्दों के प्रयोग से परहेज था. फिलहाल सरकार की देखरेख में जिस हिंदी का विकास हो रहा है, वह इन दोनों से अलग है और एक नयी धारा है.
यह धारा लोकोन्मुख नहीं, लोक विपरीत है. जो भाषा अपने आधार से कट जाती है, वह जीवंत नहीं रहती और धीरे-धीरे मर जाती है. संस्कृत के पराभव और संपन्नता पर गौर करें, तो यह स्पष्ट होगा. संस्कृत में वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, रामायण, महाभारत और न जाने कितनी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं. लेकिन इस समृद्ध भाषा का अस्तित्व खतरे में है. भाषा का क्लिष्ट होना उसकी लोकप्रियता और स्थायित्व की गारंटी नहीं है. अगर ऐसा होता, तो आज विश्व में लैटिन, ग्रीक, संस्कृत-चीनी भाषाओं का ही बोलबाला रहता. भाषा की जीवंतता की पहली और महत्वपूर्ण शर्त है कि वह लोक से न कटे. जिस क्षण भाषा बौद्धिकों-विद्वानों की गिरफ्त में आ जाती है, वह मरने लगती है.
वस्तुत: करोड़ों की लागत से जो कठिन सरकारी हिंदी विकसित की जा रही है, वह चलनेवाली नहीं है. न उसमें सरकारी कामकाज हो सकता है, न वह लोकभाषा बन सकती है. वस्तुत: यह हिंदी के साथ एक षडयंत्र है. अब सरकारी बुद्धिजीवी यह फतवा दे रहे हैं कि यह भाषा व्यावहारिक नहीं है, कठिन है, अत: यह राजभाषा नहीं हो सकती. सरकारी देखरेख में हिंदी को न तो संस्कृत की तरह परिमार्जित किया जा रहा है और न ही इसका फलक व्यापक बनाया जा रहा है. हां, अशुद्ध, अनुवाद, जटिल और अस्पष्ट शब्दों के प्रयोग और समझ में न आनेवाले वाक्य सरकारी हिंदी को न समृद्ध कर रहे हैं, न लोकप्रिय बना रहे हैं, बल्कि इसकी जड़ों पर प्रहार कर रहे हैं.
दूसरी भाषाओं के सरल और सहज शब्दों को अपनाने में हिंदी का एक बड़ा तबका संकोच करता है. वस्तुत: भाषा की समृद्धि का यह राज है कि वह विकास की प्रक्रिया में दूसरी भाषाओं के शब्दों को पचा लेती है. यह भाषा की कमी नहीं, उसकी विशेषता है. 1752 के आसपास चंद हजार शब्द अंगरेजी की कुल संपदा थे. फिलहाल उसके पास 18-20 फीसदी शब्द हैं, इनमें 40 फीसदी शब्द लैटिन, ग्रीक और फ्रेंच से अंगरेजी में आये हैं. वनस्पतिशास्त्र में सभी पौधों के नाम लैटिन हैं, अब सरकारी हिंदी में रिक्शा के लिए ‘नरयान’ और ‘स्टेशन’ के लिए ‘स्थात्र’ जैसे शब्दों के प्रयोग हो रहे हैं. सरकारी परिपत्रों के हिंदी अनुवाद समझ में नहीं आते. यह हिंदी के पक्षधरों को भूलना नहीं चाहिए कि अंगरेजी में बहुत सारे हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों इस्तेमाल हो रहे हैं. इन शब्दों का प्रयोग अंगरेजी के प्रतिष्ठित अखबार-पत्रिकाएं भी इंग्लैंड में करती हैं, ‘आना’, ‘बनिया’, ‘बख्शीश’, ‘घेराव’, ‘सत्याग्रह’, ‘डैम’, ‘कैश’ जैसे शब्द अंगरेजी में भारतीय भाषाओं से ही गये हैं.
