-हरिवंश-
भारत में धर्म के ठेकेदार-पंडित-पुरोहित जिस कूपमंडूकता में घिरे थे, उन्हें विवेकानंद का यह रूप असह्य लगा. आज भी कुछ लोग उन पर अंगरेजों का पिट्ठू होने का दोष मढ़ते हैं. उनके कार्यों-सोच में खोट ढूंढ़ते हैं. वस्तुत: काल-निरपेक्ष मूल्यांकन एकांगी और दोषपूर्ण होता है. विवेकानंद के साथ भी अध्येताओं ने यह अन्याय किया है.
आज से 125 वर्ष पूर्व विवेकानंद ने हमारी कट्टरता को ललकारा. धर्म के मसीहों-प्रचारकों और पैरोकारों को आत्ममंथन के लिए प्रेरित किया. आदि शंकराचार्य के उत्तराधिकारी आज 1988 में हरिजनों के मंदिर प्रवेश का विरोध कर रहे हैं, लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही विवेकानंद ने ऐसे जड़ और इनसान विरोधी तत्वों पर प्रहार किया था. उस समय चातुर्वर्ण के संरक्षकों का आतंक था. देश में अशिक्षा थी. लोगों में चेतना का अभाव था. कट्टरपंथी और जाति व्यवस्था के प्रहरी ताकतवर थे. हिंदू समाज के लिए वस्तुत: यह अंधकार का दौर था. उन दिनों विवेकानंद ने पुराणपंथियों का ललकारा, ‘शूद्रों ने हक मांगने के लिए जब भी मुंह खोला है, उनकी जीभें काट ली गयी हैं. उनको जानवरों की तरह चाबुक से पीटा गया है.’
बाद के दिनों में विवेकानंद को ‘अवतार’ ‘महान साधक’ और न जाने कितने विशेषणों से महिमामंडित कर उनके क्रांतिकारी तेवर को ढंकने का सुनियोजित प्रयास किया गया. वस्तुत : पाखंडियों और स्वार्थी द्विजों ने अपने वर्गीय हित को मजबूत करने के लिए ऐसा किया. उन्हें अवतार मान कर पूजा जाने लगा. अतीत में भी बुद्ध के साथ ऐसा हुआ. इस प्रक्रिया में उनकी व्यवस्थागत विद्रोह-करुण-समता की बातें दब-ढंक गयीं. दरअसल, यह प्रक्रिया हर महान-मौलिक विचार के साथ दोहरायी जाती रही. गांधी इसके ज्वलंत उदाहरण है.
राजे-रजवाड़ों के बिखरे भारत में किसी ने आधुनिक भारत की कल्पना नहीं की थी. भारतीय राष्ट्रवाद का सपना नहीं देखा था. गरीबों का आर्तनाद नहीं सुना था. समता और संपन्नता की वकालत नहीं की थी. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विवेकानंद पहले पुरुष थे, जिन्होंने कन्याकुमारी से कश्मीर तक एक भारत की बात की. राजे-रजवाड़ों का असली चेहरा देखा-दिखाया. ‘भारत भर के राजा, महाराजा, धनवानों के दरबारों में मैं गया. निर्धनों की मदद के लिए प्रार्थना की. मगर मौखिक सहानुभूति के सिवा कुछ न मिला. उन दिनों जब लोग अपने को हिंदू, मुसलमान, ईसाई या ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य, तमिल, बंगाली मानते थे, तब विवेकानंद ने ‘भारतीयता’ की चर्चा की.
स्वामी जी न सिर्फ ‘भारतीयता’ के अग्रदूत थे, बल्कि दूरदर्शी और पाखंड को ललकारनेवाले भी थे. उन दिनों हिंदुओं के बीच विदेश यानी ‘म्लेच्छों के देशों’ में जाने की मनाही थी. विवेकानंद न सिर्फ विदेशों में घूमे और वैदिक धर्म के श्रेष्ठ तत्वों का प्रचार-प्रसार किया, बल्कि देशवासियों को स्वतंत्र होने और स्वाभिमान से जीने के लिए प्रेरित किया. विदेशी दासता से मुक्ति के लिए आवाहन किया. परंपरागत मान्यताओं को दरकिनार करते हुए उन्होंने कहा कि ‘मनुष्य एकमात्र देवता है, जिसमें मैं यकीन करता हूं.’ वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि समाज में दुख-कष्ट के मूल कारण मनुष्य द्वारा एक-दूसरे के प्रति किये जा रहे अन्याय हैं. धनी गरीबों का हक मारता है. मजबूत पीड़ितों को त्रस्त करता है और ब्राह्मण-द्विज शूद्रों पर अन्याय करते हैं. धर्म पुरोहितों और पंडों को ललकारते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं उस भगवान की परवाह नहीं करता, जो विधवाओं के आंसू नहीं पोंछ सकता और भूखे अनाथों को खाना नहीं दे सकता.’
