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दूबे जी के बिहार में एक और कत्लेआम

-हरिवंश- बिहार में नरसंहारों की लंबी फेहरिस्त में एक नाम और जुड़ गया – दलेलचक और बघौरा. जन आतंक की राजनीति करनेवाले माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ने इस नरसंहार की जिम्मेदारी ली है. वे इसे वर्ग संघर्ष के रूप में पेश करते हैं, मगर गरीब भूमिहीन राजपूतों और उनके मासूम बच्चों की हत्या राजनीतिक दिवालियेपन के […]

-हरिवंश-

बिहार में नरसंहारों की लंबी फेहरिस्त में एक नाम और जुड़ गया – दलेलचक और बघौरा. जन आतंक की राजनीति करनेवाले माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ने इस नरसंहार की जिम्मेदारी ली है. वे इसे वर्ग संघर्ष के रूप में पेश करते हैं, मगर गरीब भूमिहीन राजपूतों और उनके मासूम बच्चों की हत्या राजनीतिक दिवालियेपन के सिवा और कुछ नहीं है. क्या इस बात का संकेत नहीं कि वाम उग्रवादी भी बिहार में निहित स्वार्थों के हाथों खेल रहे हैं?

दूसरी तरफ, क्या वजह है कि आजादी के बाद के ‘जालियांवाला’ अरवल पर विधानसभा में बहस से इनकार करनेवाली दुबे सरकार इस नरसंहार के तुरंत बाद उग्रवादियों के सफाये की योजना और विशेष पुलिस सेल बनाने का ऐलान करती है? औरंगाबाद के पीड़ित गांवों से लौट कर हरिवंश का कहना है कि दुबे सरकार सामंतों और ऊंची जातियों की पक्षधर है और बिहार के बुनियादी सामाजिक अंतर्विरोधों को समझे बगैर ऐसे नरसंहारों को नहीं रोका जा सकेगा. विश्लेषणपरक रिपोर्ट. तसवीरें कृष्णमुरारी की हैं.

29 मई, पटना. जेठ उतार पर है, फिर भी गरमी से राहत नहीं. मौसम विज्ञानवालों की भी दलील है कि ऐसी गरमी यहां पहले कभी नहीं पड़ी. 10 बजते ही पटना की सड़कें सुनसान हो जाती हैं. नलों में पानी नहीं आता. बूंद-बूंद पानी के लिए लोग तरस रहे हैं. मस्तिष्क ज्वर और पीलिया का प्रकोप पूरे राज्य में है. सरकारी स्रोतों के अनुसार ऐसी बीमारियों से अब तक 250 से भी अधिक लोग मर चुके हैं. राज्य के एक प्रमुख चिकित्सक का बयान है कि सरकार की लापरवाही से लोग मर रहे हैं. फिर भी सरकार निश्चत है. गैर-सरकारी सूत्रों के अनुसार इन बीमारियों से मरनेवाले लोगों की संख्या 500 से भी ऊपर है.

पानी-बिजली के अभाव और प्राकृतिक विपदाओं से तो राज्य में हाहाकार है ही, राज्य की राजधानी समेत सभी प्रमुख नगरों में अपराधियों का शिकंजा भी मजबूत हो रहा है. कुल मिला कर बिहार सरकार और प्रशासन नागरिकों को रोग, बढ़ते अपराध, असुरक्षा और बुनियादी चीजों के अभाव से जूझते देख चैन का अनुभव करते हैं. कारण, इन समस्याओं से घिरी जनता को अपनी परेशानियों से ही छुटकारा नहीं है. इस कारण सरकार के खिलाफ आंदोलन की उर्वर भूमि तैयार रहने के बावजूद यहां कारगर आंदोलन का माहौल नहीं है. इस तरह के मंत्री और नौकरशाह अपनी-अपनी गोटी मजबूत करने में लगे हैं.

30 मई, पटना. ऐसे ही माहौल में पटना स्थित पुलिस मुख्यालय को एक आवश्यक संदेश दिन के ग्यारह बजे मिले. इस संदेश से अफरातफरी फैल जाती है. अधिकारी इधर-उधर भागते हैं. मुख्यमंत्री सचिवालय को सूचना दी जाती है, तो वहां भी अचानक सरगरमी बढ़ जाती है. फिर राज्य सरकार के गृह आयुक्त का बयान आता है कि औरंगाबाद जिले के दलेलचक और बघौरा गांवों (थाना मदनपुर) में 29 मई की रात में 41 लोगों की हत्या कर दी गयी है. लोगों के घर जला दिये गये हैं. गृह आयुक्त के अनुसार यह हमला रात में दो बजे (हालांकि सही समय शाम 7 बजे है) 500-700 सशस्त्र लोगों ने किया.