अंगरेजी भाषा की विशेषता स्थानीय भाषाओं से एकाकार होने की रही है. कभी फ्रेंच, इंग्लैंड की प्रमुख भाषा थी. लेकिन फ्रेंच भाषाशास्त्रियों ने फ्रेंच भाषा की शुद्धता, सौंदर्य और विशिष्टता बनाये रखने के चक्कर में दूसरी भाषा के शब्दों को अछूता समझा. परिणाम, जो फ्रेंच कभी अंगरेजी से अधिक संपन्न थी, विकासक्रम में वह पिछड़ गयी और अब हालत यह है कि अंगरेजी उसे बहुत पीछे छोड़ गयी है.
‘विक्टोरिया युग’ के दौरान ही भारतीय भाषाओं के शब्द अंगरेजी में व्यवहृत होने लगे थे. मसलन, ‘केल्को कपड़ा’ आदि. अंगरेजों के आने के तकरीबन 50 वर्ष बाद अंगरेजी की पढ़ाई इस देश में आरंभ हुई. इन 50 वर्षों में हजारों भारतीय भाषाओं के शब्द अंगरेजी में ‘स्वीकृत’ हुए. प्रसिद्ध भाषाशास्त्री जी सुब्बाराव ने अपने शोध में यह निकर्ष निकाला है कि 17वीं शताब्दी तक करीब 300 शब्द ‘ऑक्सफोर्ड इंगलिश शब्दकोष’ में भारतीयमूल के थे.
फिलहाल अनुमान है कि 2,000 भारतीय मूल के शब्द इस शब्दकोष में हैं. यह अंगरेजी का प्रतिष्ठित शब्दकोष है. इस देश में आने के बाद से ही अंगरेज ‘करी’ खाने लगे थे. ‘बंगलों’ के ‘बरांडों’ में बैठ कर ‘चुरुट’ पीते थे. ‘नवाब’, ‘बाबू’ और ‘आया’ लोगों अंगरेजों का दैनंदिन संपर्क था. अंगरेजी बहुत ही लचीली भाषा है. इस कारण इसे स्थानीय शब्दों को अपनी धारा में समाहित कर दिया. हिंदुस्तान में बंगला, तमिल और पंजाबी भाषी लोग अलग-अलग ढंग से अंगरेजी बोलते-बतियाते हैं.
पिछले वर्ष आरइ हॉकिंस की पुस्तक ‘कॉमन इंडियन वर्ड्स इन इंग्लिश’ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुई. इस कोश में 2,500 भारतीय मूल के शब्द लिये गये हैं. ‘अंत्योदय’, ‘चालू’ ‘चमचा’, ‘चार सौ बीस’, ‘दिक करना’, ‘फालतू’, ‘गोलमाल’, ‘हुकुम’, ‘लफंगा’ और ‘तकरार’ जैसे भारतीय मूल के शब्द अंगरेजी शब्दकोष में शामिल कर लिये गये हैं. देवयानी चौबल ‘स्टार स्टाइल’ की लोकप्रिय स्तंभकार हैं. वह ‘लिपटाना’, ‘बेटी’ आदि जैसे तमाम हिंदी के लोकप्रिय शब्दों का अंगरेजी में हूबहू इस्तेमाल करती हैं. देवयानी का लेखन काफी लोकप्रिय है.
इसलिए हिंदी के हित में है कि दूसरी भाषाओं के लोकप्रिय और स्वीकृत शब्दों में हिंदी में बिना हिचक प्रयोग हों. मसलन बैंक, चेक, स्टेशन जैसे शब्दों के हिंदी पर्याय ढूंढ़ने से हिंदी की जड़ें कमजोर होंगी. हां, हिंदी में एक नया वर्ग भी पनप रहा है, जो हिंदी में व्याकरण की अशुद्धियों की परवाह नहीं करता और अंगरेजी के शब्दों के हूबहू प्रयोग को बढ़ावा दे रहा है. मसलन ‘वह गोज’, लिखनेवालों का भी एक वर्ग हिंदी में पनप रहा है. उसे वर्तनी की शुद्धता और व्याकरण-लिंग से बिल्कुल परहेज है. अंगरेजी के शब्दों का हिंदी में धड़ल्ले से प्रयोग करना वह शान समझता है, इस प्रवृत्ति पर अंकुश आवश्यक है.
