-हरिवंश-
आजादी की लड़ाई में त्याग, संघर्ष और बलिदान से कांग्रेस ने ‘लोक विश्वास’ की पूंजी अर्जित की. स्वतंत्रता के बाद जब इस धरोहर को कांग्रेस भुनाने लगी, तो भोग और पतन का दौर आरंभ हुआ. काफी बाद में आहत राजगोपालाचारी ने कहा भी कि कांग्रेसी-राज कोटा, परमिट और लाइसेंस युग की शुरुआत है. कांग्रेस भ्रष्टाचार की गंगोत्री बनती जा रही है. लेकिन तत्कालीन कांग्रेस आलाकमान ने वयोवृद्ध राजनेता की इस चेतावनी को अनसुना कर दिया.
वैसे भी सन 47 के बाद भोग और सत्ता लिप्सा के कारण तपे कांग्रेसी कुरसी के गुलाम हो गये. स्वतंत्रता की लड़ाई में सजग उनका विवेक और चौकन्नी अंतरात्मा मर चुकी थी. विरोध पक्ष में हिंदू अतिवादी थे, या विदेशी ताकतों के गुलाम और सन ’42 के रंगबदलू साम्यवादी.
समाजवादी खेमे में जो लोग थे, उनमें से भी अधिसंख्य को ‘राजरोग’ की मोहमाया व्याप चुकी थी. कुछ दिग्गज समाजवादी नेता ‘नयी राह’ और ‘मनुष्य की अच्छाई’ की तलाश में मैदान छोड़ चुके थे, तब गांधी की छीजती धरोहर को बनाये रखने और भटकते देश को राह पर लाने के लिए डॉ राममनोहर लोहिया ने अपनी आहुति दी. इस लड़ाई में वे अकेले रहे. यह संघर्ष वह अपने उन साथियों के खिलाफ ही चला रहे थे, जिनके साथ कंधे-से-कंधा मिला कर उन्होंने अंगरेजों की लाठियां खायी थीं. उनके खैरखाह, नजदीकी और स्वतंत्रता की लड़ाई के ‘भाई से भी अभिन्न’ साथी जब साथ छोड़ गये, तब भी वे सही विकल्प की तलाश में विरोध का चिराग अकेले जलाये रहे.
लोहिया के बारे में जानने से पूर्व याद रखना चाहिए कि स्वतंत्र भारत में वह भी सुखपूर्वक, महत्वपूर्ण हैसियत से सत्ता का आस्वाद कर सकते थे, या स्वतंत्रता की लड़ाई में अपनी राजनीतिक उपलब्धियों के बाद महर्षि अरविंद या विनोबा की तरह अध्यात्म की शरण में जा सकते थे और अपने अद्भुत तेज और सूझबूझ के बल कहीं भी अपनी अलग पहचान बना सकते थे. लेकिन उन्होंने संघर्ष का, जेल जाने का और नये भारत बनाने का कठिन मार्ग चुना. स्वतंत्र भारत की राजनीति में उन्होंने अपनी न मिटनेवाली अलग छवि बनायी. उनका लेखन, भाषण और लोकसभा में बहस, इस तथ्य में सटीक उदाहरण है कि हिंदुस्तान की राजनीति में गांधी के बाद उनके बाद गहरा पारखी और कोई नहीं हुआ.
1952 में डॉ लोहिया समाजवादी पार्टी की अंतर्कलह के कारण चुनाव नहीं लड़े. 1957 में वे कांग्रेस के खिलाफ पराजित होने के लिए ही खड़े हुए. व्यक्ति पूजा की बढ़ती प्रवृत्ति को ध्वस्त करना उनका मकसद था. जब वह नेहरू जी के खिलाफ लड़े, तो नेहरू जी ने लोहिया को पत्र लिख कर कहा कि चुनाव क्षेत्र में नहीं जायेंगे, लेकिन उन्हें लोहिया को हराने के लिए चुनाव क्षेत्र में कई दफा जाना पड़ा. कथनी और करनी के इस अंतर को उजागर करने के अपने उद्देश्य में लोहिया कामयाब भी हुए. 1963 में उपचुनाव जीते, तो श्रीहीन लोकसभा को जनमंच के रूप में तब्दील किया.
पहली बार देश के पिछड़ों, आदिवासियों, अछूतों, औरतों और सत्ता परिधि से बाहर बिखरे लोगों को एहसास हुआ कि लोकसभा में उनके हितों की भी चर्चा होती है. लोकसभा और जनता के बीच तादात्म्य (इनवॉल्वमेंट) स्थापित करने का श्रेय डॉ लोहिया को है. ‘तीन आने बनाम पंद्रह आने’ की बहस छेड़ कर उन्होंने पूरे देश को झंकृत कर दिया. इसी लोकमंच (संसद) से बुनियादी मुद्दों को उठा कर कांग्रेस को पछाड़ने की नींव डॉ लोहिया ने डाली. 1967 में इसके परिणाम भी निकले. नौ राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनी. उस दौरान लोहिया लोकसभा में अपनी सरकारों की विफलता पर भी खुल कर बोलते थे. लोकसभा में लोहिया खंड 13 और खंड 14 (प्रकाशक : राममनोहर लोहिया समता विद्यालय न्यास, हैदराबाद) से यह जाहिर है.