सरकार-प्रशासन के लोग बेशर्मी से स्वीकारते हैं कि यह अब तक का सबसे क्रूरतम नरसंहार है. इस खबर से मुख्यमंत्री सचिवालय में भी कानाफूसी और भाग-दौड़ बढ़ जाती है. उनके चहेते इसलिए चिंतित हैं कि दुबेजी से अब इस्तीफे की मांग जोर पकड़ सकती है. नौकरशाहों के लिए यह मामूली खबर है. राज्य के मुख्यालय में बड़े ओहदों पर आसीन ये खुदगर्ज नौकरशाह स्वामीभक्त नौकरों की मानिंद अपने आकाओं (मुख्यमंत्री-मंत्रीगण) के लिए दलीलें तलाशने में जुट जाते हैं. मुख्यमंत्री को प्रेस से परहेज है, अत: इसकी क्षतिपूर्ति ये नौकरशाह करते हैं, लेकिन हर संभव दरवाजे पर आहट लेने के बाद भी महत्वपूर्ण सूचनाएं हाथ नहीं आतीं. नौकरशाहों की फौज मुख्यमंत्री के कार्यक्रम की तैयारी में जुट जाती है. पता चलता है, 31 मई को मुख्यमंत्री खुद दलेलचक और बघौरा जायेंगे.

हम 30 मई को ही इन गांवों के लिए रवाना हो जाते हैं. दलेलचक, बघौरा का रास्ता अरवल से ही गुजरता है. सड़क के ठीक किनारे ही वह जगह है, जहां पुलिस ने अनगिनत बेगुनाह लोगों को गोलियों से भून डाला था. शाम 7 बजे ही यहां श्मशान की वीरानी है. अभी भी लोग सहमे हुए हैं. इस पूरे अंचल में दलेलचक, बघौरा नरसंहार की खबर आग की तरह फैल चुकी है. सड़क के किनारे बसे गांवों के दरवाजे शाम में ही बंद हो जाते हैं. कोई भी गाड़ी चालक रात में इस सड़क से नहीं गुजरना चाहता. पटना से औरंगाबाद तक पूरा इलाका पिछले एक दशक से अशांत है. सरकार के अनुसार नक्सलवादी तत्व इस इलाके में हावी हैं. उनका संगठन काफी मजबूत है. उनके पास घातक हथियार हैं. पुलिस भी उनसे आतंकित रहने लगी है. हाल ही में पिरवां पिकेट पुलिस चौकी पर उग्रवादियों ने हमला कर दिया. ये लोग शस्त्र लूटने आये थे. दोनों तरफ से रात भर गोली चलती रही. अंतत: सुबह उग्रवादी भाग निकले. इस तरह की घटनाएं अकसर हो रही हैं. पुलिस बल से काफी घातक हथियार उग्रवादियों ने हथिया लिये हैं. उनकी अलग समानांतर अदालत है. अदालत द्वारा किये गये निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए घातक शस्त्रों से लैस लोग हैं. पटना-औरंगाबाद के बीच बसे कुछ गांवों में लोग दिन में भी जाने से हिचकिचाते हैं. पैसेवाले लोग अपनी संपत्ति-घर छोड़ कर बाहर जा चुके हैं.

इस तरह पटना-औरंगाबाद यात्रा के दौरान सड़क किनारे बसे गांवों में भी आदमी सड़क पर नहीं दिखाई देता, न ही कोई दरवाजा ही खुला मिलता है. रात 11 बजे औरंगाबाद पहुंचने पर सूचना मिलती है कि लाशें जलायी जा चुकी हैं. श्मशान स्थल पहुंचने पर दिखता है, जैसे जंगल की एक पट्टी में आग लगी हो. वहां कोई नहीं है. 41 लाशें अभी जल रही हैं. पुलिस सूत्रों के अनुसार ये लाशें राज्य सरकार के खर्चे पर पोस्टमार्टम के बाद जला दी गयीं. अकसर लोग अपने परिजनों की राख नदी में तर्पण कर श्मशान से लौटते हैं. लेकिन इन जलती लाशों पर यहां आंसू बहानेवाला कोई नहीं है. यहां सिहरा देनेवाली खामोशी और आतंक है.