सरकार द्वारा हिंदी को भ्रष्ट बनाने का काम कई स्तरों पर हो रहा है. गृह मंत्रालय के अंतर्गत एक अलग राजभाषा विभाग है. केंद्र सरकार के अन्य विभागों की तरह यहां भी वरिष्ठ अधिकारी तैनात किये जाते हैं. दिेल्ली में यह कहा जाता है कि जिस नौकरशाह का कोई आका नहीं है, या जो अनेक वर्ष दिल्ली में गुजार कर भी बाहर नहीं जाना चाहते हैं, उन्हें राजनीतिक संरक्षण से इस विभाग में पनाह मिलती है. पिछले वर्ष आयकर विभाग के एक अधिकारी दिल्ली में ही नियुक्ति चाहते थे. उन्होंने अपने राजनीतिक आकाओं की मदद ली. इस विभाग में उन्हें एक वरिष्ठ पद मिल गया, जिन्हें हिंदी की समझ ही नहीं है. ऐसे लोगों से भाषा को निखारने की उम्मीद कहां तक तर्कसंगत है. फिलहाल इस विभाग के लोगों को अधिकार मिला है कि वे सार्वजनिक उपक्रमों और सार्वजनिक प्रतष्ठिानों में जाकर समय-समय पर हिंदी में कामकाज की समीक्षा करें, लेकिन इस अवसर का लाभ से लोग तफरीह या व्यक्तिगत कामों के लिए करते हैं. सरकारी प्रतिष्ठान इनका खर्च वहन करते हैं. हां राजभाषा विभाग के संयुक्त सचिव देवेंद्रचरण मिश्र ने हिंदी को गंभीरता से लागू करने का प्रयास किया है.
गृह मंत्रालय के अंतर्गत ही हिंदी शिक्षण योजना विभाग है. इसे गैर हिंदी भाषा भाषी लोगों को हिंदी पढ़ाने के उद्देश्य से आरंभ किया गया. इसकी शाखाएं पूरे देश में हैं. बंबई बेलार्ड पियर में भी इसकी शाखा है. जनवरी 1986 में इस कार्यालय की उप निदेशक श्रीमती नाज राव का देहांत हो गया, तब से यह पद रिक्त है. इस कार्यालय में न पर्याप्त टाइपराइटर हैं, न प्रशिक्षक. देवनागरी टाइपराइटर काफी पुराने हैं. नीलामी हुई, तो इन्हें किसी ने खरीदा ही नहीं. यहां प्रशिक्षार्थियों को अपने साथ बाहर से टाइपराइटर ला कर हिंदी टाइप सीखने की सलाह दी जाती है. बैठने तक की समुचित व्यवस्था नहीं है. कमोबेश पूरे देश में ये कार्यालय ऐसे ही हैं. भारत सरकार के नियमानुसार सरकारी कार्यालयों से एक निश्चित संख्या में प्रति छह माह बाद लोगों को प्रशिक्षण के लिए यहां नामजद किया जाना है. लेकिन कोई भी यहां प्रशिक्षार्थियों को नहीं भेजता. हां! सरकार अवश्य करोड़ों रुपये इस योजना पर व्यय कर रही है. राजभाषा विभाग के अदिकारी या संसदीय समिति के सदस्य अपने दौरों में यह सवाल नहीं उठाते कि सरकार जब लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, फिर भी सरकार के नियमानुसार लोगों को हिंदी सीखने के लिए नामजद क्यों नहीं किया जाता? केंद्र सरकार के कार्यालयों या स्वायत्त संगठनों में हिंदी के नाम पर भयंकर त्रुटियां हो रही हैं. आकाशवाणी (कलकत्ता) से जो द्विभाषी कांट्रेक्ट फार्म प्रसारकों के पास भेजा जाता है, उस दो पेज के फार्म में हिंदी खंड में 158 गलतियां हैं. आठों शर्तें समझ रहे हैं.
