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मौजूदा पतन से उबरने का एकमात्र रास्ता

-हरिवंश- आर्थिक पिछड़ेपन के कारण ही बिहार बर्बरता, अनुशासनहीनता और जातीयता की चक्की में पिस रहा है. बिहार को मौजूदा पतन से उबारने के लिए एक ही रास्ता है, चौतरफा आर्थिक विकास. अतीत में बिहार की कांग्रेस या विपक्षी सरकार इस मोरचे पर कारगर नहीं हो सकीं, क्योंकि उनकी प्राथमिकताएं बदलती रहीं. भागवत झा आजाद […]

-हरिवंश-

आर्थिक पिछड़ेपन के कारण ही बिहार बर्बरता, अनुशासनहीनता और जातीयता की चक्की में पिस रहा है. बिहार को मौजूदा पतन से उबारने के लिए एक ही रास्ता है, चौतरफा आर्थिक विकास. अतीत में बिहार की कांग्रेस या विपक्षी सरकार इस मोरचे पर कारगर नहीं हो सकीं, क्योंकि उनकी प्राथमिकताएं बदलती रहीं. भागवत झा आजाद चूंकि आरंभ से ही बिहार से बाहर रहे हैं. इस कारण दूसरे राज्यों के आर्थिक विकास और बिहार के पिछड़ेपन से बखूबी परिचित हैं.

उन्हें मालूम है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत के औद्योगिक नक्शे पर जो राज्य काफी अग्रणी था. अब वह सबसे अधिक पिछड़ गया है. यहां प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है. प्रति एकड़ औसत कृषि उत्पादन देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले काफी कम है. यद्यपि उद्योग-धंधे नहीं हैं, लेकिन बिहार में प्राकृतिक संसाधनों की कमी नहीं है. केंद्र सरकार की विकास कार्यों से जुड़ी एजेंसियां कृषि, उद्योग आदि के विकास के लिए भरपूर मदद दे सकती है.

आंध्र, गुजरात या तमिलनाडु की आर्थिक प्रगति का राज यही है कि इन राज्यों में स्थित केंद्र सरकार की वित्तीय संस्थाओं का इन राज्यों की संबंधित सरकारों ने भरपूर उपयोग किया है. मसलन नाबार्ड, भारतीय औद्योगिक बैंक, आयात-निर्यात बैंक, राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति, वाणिज्यिक बैंकों आदि से विकास कार्यों में मिलनेवाली भरपूर मदद के सही उपयोग का सवाल है. बिहार की पूर्व सरकारें इन वित्तीय संस्थाओं के स्वरूप और महत्व को नजरअंदाज करती रही हैं. इस कारण बिहार के गांवों से निकला पैसा बड़े महानगरों और शहरों में लगता रहा है. दूसरे राज्यों के पूंजीपति बिहार में आकर बिहार की वित्तीय संस्थाओं से मदद ले कर आगे बढ़ते रहे हैं, लेकिन बिहार में बड़े या मंझोले किस्म के उद्योगपतियों का विकास नहीं हुआ.

बिहार में सर्वाधिक सस्ता श्रम और प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं, इस कारण बाहरी पूंजीपति बाकी कठिनाइयों को नजरअंदाज कर यहां उद्योग लगाते हैं. कुछ ऐसे भी पूंजीपति हैं, जो दिल्ली या कलकत्ता में बैठ कर बिहार में उद्योग लगाने के नाम पर वित्तीय संस्थाओं से अरबों रुपये का ऋण ले चुके हैं. चूंकि बिहार उद्योग की दृष्टि से पिछड़ा है, इसिलए केंद्र सरकार वहां उद्योग लगाने के लिए जो रियायतें देती हैं, उसका लाभ दिल्ली, कलकत्ता और बंबई के पूंजीपति उठाते हैं. अगर बिहार की सरकार यह वित्तीय अनुशासन लाने और बिहार के नाम पर सरकारी वित्तीय संस्थाओं से लिये गये ऋणों को बिहार में ही निवेश कराने में सफल होती है, तो औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में बिहार का कायापलट हो जायेगा. छोटानागपुर या उत्तर बिहार के मजदूर पंजाब या दूसरे राज्यों में जाने के लिए विवश नहीं होंगे.
कटिहार, मधुबनी, सहरसा, पूर्णिया, पलामू और छोटानागपुर से लाखों की तादाद में मजदूरों का झुंड प्रतिवर्ष पंजाब, हरियाणा और असम की ओर निकल जाता है. इन मजदूरों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के लिए बिहार स्थित पंजाब नेशनल बैंक ने उल्लेखनीय काम किये हैं. इस बैंक के आंचलिक प्रबंधक नारायण गो दक्षिण भारतीय हैं. पांच वर्ष पूर्व जब वह यहां आये, तो उन्हें हिंदी नहीं आती थी. ऊपर से बिहार में रहने का खौफ, लेकिन उन्होंने बिहार की आर्थिक प्रगति के काम को चुनौती के रूप में स्वीकार किया. सबसे पहले लोगों की समस्याएं समझने के लिए उन्होंने हिंदी सीखी. हिंदी के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए उन्हें प्रधानमंत्री द्वारा पुरस्कार भी मिला.

इसके बाद उन्होंने जिलेवार विकास की योजनाएं बनवायीं. रोहतास में मजदूरों-पिछड़ों को सहकारी संस्था बनवा कर ईंट-भट्ठे के लिए ऋण दिया. कपड़े की बुनाई के लिए मजदूरों-पिछड़ों को सहकारी संस्था बना कर उन्हें ऋण दिया. पलामू के ताराचंडी में बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के बाद उनके लिए सहकारी संस्था बनवा कर उन्हें ऋण दिया. उनका कहना है कि इन जिलेवार योजनाओं से लाखों मजदूरों के जीवन में कायापलट हो गया है. इन क्षेत्रों से प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में दूसरे राज्यों में जानेवाले मजदूर अब यहीं रह कर काम करते हैं. श्री गो का मानना है कि इन विकास कार्यों का प्रभाव इन मजदूरों की अगली पीढ़ी पर परिलक्षित होगा.


इसी तरह मधुबनी जिले के विकास के लिए राज्य सरकार के सहयोग से उन्होंने अलग योजना बनायी है. मधुबनी में पैदा होनवाला मखाना लगभग 20 रुपये प्रति किलो बिकता है और दिल्ली, पंजाब में 60-80 रुपये प्रति किलो. ‘यह देख कर हमने इस जिले के विकास के लिए गरीब उत्पादकों की सहकारी समितियां बनवायीं और राज्य सरकार से संपर्क कर उन्हें ऋण दिया,’ वह कहते हैं. उल्लेखनीय है कि इस जिले से सर्वाधिक मजदूर प्रतिवर्ष पंजाब या दूसरे राज्यों में जाते हैं. पंजाब नेशनल बैंक के ऐसे कार्यों से वहां भी बाहर जानेवाले मजदूरों की संख्या में कमी आयी है.
वस्तुत: बिहार में बाहर से आनेवाले अधिकांश अधिकारी वहां से अपना तबादला कराने के लिए उत्सुक रहते हैं. लेकिन नारायण गो ने बिहार के विकास कार्यों को चुनौती के रूप में स्वीकार किया है. ऐसे अधिकारियों का अगर राज्य सरकार सही उपयोग करे, तो बिहार अपने आर्थिक पिछड़ेपन के चंगुल से मुक्त हो सकता है.

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