चौथी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए डॉ लोहिया ने कहा, ‘‘कांग्रेस तो खत्म हो रही है. और सिर्फ दो वर्ष रह गये हैं, इसको सारे हिंदुस्तान से साफ होने में. लेकिन थकावट इस बात की है कि एक गढ़ ढह रहा है. इसकी जगह पर एक बढ़िया मकान नहीं बन पा रहा है.’’ उन्हें बेहतर विकल्प की कमी का एहसास था.
चौथी लोकसभा में ही डॉ लोहिया ने स्टालिन की बेटी श्वेतलाना का चर्चित मुद्दा उठाया था. ‘‘(यह) एक मनुष्य का मामला है और एक ऐसे मनुष्य का, जिसको इस पृथ्वी में अपना सिर शांति के साथ रखने के लिए जगह नहीं मिल रही है.’’लोहिया का सत्ता का सपना वायवी नहीं था. आज भी हम रोना रोते हैं कि अंगरेजों के जाने के बाद कुछ भी नहीं बदला, उनकी जगह शोषक राजनेता आ गये, नौकरशाही और देश के ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ.
लेकिन विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करते हुए भी लोहिया ने देश के सामने वैकल्पिक व्यवस्था की बात की, ‘‘सामंती भाषा, भूषा, भवन, भोजन और संस्कृति की स्थापना करनी चाहिए. उसके बगैर समता लाना असंभव है.’’ मात्र सत्ता हथियाना ही उनका मकसद नहीं था. इस बात को वह बार-बार कहते थे. सत्ता बदलने के साथ ही व्यवस्था बदले, मनुष्य बदले और दलों के चरित्र में बदलाव आये, ‘‘मैं चाहता हूं कि हमारी पार्टी ऐसी हो जाये कि पिटती रहे, पर डटी रहे. आखिर वह कौन-सी ताकत थी, जो तीन सौ वर्ष तक ईसाई मजहब को बार-बार पिटने के बाद भी चलाती रही.
समाजवादी आंदोलन के पिछले 25 वर्ष के इतिहास को आप देखेंगे, तो पायेंगे कि सबसे बड़ी चीज जिसकी इसमें कमी है, वह है कि पिटना नहीं जानते. जब भी पिटते हैं, तो धीरज छोड़ देते हैं. मन टूट जाता है और हर सिद्धांत और कार्यक्रम को बदलने के लिए तैयार हो जाते हैं.’’
उसे तो समाज के पूरे ढांचे में बुनियादी तब्दीलियां लानी हैं और यह तभी संभव है, जब इच्छाशक्ति के साथ-साथ नियम और मर्यादा से बंध कर काम करने का विवेक भी हो. इसके बगैर सोशलिस्ट पार्टी का विकास असंभव है.’’ जब भी मौके आये, लोहिया ने सोशलिस्ट पार्टी के विकास के लिए निर्मम हो कर निर्णय किये. 1967 में समाजवादी लोगों के मंत्री बनने के बाद भी जब उनके आचरण, काम और नीतियों को लागू करने में फर्क नहीं दिखा, तो लोहिया ने उन्हें भी नहीं बख्शा (खंड-14). नियम और मर्यादा के मापदंड पर वे अपनी पार्टी के मंत्रियों को भी कसते थे.
लोहिया के लंबे संघर्ष का ही परिणाम था कि पहली बार संसद में जे. एच. पटेल अपनी मातृभाषा कन्नड़ में बोले. हिंदी और अंगरेजी के अलावा पहली बार कोई सदस्य, संसद में अपनी मातृभाषा में बोल पाया, इसे ले कर संसद में काफी चखचख हुई, लेकिन उपाध्यक्ष ने व्यवस्था दी की मातृभाषा में सदस्य बोल सकते हैं.
कुछ नकाब ओढ़े टीकाकार जब लोहिया पर हिंदी के लिए दिशाहीन संघर्ष चलाने का आरोप थोपते हैं, तो वे भूलते हैं कि लोहिया ने सिर्फ हिंदी के लिए ही नहीं, भारतीय भाषाओं के लिए लड़ाई लड़ी. आज तमिलनाड़ु, कर्णाटक, आंध्र और महाराष्ट्र में सरकारी कामकाज क्षेत्रीय भाषाओं में हो रहे हैं, तो इसका श्रेय डॉक्टर लोहिया को भी है. जिस मंच (लोकसभा) से डॉ. लोहिया ने भाषा की लड़ाई लड़ी, आज उसी लोकसभा में मधु दंडवते अंगरेजी बोलते हैं, तो प्रधानमंत्री उनके गलत शब्द चयन या इस्तेमाल पर फब्ती कसते हैं और विरोध में बैठे संसद सदस्य नाक-भौंह सिकोड़ते हैं.
‘लोकसभा में लोहिया’ खंड 14 में चौथी लोकसभा के दूसरे सत्र के (22 मई से 19 जून 1967) उन बहुत-मुबाहसों का उल्लेख है, जिनमें डॉ. लोहिया ने हिस्सा लिया. परिशिष्ट में 9 अप्रैल से 19 जून 1967 के दौरान लोहिया के व्याख्यान, पत्राचार और संसद में अस्वीकृत प्रश्नों का ब्योरा है.