केंद्र सरकार के कार्यालयों में भी हिंदी में काम करनेवालों की एक बड़ी तादाद है. वहां अनुवाद कार्य की गणना यूनिट में की जाती है. किसने-कितने यूनिट काम किये, यही बताना पर्याप्त है. वह अनुवाद कितना उपयोगी, शुद्ध और स्पष्ट है, इससे किसी को ताल्लुक नहीं. 1950 में ही भारत सरकार ने वैज्ञानिक शब्दावली आयोग का गठन किया था. इस विभाग का काम वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दों के हिंदी पर्याप्त ढूंढ़ना था. इस आयोग ने अनेक कोश बनाये. सरकारी कार्यालयों और सरकारी मालगोदामों में दीमक इन कोशों का उपयोग कर रहे हैं. शब्दावली निर्माण के पीछे कोई संकुचित योजना नहीं थी, जिसे जो मन आया, शब्द, बना दिया. केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो के अनुवाद को समझना भी आसान नहीं है.
राजभाषा संसदीय समिति में लोकसभा के 20 और राज्यसभा के 10 सदस्य होते हैं. हिंदी के कामों की समीक्षा के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण समिति है. पिछले दिनों यह समिति बंबई गयी. सरकार की ओर से पहले ही समिति के कार्यक्रम की पूर्व सूचना भेजी जा चुकी थी. यह समिति सेंट्रल बैंक, एक्जिम बैंक, रिजर्व बैंक, हिंद साइकिल, राष्ट्रीय केमिकल्स फैक्टरी के मुआयने के लिए बंबई पधारी थी. इन कार्यालयों की ओर से सदस्यों को फाइव स्टार होटल में ठहरने का प्रबंध था. इसे ‘फाइव स्टार समिति कहते भी हैं. सेंट्रल बैंक ने इन सदस्यों को घड़ियां भेंट दीं. हिंद साइकिल ने साइकिलें दीं, तो सदस्यों ने कहा कि दिल्ली में हमारे निवास पर इन साइकिलों की ‘डिलिवरी करा दें.’ यूनाइटेड बैंक ने ‘कलम’ भेंट की, तो सदस्यों ने नाराजगी जाहिर की. ये सदस्य जब तक शहर में होते हैं, सरकारी कार्यालयों की ओर से अधिकारियों-कारों का काफिला इनके स्वागत में तत्पर रहता है. हां! चूंकि इन व्यस्त सदस्यों के पास समय का अभाव होता है, अत: किसी संस्थान में ये आधे-एक घंटे से अधिक समय निरीक्षण में नहीं लगाते. एक दिन में बमुश्किल दो जगह का मुआयना करते हैं. हां, घूमने, मौज-मस्ती करने और नवाबी रौब गालिब करनेवाले इन सदस्यों का एक मामूली फर्ज भी है – राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट दाखिल करने का. लेकिन सन 86 तक देश में अनेक जगह दर्जनों बार यात्रा कर लेने के बाद भी आज तक राष्ट्रपति के पास रिपोर्ट नहीं पहुंच सकी है.
देश के 28 सार्वजनिक बैंकों और तकरीबन उनकी 52 हजार शाखाओं में हिंदी के नाम पर जो व्यापार हो रहा है, उसका एक ही उदाहरण पर्याप्त है. यूनियन बैंक में हिंदी के प्रभारी अधिकारी हैं, डॉ. एस. पवार. श्री पवार के एक मित्र हैं, पीके पाठक, जो भोपाल में वकील हैं. श्री पवार यूनियन बैंक के मुख्यालय बंबई में कार्यरत हैं. उन्होंने एक पत्र (केका /रामा /जसिंप /113/4963 दिनांक 24 नवंबर 1984) के माध्यम से श्री पाठक को 1894 पृष्ठों के अनुवाद का कार्य सौंपा. अनुवाद का पारिश्रमिक प्रति पृष्ठ 40 रुपये रखे गये. इसके पूर्व भी इसी दर पर उन्हें काफी अनुवाद कार्य सौंपा गया था. कई लाख रुपये के अनुवाद का काम श्री पाठक को दिया गया. साथ ही उन्हें निर्देश दिया गया कि इस संबंध में वे इसी बैंक के भोपाल स्थित राजभाषा अधिकारी विमल मेहता के संपर्क करें. श्री पाठक ने कुछ हिस्से का अनुवाद कर भोपाल के यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के राजभाषा अधिकारी श्री विमल के पास भेजा.