शायद वह पहले भारतीय थे, जिन्होंने समाजवाद का सपना देखा. जब धर्म और सेवा का आशय तीर्थस्थानों को देखना और पुजारियों की सेवा करना था और मुक्ति के लिए हिमालय की कंदराओं में तपस्या की महिमा थी, उन दिनों विवेकानंद ने कहा, ‘मानव सेवा ही भगवान की सर्वश्रेष्ठ सेवा है.’ धर्मनिरपेक्षता ‘47 के बाद बने संविधान की देन नहीं है. धर्मनिरपेक्षता और विरोधियों के प्रति धैर्य-संयम हिंदू धर्म की श्रेष्ठ पूंजी है. यह जातीय गौरव का ज्वलंत उदाहरण है. विवेकानंद हिंदू धर्म की इस सर्वश्रेष्ठ धारा-चिंतन प्रक्रिया की देन थे. उन्होंने सभी धर्मों के महत्व को स्वीकार किया और कहा, ‘इस अराजकता और कलह के बीच भी मेरे मस्तिष्क में संपूर्ण और साबुत भारत की जो तसवीर उभरती है, वह शानदार और अद्वितीय है. उसमें वैदिक दिमाग और इसलामिक शरीर होगा.’ इसलामिक शरीर से उनका तात्पर्य वर्गहीन और जातिविहीन समाज से है.
जो समाज या धर्म समय निरपेक्ष हो जाता है, जिसकी ग्रहण और श्रवण शक्ति खत्म हो जाती है, वह नष्ट होने के कगार पर पहुंच जाता है. 19वीं शताब्दी में हिंदू धर्म अंदर से खोखला हो रहा था. विवेकानंद ने उसे सामाजिक, ग्रहणशील और उसके उदार रूपों का विवेचन कर रहे रूसी विद्वान चेलसेव का निष्कर्ष है कि विवेकानंद हमेशा याद किये जायेंगे. बेहतर मानव जीवन का सपना देखनेवाले के रूप में उनकी ख्याति बनी रहेगी. भारतीयों के बेहतर भविष्य के लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया. गरीबी, विषमता और सामाजिक अन्याय के खिलाफ उन्होंने आवाज बुलंद की और कहा कि ‘हिंदुओं का वर्तमान धर्म वेद, पुराण, भक्ति, मुक्ति में नहीं है. वह रसोईघर में प्रवेश कर गया है.’ वह मानते थे कि ‘बिलकुल रोटी न मिलने की अपेक्षा आधी रोटी भी बेहतर है.’ वह भूखों से धर्म के कर्मकांडों की अपेक्षा नहीं करते थे. धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ उन्होंने जिहाद छेड़ने का आवाहन किया.
भीड़ के बीच धर्म-तप और संन्यास की प्रासंगिकता का विवेकानंद ने विवेचन किया. उनका धर्म पारलौकिक और मानवीय पीड़ा से कटा हुआ नहीं था. मानवीय पीड़ा के संदर्भ में उन्होंने धर्म प्रचारकों की भूमिका पर चर्चा की. उन्होंने युवकों को स्मरण कराया कि ‘फुटबॉल (खेल) के माध्यम से तुम भगवान के ज्यादा करीब पहुंचोगे, बजाय गीता अध्ययन के… मजबूत देहयष्टि के साथ गीता की बातें तुम अच्छी तरह समझोगे.’