हम रात में ही गांव की तरफ बढ़ते हैं, तो पुलिस बरजती है- इधर आतंकवादियों का आतंक है. उनके पास भयानक आग्नेय अस्त्र हैं. वे दरिंदे हैं. रात में अचानक हमला करते हैं. आहट पर गोली मारते हैं. मदनपुर थाने के एक सब-इंस्पेक्टर बताते हैं कि 4-5 घंटे तक पिछली रात दोनों गांव जलते रहे. इन गांवों को 500-700 लोगों ने घेर रखा था. दूर से पुलिस के लोग तामाशा देखते रहे, लेकिन किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि जा कर इन पागल उन्मादियों का विरोध करे. आसपास के गांव खाली हो गये हैं. दलेलचक में एक परिवार के दो लोग बचे हैं, उन्हें भी पुलिस अपने साथ मदनपुर पुलिस चौकी ले आयी है. वे जड़ हो गये हैं. उनके मुंह से भी आवाज नहीं निकल रही है. पुलिस के उक्त अधिकारी बताते हैं कि इन लोगों की इस जड़ स्तब्धता के कारण घटना के 24 घंटे बाद भी प्राथमिकी दर्ज नहीं हो पायी है. वह सुबह इन गांवों में ले जाने का आश्वासन देते हैं.

दलेलचक-बघौरा के रास्ते में ही एक वृद्ध सज्जन से मुलाकात होती है. परिचय पूछने पर बरजते हैं, लेकिन इस अंचल में हो रही घटनाएं उत्सुकतापूर्वक बताते हैं. वस्तुत: दलेलचक और बघौरा की घटनाएं इस क्षेत्र में हो रही खूनी लड़ाई की एक कड़ी हैं. इसकी शुरुआत वह रफीगंज थाने में हुई एक घटना से मानते हैं. औरंगाबाद के भभका गांव (रफीगंज थाना) में बंगाली सिंह नामक एक व्यक्ति रहते हैं. उनके लड़के का नाम विजय था. पिछले वर्ष अक्तूबर में उसे कोई बहका ले गया और उसकी हत्या कर दी. विजय की बारहवीं के दिन पारसडीह में 7 हत्याएं हुईं. मारे गये लोगों में से 7 कानू जाति के लोग थे. इसकी प्रतिक्रिया दरमिया में हुई. अंबिका सिंह परिवार के 11 लोग काट डाले गये. वहां नारा लगा ‘1 के बदले 7 और सात के बदले 11.’

इसके बाद उक्त वृद्ध सज्जन बताते हैं कि मदनपुर थाने के आजन गांव के केदार सिंह महुआ चुनने छेछानी गांव गये. उन्हें वहीं कुछ लोगों ने मार कर दिन में नौ बजे ही पेड़ में लटका दिया. प्रतिक्रिया स्वरूप छेछानी को जला दिया गया. वहां 7 लोग मारे गये. इस तरह सात के बदले 11 का जवाब दिया गया.

इसके बाद सीताथापा पहाड़ पर कुछ लोगों ने बैठक की. इस बैठक में योजना बनी- तीन गांवों को जलाने की. पुलिस को भी सुराग मिला. फिर अचानक कल दो गांवों में आगजनी हुई. लोगों को छह इंच छोटा किया गया. हाथ-पांव बांध कर मैदान में डाल दिया गया. फिर हाथ-पैर काट डाले गये. तड़पा-तड़पा कर लोगों को मारा गया. बच्चे भी मारे गये. फिर उनके घरों में आग लगायी गयी और उन्हें जिंदा उसमें डाल दिया गया. वस्तुत: लाश के नाम पर कुछ जली हुई हड्डियां बची हुई थीं. बार-बार आग्रह के बावजूद वह अनभज्ञिता जाहिर करते हुए कहा कि हत्यारों के बारे में कोई जानकारी नहीं है.

पास बैठे एक नौजवान का कहना है कि जातिगत द्वेष का परिणाम नहीं है. न ही जातीय दंगा है. इस जिले में दो हत्याकांड हो रहे हैं, उनमें राजपूत, दुसाध, मुसलमान और यादव सभी मारे गये हैं. उसकी दलील है कि यह वर्ग संघर्ष है. वह उदाहरण भी देता है कि अरवल में संपन्न धोबी के खिलाफ कमजोर लोगों ने संघर्ष किया.

लेकिन यह आंशिक हकीकत है. यह जाति संघर्ष और वर्ग संघर्ष का मिला-जुला रूप है. कुछ लोग यह आरोप भी लगाते हैं कि बिहार की सरकार सवर्णों की पक्षधर है. ऐसे लोगों का तर्क है कि अरवल, पारसडीह और छेछानी में गरीब और पिछड़े मारे गये, लेकिन वहां मुख्यमंत्री नहीं गये.

