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बंद करो यह स्वांग

-हरिवंश- किसी आयोजन-उत्सव के पीछे की भावना (आत्मा) जब मर जाये, तो उस समारोह को बंद कर देना ही बेहतर है. महज आरती उतारने और जय-जयकार के लिए आयोजित उत्सव सारहीन होते हैं. किसी हद तक प्रतिगामी भी. ऐसे औपचारिक आयोजनों से राष्ट्रीय जीवन में बेमतलब स्तुति और चाटुकारिता को बढ़ावा मिलता है. 26 जनवरी […]

-हरिवंश-

किसी आयोजन-उत्सव के पीछे की भावना (आत्मा) जब मर जाये, तो उस समारोह को बंद कर देना ही बेहतर है. महज आरती उतारने और जय-जयकार के लिए आयोजित उत्सव सारहीन होते हैं. किसी हद तक प्रतिगामी भी. ऐसे औपचारिक आयोजनों से राष्ट्रीय जीवन में बेमतलब स्तुति और चाटुकारिता को बढ़ावा मिलता है. 26 जनवरी और 15 अगस्त के दिन होनेवाले भव्य आयोजन भी अब महज रस्म अदायगी हैं.
अब किसे याद है कि इन दिनों के इंतजार में लाखों ने अपना सर्वस्व लुटा दिया. ऐसे लोग या तो मर-खप गये या इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिये गये. स्वतंत्रता की लड़ाई में निरक्षर गांववालों ने जिस उमंग-उत्साह और आस्था से हिस्सा लिया था, उसे बखानना संभव नहीं. गुजरात के मशहूर स्वातंत्र्य योद्धा और पत्रकार बाबुभाई ने अपनी पुस्तक ‘रेती मां बहाण’ में एक ऐसे ही किसान का उल्लेख किया है.
हरिपुरा में कांग्रेस अधिवेशन होनेवाला था. सुभाष बोस अध्यक्ष की हैसियत से हरिपुरा के विशिष्ट अतिथि थे. अधिवेशन के लिए गठित समिति में मशविरा हो रहा था कि सुभाष बाबू का स्वागत कैसे किया जाये? तय हुआ कि कांग्रेस का यह इक्यावनवां वर्ष है, अत: सुभाष की बैलगाड़ी में इक्यावन बैल लगाये जायें. सवाल उठा कि सारथि कौन बनेगा? आम राय के अनुसार सुभाष का सारथि बनने के लिए दो मापदंड तय किये गये. एक, वह बारडोली का हो. दूसरा, उसका त्याग सुभाष के त्याग की तरह हो.

स्वागत समिति के सदस्य केशवभाई पटेल से सरदार पटेल ने ऐसा नाम पूछा, जो निर्धारित कसौटियों पर खरा उतरता हो. उन्होंने तत्काल छीता पटेल का नाम बताया. बारडोली तालुका के बराड गांव के वासी 50 वर्षीय छीता पटेल मूलत: किसान थे. बारडोली सत्याग्रह में उन्होंने आगे बढ़ कर हिस्सा लिया था.

अपनी धरती-खेतीबारी और परिवार से मोह करनेवाले छीता भाई भी बारडोली के दूसरे किसानों की तरह हिजरत पर निकले. वह बराड से दूर जाना चाहते थे, ताकि गांव-घर, परिवार और खेतीबारी की सरहद से बहुत दूर निकल जायें. बारडोली सत्याग्रह के सिपाही कुंवरजी भाई से उन्होंने अपने मन की बात कही. उन्होंने समझाया, पर छीता का तर्क था कि दूसरे लोगों की तरह हिजरत करके मैं भी गांव के पास रहूं, तो माया-मोह से उबरना कठिन होगा. किसान के लिए खेती और घर छोड़ने से बड़ा दुख और क्या हो सकता है, अत: दूर के गांव में ही जाना ठीक है.