4 मार्च 1986 को विमल ने (केका/ रामा/ 113/1912) अपने लंबे पत्र में अपने केंद्रीय कार्यालय को सूचित किया कि अनुवाद सरासर गलत, अस्पष्ट और भ्रामक है. कुछ अंगरेजी के शब्दों एवं उनके लिए प्रयुक्त कठिन हिंदी शब्दों का उल्लेख भी किया. मसलन अनुवाद में अंगरेजी शब्दों के निम्न पर्याय दिये गये थे. वर्किंग-कार्यकरण, रिमार्क-अभियुक्तियां, फॉलोऑप-अनुप्वर्तन, इनकर्ड-उपगत, हैंडलिंग चार्जेज-संभाल प्रभार.
फिर भी श्री पाठक को पवार अनुवाद कार्य सौंपते जा रहे हैं. हां! उनके द्वारा इस प्रकार के किये जानेवाले घटिया अनुवादों की जांच में इस बैंक के राजभाषा अधिकारी पिछले साल से लगे हैं और इस नये सिरे से कर रहे हैं. लाखों की लागत किये गये अनुवाद कार्यों की अब छपाई हो रही है (हालांकि जब तक ये चीजें छप कर आयेंगी, बैंक के लिए अनुपयोगी हो जायेंगी. कारण बैंक के नियमों में बराबर परिवर्तन होते रहे हैं.) गौर करने की बात है कि बैंकों में अनुवाद कार्य की देखरेख के लिए ही राजभाषा अधिकारियों की तैनाती होती है, तो फिर ये काम बाहर किसी को कैसे दिये जा सकते हैं. अगर अनुवाद बढ़िया ही कराना है, तो उसे कोई वकील करेगा या हिंदी व बैंकिंग व्यवस्था के जानकार व्यक्ति करेगा? श्री पवार अपने अनेक कारनामों के लिए यूनियन बैंक में चर्चित हैं. राजभाषा अधिकारी हिंदी कार्यशालाओं को सैर के लिए उपयुक्त अवसर मानते हैं. अपने छोटे बच्चों के साथ प्रशिक्षक, राजभाषा अधिकारी कार्यशालाओं में मौजूद रहते हैं. यह तो एक नजीर है. हिंदी के नाम पर सरकारी कार्यालयों में सौदेबाजी-व्यापार करनेवालों की ही भरमार है.
बंबई, दिल्ली में हिंदी के नाम पर बैंकों में रोज नये-नये कारनामे हो रहे हैं. कुछ राजभाषा अधिकारियों ने मिल कर फरजी अनुवाद एजेंसियां गठित कर ली हैं, वस्तुत: इन एजेंसियों को ये. लोग ही फरजी नामों से चलाते हैं. अपने कार्यालयों से लाखों रुपये का अनुवाद कार्य इन फरजी एजेंसियों को देते हैं. फिर एजेंसियों से लेकर स्वयं घटिया और फिजूल अनुवाद करते हैं. इस काम के लिए कमीशन तय रहता है. इस तरह फरजी एसेंसियों के नाम पर ये लोग कई लाख रुपये डकार चुके हैं.