वस्तुत: बिहार में प्रशासन नाम की चीज नहीं है. जिला स्तर पर प्रशासन बिखर चुका है. पुलिस अपने अधिकारों का उपयोग कमाई के लिए करती है. जिलाधीश विकास के नाम पर हो रहे अन्याय और बढ़ती विषमता के सूत्रधार हैं. विकास के लिए जो भी राशि आवंटित हो कर जिले में आती है, वह सरकारी अधिकारियों-ठेकेदारों और सक्रिय राजनेताओं की तिकड़ी में बंट जाती है. आम आदमी इस परिधि से बाहर हैं.

हर जिले में पुलिस अधीक्षक ‘अपराध बढ़ाओ’ मुहिम का सूत्रधार है. पटना सचिवालय राजनीतिक जोड़-तोड़, कमीशन खाने, ट्रांसफर उद्योग से पैसा कमाने और ठेकेदारों की कमाई का अड्डा बन गया है. विकास के साथ सामाजिक विषमता बिहार में बढ़ रही है. सामंती मिजाज नहीं बदल रहा है. इस तरह बिहार का समाज एक प्रतिभागी और जड़ समाज बन गया है. परिवर्तन के लिए स्वैच्छिक संस्थाएं यहां निरर्थक हो गयी हैं. लोग आतंक और हत्या की भाषा समझने के आदी बनते जा रहे हैं. भ्रष्टाचार और सरकारी पैसा लूटो अभियान उच्च मध्य वर्ग और शासक वर्ग के प्रिय शगल बन गये हैं. इस कारण तंत्र आज भी सामंती युग के रहन-सहन के नमूने हैं.

दलेलचक और बघौरा अति पिछड़े गांव हैं. इन गांवों में रहनेवाले कुछ राजपूत पास में बन रही नहर में रोजाना मजूरी कर अपनी जीविका चलाते थे. दलेलचक मुश्किल से 10 घरों की बस्ती है. कोई भी मकान यहां साबूत नहीं बचा है. इस गांव के 15 लोग मारे गये हैं. 31 मई की सुबह तक विभन्नि घरों में आग सुलग रही थी. खून के थक्के जमे हुए थे. घर के बरतन बिखरे थे. किवाड़-दरवाजे जल चुके थे. छह बच्चों की यहां हत्या हुई. जगदेव सिंह के घर से 7 लोग मारे गये हैं.

यमुना सिंह की पत्नी, बच्ची, मां की हत्या हो गयी है. उनके दो अबोध बच्चे बचे हैं. एक का नाम वीरेंद्र है, दूसरे का मुखिया. वीरेंद्र पूछने पर अपना नाम बताता है- बिलेंदर. वह बताता है कि मैनपुर गांव के बौधा, केसर भुइया, बोलबम के बीरेंद्र के नेतृत्व में हत्यारे आये थे. वह कहता है कि जब इन लोगों के नेतृत्व में हत्यारों ने गांव को घेरा, तो नारा लगाया, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘एमसीसी जिंदाबाद,’ ‘कम्युनिस्ट पार्टी जिंदाबाद.’ इसके बाद हत्यारों ने कहा, ‘खबरदार, जो जहां है, वहीं रहे.’ इसके बाद लोगों को पकड़ कर बांधा गया. एक जगह ले जाकर उनकी हत्या की गयी. फिर गला काट डाला गया. घरों में किरासन तेल से छिड़क कर आग लगायी गयी.
यमुना सिंह के वृद्ध पिता कुछ भी पूछने पर फूट-फूट कर रो पड़ते हैं. रोते हुए बताते हैं कि घर में चावल, गेहूं, तिसी सभी जल गये. परिवार के सदस्य, संपत्ति सब कुछ स्वाहा हो गया. अब हम किसके लिए जियें!इस हत्याकांड में मैनपुर गांव का केसर भुइया सक्रिय था. वह काफी संपन्न खेतिहर है. उसके पास छह-सात बैलें हैं. आग लगाने, हत्या करने के बाद उसके नेतृत्व में ये लोग बघौरा गये.