अंतत: अंगरेजी हुकूमत की सीमा लांघ कर बड़ौदा रियासत के परब गांव में छीता भाई गये.बारडोली के किसानों का संघर्ष और फिर हिजरत स्वतंत्रता संग्राम का स्वर्णिम अध्याय है. इन हिजरतियों की मदद के लिए बंबई में भुलाभाई देसाई की देखरेख में राहत कोष इकट्ठा किया गया. बड़ौदा रियासत की सीमा में हिजरत पर आये किसानों के सामने कठिन समस्या थी, पशुओं के चारे की. बंबई फंड से पशुओं के लिए हिजरती किसानों को मदद दी जाने लगी.
कुंवरजी भाई इस सहायता का प्रस्ताव लेकर छीता पटेल के पास गये. छीता का जवाब था, ‘आप जिसे राहत बता रहे हैं, वह धर्मादा है. मजदूरी से अपना पेट पालूंगा, पर धर्मादा की एक पाई भी नहीं लूंगा. मैं गरीब हो गया हूं, भिखारी नहीं हुआ.’ गांधी-इरविन समझौते में बारडोली के किसानों का भी उल्लेख था. उनकी जमीन लौटाने की बात तय हुई थी. बाकी हिजरती लौट गये. पर छीता पटेल ने परब नहीं छोड़ा. लोग उनसे बराड लौटने का प्रसंग छेड़ते अपनी जमीन पाने-खेती करने की याद दिलाते, तो छीता भाई खो जाते. उनका जवाब होता, ‘स्वराज आने के पहले बराड लौटना मेरे लिए संभव नहीं है. हां, महात्मा जी आज्ञा करें, तो बराड लौट सकता हूं. बराड छोड़ते समय मन में मैंने यह संकल्प किया.’

हिजरती अपने घरों-गांवों में लौट कर फिर अपनी दुनिया में रम गये थे. पर परब में छीता पटेल बटाईदार ही बने रहे. हां परब-चलथाण के बीच उनकी बैलगाड़ी दौड़ लगाती रही. आठ साल छीता पटेल यही करते रहे. हरिपुरा कांग्रेस के समय केशवभाई ने छीता से कहा. ‘सुभाषचंद्र बोस के स्वागत रथ को हांकने के लिए तुम्हें मेरे साथ हरिपुरा चलना है.’ छीता पटेल का जवाब था, ‘इस मर्यादा, मान-सम्मान के लिए मैं आप सबका आभारी हूं. लेकिन मैं हरिपुरा नहीं जा सकूंगा.’ केशवभाई के आग्रह पर छीता पटेल ने अपने संकल्प की बात दोहरा दी.

अधिवेशन की स्वागत समिति में केशवभाई जब छीता के न आने की बात कर रहे थे, उस समय सरदार वल्लभभाई पटेल और गांधी जी वहां मौजूद थे. गांधी जी सब सुनते रहे. अंतत: उन्होंने कहा, ‘स्वागत का रथ छीता भाई ही होंगे.’ उन्होंने वल्लभभाई से आग्रह किया कि आप स्वयं मेरी आज्ञा का संदेश लेकर परब जायें.

सरदार पटेल स्वयं छीता भाई को बुलाने गये. परब गांव में दिहाड़ी पर काम करनेवाले मजदूर छीता भाई के सम्मान में परब गांव के लोगों ने सभा की. सभा में उनके बारे में बहुत कुछ कहा गया. छीता भाई जब बोलने उठे, तो मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी. साहस बटोर कर उन्होंने कहा कि ‘आप सबके बीच मुझे अपनी भूल स्वीकारनी है. दुर्दिन के लिए मैंने कुछ पैसे बचा रखे थे. उस रकम से मैं परब के प्रत्येक घर को पीतल का एक-एक डिब्बा भेंट करना चाहता हूं. आप मेरी यह भेंट स्वीकारें.’ बारडोली में विशाल जुलूस निकाल कर सुभाष के इस सारथि का स्वागत हुआ था. छीता पटेल जैसे लोगों को भुला कर कब तक हम 15 अगस्त, 26 जनवरी की अर्थी ढोने का स्वांग रचते रहेंगे?

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