-हरिवंश-
फिलहाल पदयात्रा तो शगल है, हर नेता अपने क्षेत्र की पदयात्रा पर है. यहां तक कि कुछ अधिकारी भी पदयात्रा कर रहे हैं. एक राजनेता ने कुछ वर्षों पूर्व कन्याकुमारी से पदयात्रा आरंभ की, तो ‘मीडिया’ में भूचाल आ गया. लगा, इस पदयात्रा से भारत का चेहरा बदल जायेगा. पर बाद के दिनों में यह स्पष्ट हो गया कि इसके राजनीतिक मकसद थे. बाबा आमटे के ‘भारत छोड़ो अभियान’ का राजनीतिक उद्देश्य नहीं है. यह एक संत कर्मयोगी का सामयिक और सच्चा संकल्प है.
इस अभियान में कहीं खोट नहीं है. प्रचार और छवि की दृष्टि से मैगसायसाय पुरस्कार पानेवाले 72 वर्षीय बाबा आमटे ने कन्याकुमारी से यह यात्रा आरंभ नहीं की. सांप्रदायिक दंगों, जातीय हिंसों, धार्मिक उन्माद और संकीर्ण क्षेत्रीयता के खिलाफ जेहाद छेड़ने के लिए आरंभ किया गया यह अभियान भारत को जोड़ने की दिशा में एक ईमानदार प्रयास है. बाबा आमटे ‘स्पांडेलाइटिस’ से ग्रस्त हैं. वह बैठ नहीं सकते, फिर भी इस उम्र में उनकी ऊर्जा-उत्साह की सीमा नहीं. वह मानते हैं कि यह उनकी अंतिम यात्रा है. लेकिन ‘नये भारत के सपने’ को साकार करने के लिए 250 साइकिल सवार युवकों के साथ बाबा आमटे निकल पड़े हैं. ये यात्री जंगलों में ठहरते हैं, खुद खाना पकाते हैं और पास के तालाब और झोलों से पानी पीते हैं.
थैलीशाह इनकी अगवानी में खड़े नहीं मिलते. अखबारनवीस भी इससे निरपेक्ष हैं. तथाकथित ‘बौद्धिकों’ की निगाह नहीं है. लेकिन बाबा आमटे के सहयोगी संकल्पवान हैं. पुणे की डॉ मनीषा लांडे ने बाबा के संकल्पों को गांव-गांव पहुंचाने के लिए अपना घर छोड़ दिया है. मृणाल कुलकर्णी केंद्रीय सरकार की नौकरी छोड़ इस अभियान में भाग ले रही हैं. परमेश्वर, मणिपुर से इस अभियान में शरीक होने आये हैं. कल्पना अपनी चलती वकालत को छोड़ इस अभियान में आ जुटी हैं. 26 वर्षीय सुजाता अपने 18 महीने के शिशु को बंगलूर में अपने पति के पास छोड़, आनंदवन आ गयीं. बाबा आमटे के पास ऐसे ही संकल्पवान और सच्चे लोगों की फौज है. ऐसे ही निष्ठावान युवकों के सहारे वे देश की तसवीर बदलना चाहते हैं. इस अंधेरे में बाबा का यह अभियान एकमात्र रोशनी की किरण है.
संकट के समय संत, फकीर और नि:स्वार्थी लोग ही इस देश-संस्कृति को जोड़ने-समृद्ध बनाने का काम करते रहे हैं. बाबा आमटे ऐसे लोगों की श्रेणी में अंतिम कड़ी हैं. साहस की प्रतिमूर्ति और चुनौतियों से लड़ने का अद्भुत काम किये हैं. आनंदवन उनके सपने का जीवंत प्रमाण है. उनका विश्वास महज रचनात्मक कामों में ही नहीं रहा, गढ़ चिरोली के आदिवासी जब विस्थापित किये जाने लगे, तो बाबा आमटे विरोध में सड़क पर उतर आये थे.
कुष्ठ रोगियों के बीच उनका काम उनके संपूर्ण कार्यों का एक मामूली हिस्सा है. उन्होंने आदिवासियों को शोषण से उबराने के लिए ‘लोक बिरादरी प्रकल्प’ बनाया. उनकी संस्थाओं में एक-एक पैसे का हिसाब मौजूद है. जिन लोगों में जीवन की लौ बुझ चुकी थी, बाबा ने अपने कर्म से ऐसे लोगों में जीवन की नयी रोशनी जलायी. अंधों, विकलांगों, मानसिक रूप से अविकसित लाखों लोगों में एक नयी आस्था पैदा करनेवाले इस महापुरुष को अहंकार, छलावा और कृत्रिमता छू भी नहीं पाये हैं.
बाबा को पहले विदेशों में ख्याति मिली, तब हमने उन्हें जाना. यह कोई अचंभा नहीं. जब पश्चिमी दुनिया से हमारे यहां के लोगों या चीजों को मान्यता मिलती है. तब हम उधर अपनी आंखें खोलते हैं. जां बुले नामक एक फ्रेंच कवि बाबा के पास आया था. उनके कार्यों को देख कर उसने बाबा को वर्तमान ईसा मसीह कहा और उन पर एक पुस्तक और काफी कुछ लिखा. आनंदवन के लिए धन भी संग्रह किया. 1979 में बाबा आमटे को ‘डेमिन डूटन अवार्ड’ मिला. 1983 में नेहरू पुरस्कार पानेवाली अर्थशास्त्री बारबरा वार्ड ने इस पुरस्कार की पूरी राशि आनंदवन को दे दी. 1979 में उन्हें जमनालाल बजाज पुरस्कार भी मिला. हाल ही में उन्हें पद्मविभूषण भी मिला है. पर इन चीजों से निर्लिप्त बाबा आमटे का जीवन ही इस संकटग्रस्त समाज और देश के लिए संदेश है.
श्रमर्षि बाबा आमटे का मानना है कि ‘दान नाश करता है, श्रम निर्माण करता है’. हमारी राजनीतिक व्यवस्था तो दान-अनुदान पर ही टिकी है. निष्काम कर्मयोगी बाबा आमटे को न यश का लोभ है, न सत्ता की लालसा. धन-वैभव की चकाचौंध से बाबा अछूते हैं. इस देश-समाज में श्रम का महत्व नहीं है. हम दूसरों का मुंह ताकते हैं. उपकृत किये जाने की बाट जोहते हैं. राजनीति, संस्कृति, शिक्षा, धर्म सभी क्षेत्र में हम हाथ पसारे खड़े हैं. ऐसे घुटते माहौल में श्रमर्षि बाबा आमटे का यह अभियान नये भारत के निर्माण में एक महत्वपूर्ण कदम है.