बगौरा के घरों में 31 मई दोपहर तक आग लहक रही थी. उस गांव में कोई भी व्यक्ति बचा नहीं था. इस गांव में राजपूतों के साथ-साथ दूसरी जाति के कुछ और लोग भी रहते थे. वे भी गांव से भाग गये हैं. इस गांव में 26 लोग मारे गये. कुछ लोगों का कहना है कि यहां तकरीबन 30 लोग मरे हैं, फिलहाल मृतकों की संख्या सरकार द्वारा 41 बतायी जाती है, उनमें से 17 लोग 18 साल से कम उम्र के थे.

बघौरा के गया सिंह-सीताराम सिंह के परिवार में कोई भी नहीं बचा है. गांव में पीपल के पेड़ के पास सबको इकट्ठा कर हत्यारों ने मार डाला था. वहां 31 मई तक खून फैला दीख रहा था. मृतक सीताराम सिंह का एक रिश्तेदार उस गांव में इस घटना के बाद आया. उसके अनुसार नारायण अहीर इसी गांव का संपन्न किसान है. इस घटना में उसका हाथ है. 4 महीने पूर्व नारायण ने मृतक गया सिंह से मारपीट की थी. घटना के दिन नारायण ने गया सिंह के छोटे लड़के वीरेंद्र को औरंगाबाद से यह कह कर बुलाया कि तुम्हारे परिवार के लोगों ने तुम्हें बुलाया है. इस तरह वह घर आया, हालांकि घर के लोगों ने उसे नहीं बुलाया था. उस रात उसकी भी हत्या हो गयी.

वस्तुत: छेछानी में हुई घटना के बाद ही यादव इस इलाके में घूम-घूम कर बदला लेने के लिए बैठक कर रहे थे. पुलिस को भी इसकी सूचना थी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. उस गांव में विभिन्न घरों में सामने लुंगी, कपड़ा, बरतन और पुस्तकें बिखरी हुई थीं. कोई भी चीज साबूत नहीं थी. अन्न-धान के बंडल कुएं में डाल दिये गये थे.

इन दोनों गांवों में आतंकवादी संगठित होकर पूर्व नियोजित ढंग से आये थे. इस क्षेत्र के विधायक बृजमोहन सिंह (कांग्रेस) कहते हैं कि छेछानी में हुई घटना के बाद ही 30 अप्रैल को मुख्यमंत्री ने पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन दिया था. पुलिस पेट्रोलिंग की बात कही थी, लेकिन मुश्किल से एक माह के अंदर फिर यह भीषण हत्याकांड हो गया. श्री सिंह कहते हैं कि इन गांवों के लोग अकसर प्रशासन-पुलिस को इस खतरे की जानकारी देते रहे थे, लेकिन फिर भी इस हत्याकांड को रोका नहीं जा सका.

1977 के बाद बिहार में हुए नरसंहार

बेलछी, पारसबीघा, दोहिया, पिपरा, पिपरिया, तौफीर दियारा, परसडीह, दरमिया, छेछानी आदि की कड़ी में अब दलेलचक और बघौरा के नाम भी जुड़ गये हैं. संक्षेप में बिहार में हुए नरसंहारों का ब्योरा.

जुलाई 1977- कुरमी भू-स्वामियों द्वारा 4 हरिजनों की बेलछी में हत्या.

फरवरी 1980 – कुरमी भू-स्वामियों द्वारा 14 हरिजनों की पिपरा में हत्या.

फरवरी 1980 – भूमिहार भू-स्वामियों द्वारा पिछड़ी जाति के 11 लोगों की हत्या.

जून 1982 – गैनी (औरंगाबाद) में छह लोगों की हत्या.

मार्च 1984 – भूमि विवाद के सवाल पर गगनबिगहा (औरंगाबाद) में 5 लोगों की हत्या.

अप्रैल 1985 – पुलिस द्वारा गोली चलाने से बांझी में 19 आदिवासियों की मृत्यु.

मई 1985 – भूमि विवाद के कारण कैथी बिगहा (औरंगाबाद) में 10 लोगों की हत्या.

अप्रैल 1986 – अरवल गोलीकांड में 23 लोगों की हत्या.

जुलाई 1986 – कंसारा में भूमि विवाद के कारण 11 लोग मारे गये.

सितंबर 1986 -पारसडीह (औरंगाबाद) में पिछड़ी जाति के 7 लोगों की हत्या.

अक्तूबर 1986 – दरमिया (औरंगाबाद) में 11 राजपूतों की हत्या.

नवंबर 1986 – मैरवा (सीवान जिला) में हुए भूमि विवाद के दौरान 7 लोग मारे गये.

अप्रैल 1987 – छोटकी छेछानी (औरंगाबाद) में जाति संघर्ष के दौरान 7 लोग मारे गये.

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