विवेकानंद के कार्यों का प्रभाव उनके देहावसान के तत्काल बाद परिलक्षित हुआ. उन्होंने लोगों से मुरझाये पौरुष और संकल्प जगाने के लिए कार्य किया. उनके निधन के तीन वर्ष बाद ही बंगाल (1905) में विद्रोह हुआ. बाद में तिलक-गांधी का आंदोलन, क्रांतिकारियों का आविर्भाव और सामूहिक चेतना का जन्म भारत के जड़ समाज में हुए. भारतीयों को जागरूक बनाने और संघर्ष के लिए स्वामी जी ने मार्ग प्रशस्त किया. साम्यवादी विद्वान और राजनेता प्रो. हीरेन मुखर्जी भी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में विवेकानंद की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं.
आगे एक दौर ऐसा भी आया, जब देश के क्रांतिकारियों के आदर्श बन गये विवेकानंद. विवेकानंद साहित्य रखना अपराध माना जाता था. उन दिनों जो भी बड़े क्रांतिकारी गिरफ्तार हुए, उनके पास विवेकानंद साहित्य बरामद हुआ. चेतनाहीन समाज में आत्मगौरव के बीज विवेकानंद ने बोये. 1901 में ढाका के क्रांतिकारी दल से बातचीत में स्वामी जी ने कहा, ‘एक गुलाम देश का क्या धर्म हो सकता है? अपने अंदर पौरुष जगाइए और उसके बल देश के लुटेरों, बाहरी आक्रमणकारियों को अपने देश से खदेड़ दीजिए. अभी आपका यह एकमात्र धर्म है- एकमात्र कार्यक्रम, जिसे आपको क्रियान्वित करना है.’
भारत के शासन वर्ग के बारे में विवेकानंद ने कहा, ‘उच्च वर्ग शारीरिक व मानसिक रूप से मर चुका है. भारत की एकमात्र आशा साधारण लोग है.’ नये भारत का स्वरूप उन्होंने इस साधारण लोगों के बीच में ही पाया. उन्होंने कहा भी कि ‘नये भारत का उदय किसानों की झोंपड़ियों, मछली मारनेवालों की कुटियों और मोची लोगों के घरों से होगा. कारखानों-घरों-बाजारों से नया भारत निकलेगा. साधारण लोग, जो हजारों वर्ष से जुल्म-शोषण के शिकार होते रहे हैं. उनके अंदर अद्भुत आस्था-बल है. मुट्ठी भर अनाज के बल वे पूरे विश्व पर फतह करेंगे.
पंडितों-पुरोहितों के अन्याय, धार्मिक कर्मकांड और कुरीतियों के खिलाफ उन्होंने लोगों से बगावत करने की बात की, ‘पुरोहितों को मार भगाइए, क्योंकि ये हमेशा से प्रगति विरोधी रहे हैं और ये लोग अपने तौर-तरीके में परिवर्तन करने के लिए तैयार नहीं है. सदियों के अंधवश्विास और धार्मिक आतंक की संतान हैं पुरोहित. पहले ‘पुरोहित्व’ खत्म करिए… तब अपने संकीर्ण दायरे से बाहर निकल कर देखिए.’
उपनिषदों-प्राचीन भारतीय ग्रंथों से ज्वलंत प्रसंग उद्धृत कर उन्होंने स्त्री-पुरुष समता की याद दिलायी. मनुष्य से बढ़ कर उनके लिए कोई दूसरी चीज नहीं थी. एक बार स्वामी जी के पास गोरक्षावाले चंदा लेने आये. उन्होंने पूछा कि जो भाई भूखों मर रहे हैं, उपेक्षित-पीड़ित हैं, उनके लिए आप लोग क्या करते हैं? जो लोग तड़पते मनुष्य की पीड़ा महसूस नहीं करते और पशु-पक्षियों की सेवा में अथाह दान देते हैं, उनसे मेरी सहानुभूति नहीं है.
जो राष्ट्र-देश अपने समृद्ध अतीत से सीखना बंद कर देता है, वह अंदर से निरंतर खोखला होता जाता है. हमने अपने अतीत से सीखना बंद कर दिया है. इस प्रक्रिया में हम आधुनिकता का अर्थ विकृत पश्चिमी मूल्यों में तलाश रहे हैं. आदि शंकराचार्य, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रैदास, कबीर, शंकरदेव, विवेकानंद आदि के अंदर जो दूरदृष्टि और आधुनिकता है, उससे कोई भी समाज प्रखर और जागरूक ही बनेगा.