बैंकों, सरकारी उपक्रमों में राजभाषा कार्यान्वयन समिति की त्रैमासिक बैठक होती है. जब जहां मन हुआ. बैठक तय कर ली. हवाई यात्राएं कीं. एकाध घंटे चर्चा कर बैठक की खानापूर्ति कर ली. हिंदी के नाम पर ऐसे ही सरकारी उपक्रमों में हो रहे हैं. जो परिपत्र या अन्य अनुवाद हो रहे हैं, उन्हें बैंक में न कोई पढ़ाता है, न समझता है. इस सरकारी खानापूर्ति के नाम पर करोड़ों-अरबों का व्यय कहां तक न्यायसंगत है? हां! कुछ बैंकों में कार्यरत हिंदी अधिकारी हिंदी में कामकाज संबंधी पुस्तकें भी धड़ल्ले से लिख रहे हैं, फिर तिकड़म कर बैंकों में ये पुस्तकें बिकवाते हैं. बैंकों की हजारों शाखाएं हिंदी में कामकाज को बढ़ावा देने के नाम पर इन पुस्तकों को खरीदती हैं. इस तरह लाखों की राशि लेखक (हिंदी अधिकारी) उदरस्थ कर जाते हैं.
भारत सरकार ने हाल ही में निर्णय लिया है कि विदेशों में नियुक्त भारतीय राजदूत, केंद्रीय मंत्री, संसदीय दल अब विदेशी अतिथियों से हिंदी में बातचीत करेंगे. विदेश मंत्रालय और भारतीय दूतावास अनुवादकों की व्यवस्था करेंगे, लेकिन यह हिंदी कौन-सी है, जिसके माध्यम से सरकार अपना कामकाज करना चाहती है? यह वही सरकारी हिंदी है, जिसे समझना चीनी भाषा सीखने जैसा प्रयास करना है. अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी में भाषण दिया था, उस पर मात्र 50 करोड़ रुपये खर्च हुए, लेकिन इससे हिंदी को सरकारी कामकाज में बढ़ावा देने में कहां तक मदद मिली? आलम तो यह है कि सरकार गंभीरता से हिंदी के बारे में सोचती ही नहीं है.
हाल ही में पुष्पेंद्र चौहान नामक एक युवक ने एम.एम.एच. कॉलेज गाजियाबाद से विधि स्नातक की परीक्षा हिंदी माध्यम से उत्तीर्ण की. दिल्ली में वकालत करने के लिए श्री चौहान ने दिल्ली बार काउंसिल में पंजीकरण हेतु आवेदन दिया. लेकिन उन्हें कहा गया कि बार काउंसिल द्वारा आयोजित अंगरेजी की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर आपको वकालत करने की अनुमति दी जा सकती है. अलीगढ़ मुसलिम विद्यालय के शाहिद हुसैन अपना शोधपत्र हिंदी में लिखना चाहते थे, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें इजाजत नहीं दी. शाहिद हुसैन का हिंदी में शोधपत्र देने संबंधी आवेदनपत्र विश्वविद्यालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में पड़ा है. हाल ही में दिल्ली नगर निगम का एक सात सदस्यों का प्रतिनिधिमंडल हिंदी को बढ़ावा देने के उपायों को तलाशने के लिए कलकत्ता व मद्रास की यात्रा कर वापस लौटा. एक तरफ सरकार हिंदी के नाम पर मौजमस्ती के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रही है. दूसरी ओर हिंदी में वकालत करने, कुछ संस्थानों में हिंदी में शोध लिखने पर भी अभी पाबंदी है.
सरकार अगर लोकसभा हिंदी को राजभाषा बनाना चाहती है, तो सबसे पहले उसे शब्दों के प्रयोग में एकरूपता की कोशिश करनी चाहिए. मसलन ‘एक्जीक्यूटिव इंजीनियर’ के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश में अलग-अलग हिंदी पर्याय इस्तेमाल किये जाते हैं. ऐसे लाखों शब्द हैं. आज सरकार के जो करोड़ों रुपये, निरर्थक अनुवाद, संसदीय समितियों के दौरे, हिंदी के नाम पर विभिन्न समितियों की अनावश्यक बैठकों में खर्च हो रहे हैं. इस पैसे का सही उपयोग हिंदी में एकरूपता लाने की दिशा में हो सकता है. प्रबंध-कंप्यूटर और उन्नत तकनीकी क्षेत्रों के अनुरूप सरल और सहद हिंदी विकसित करने के लिए कोश का उपयोग हो सकता है.
स्वतंत्रता की लड़ाई में लोकभाषा को मजबूत बनाने का आग्रह इस पद तक था कि गांधी ने अपने पुत्र देवदेश गांधी को हिंदी शिक्षक के रूप में मद्रास भेजा था. राजगोपालाचारी और रामास्वामी नायर के घरों में हिंदी की कक्षाएं लगती थीं. उस समय इस मुद्दे को इतना महत्वपूर्ण क्यों माना गया? इस सवाल पर ठंडे दिमाग से हमने कभी सोचा ही नहीं है. साम्राज्यवाद के पहले चरण में वर्ग विभाजन और श्रेष्ठता की पहचान की मूल मापदंड थी, लैटिन भाषा, श्रेष्ठ वर्ग में लैटिन भाषा-भाषी बौद्धिक ही गिने जाते थे. बाद में इंग्लैंड में लैटिन को दरकिनार कर वहां अंकरेजी को प्रतिष्ठित किया गया. फिर अंगरेजी भी सामाजिक विषमता, वर्ग-वैमनस्य पैदा करने की भूमिका निभाने लगी. यह साम्राज्यवाद का दूसरा चरण था. गांधी के लोकतंत्र में शासक और शासित एक ही धरातल पर खड़े हो, यह मूल कल्पना थी. इसलिए उन्होंने लोकभाषा की वकालत की.
चेतना जगाने, बदलाव लाने में जनभाषा के महत्व को हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने समझा था. उन्होंने पाया कि जो संस्कृत प्राचीन काल में मध्य एशिया, तुर्कस्तिान, अफगानस्तिान तथा दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैली थी, ताकतवर वैदिक धर्म की जो भाषा वाहक थी, उसे व्याकरण और साहित्य की दृष्टि से अविकसित व पिछड़ी लोकभाषाओं प्राकृत एवं पाली ने उखाड़ फेंका. पाली तो तकरीबन पूरे एशिया में छा गयी थी. बौद्ध धर्म और जैन धर्म की सफलता का मुख्य कारण लोकभाषा के माध्यम से जनता के बीच उनकी पहुंच थी. नोबेल पुरस्कार विजेता गुन्नार मर्डिल जैसे अर्थशास्त्री भी यह कह गये कि भारत को गरीबी दूर करने में तभी सफलता मिलेगी, जब देशी भाषा में कामकाज आरंभ होगा. तमिलनाडु में अगर हिंदी का विरोध होता है, तो हम गुस्से में उबलते हैं, लेकिन हमने कभी अपने घर में हिंदी के साथ अच्छा सलूक किया!
हाल ही में गिरिलाल जैन ने अपने एक लेख में यह स्वीकार किया है कि इस देश के चारों महानगरों में सिमटे लोग वाकिफ नहीं हैं कि अंगरेजी की जड़ें कमजोर हो रही हैं और विकल्प के रूप में हिंदी तेजी से उभर रही है. साथ ही लोकसभा हिंदी और सरकारी हिंदी के बीच खाई निरंतर बढ़ रही है.
भाषा के सवाल पर पूरे देश में लोग नये ढंग से सोचने के लिए तैयार हैं. हाल ही में पूर्व केंद्रीय मंत्री सी. सुब्रह्मण्य ने दो किस्तों में भाषा विवाद पर एक विश्लेषात्मक लेख लिखा था, उसमें उन्होंने आग्रह किया था कि हिंदुस्तानी को तरजीह दी जाये, जिसमें उर्दू, अंगरेजी और स्थानीय भाषाओं के शब्दों का पूर्ण समावेश हो. हां, संस्कृतनिष्ठ हिंदी के नाम पर ऐसी कठिन हिंदी नहीं गढ़ी जाये, जिसे हिंदीवाले भी न समझते हों. साथ ही देवनागरी के साथ-साथ रोमन में भी हिंदुस्तानी लिखने की संवैधानिक मान्यता मिले. इन कदमों को उठाने से श्री सुब्रह्मण्य का विश्वास है कि हिंदुस्तानी को राजभाषा के रूप में स्वीकारने से एक नया माहौल पैदा होगा और हिंदी भाषी राज्य भी इसे स्वीकारेंगे.