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World Urdu Day 2022: उर्दू की दुनिया के चमकते सितारे

हर साल 9 नवंबर को उर्दू दिवस मनाया जाता है. उर्दू अपने देश में संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं में से एक है. उर्दू का उद्भव भारत में ही हुआ. यही वजह है कि हिंदी-उर्दू में जो निकटता है, वह न तो उर्दू व फारसी और न ही संस्कृत व हिंदी में देखने को मिलती है.

World Urdu Day 2022: उर्दू अपने देश में संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं में से एक है. यदि हम इतिहास की ओर जाएं, तो पायेंगे कि उर्दू का उद्भव भारत में ही हुआ. यही वजह है कि हिंदी-उर्दू में जो निकटता है, वह न तो उर्दू व फारसी और न ही संस्कृत व हिंदी में देखने को मिलती है. हिंदी-उर्दू को लिखने में लिपि का अंतर जरूर है, लेकिन हम बिना किसी कठिनाई के बोलने में उर्दू के शब्दों जैसे- रिश्ता, हवा, किस्मत, तारीख, खबर, किताब, कलम, दिल, दोस्त आदि का प्रयोग करते हैं. किसी भी भाषा की समृद्धि उसे लिखने-बोलने वाले लोगों और उसके साहित्य से होती है. इस मामले में उर्दू बेहद ही समृद्ध भाषा है. उर्दू दिवस के मौके ऐसे ही कुछ कवियों, कथाकारों, शायरों व नाटककारों को याद करते हैं, जिनकी वजह से उर्दू न सिर्फ भाषा है, बल्कि एक तहजीब है.

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रंगमंच पर उर्दू को जीने वाले अभिनेता थे टॉम ऑल्टर

रंगमंच की दुनिया में टॉम ऑल्टर का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है. वह न सिर्फ उर्दू में नाटकों की स्क्रिप्ट पढ़ना पसंद करते थे, बल्कि उन्होंने मौलाना अबुल कलाम आजाद, मिर्जा गालिब, मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर जैसे कई चरित्रों को अपने अभिनय व उर्दू में महारत की वजह से मंच पर जीवंत भी किया. मसूरी में जन्मे टॉम की जड़ें अमेरिका से जुड़ी थीं. वर्ष 1972 में जब अभिनय की पढ़ाई के लिए उन्होंने फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में दाखिला लिया, तो वहां उर्दू उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा था और पहली बार वे वहीं उर्दू से परिचित हुए. फिर उनका उर्दू से जो प्रगाढ़ रिश्ता बना, वह आजीवन बना रहा. उर्दू सीखने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी. एफटीआइआइ में ही उनकी मुलाकात नसीरुद्दीन शाह से हुई. उन्होंने मिलकर थियेटर समूह ‘मोटली’ को स्थापित किया और रंगमंच की दुनिया में कदम रखा. भारतीय रंगमंच के इतिहास में एकल नाटकों में अभिनय के लिए टॉम को हमेशा याद किया जाता रहेगा. अपने नाटक ‘दिल्ली में गालिब’ में उनके निभाये मिर्जा गालिब के किरदार की चौतरफा प्रशंसा हुई. टॉम ने बॉलीवुड फिल्मों में भी कई किरदार निभाये.

उर्दू को धर्मविशेष से जोड़े जाने के सख्त खिलाफ थे डॉ नारंग

डॉ गोपी चंद नारंग उर्दू के एक बड़े आलोचक, विचारक और भाषाविद थे. उर्दू में अपनी महारत की वजह से नारंग भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में समान रूप से लोकप्रिय रहे. उन्हें पाकिस्तान सरकार की तरफ से सितारा-ए-इम्तियाज और भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण और पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित नागरिक सम्मानों से सम्मानित किया गया. नारंग का मानना था कि उर्दू की जड़ें हिंदुस्तान में हैं. वे भाषा को धर्म से जोड़े जाने के सख्त खिलाफ थे. सेंट स्टीफेंस कॉलेज से स्नातक के बाद वर्ष 1954 में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से उर्दू में स्नातकोत्तर की उपाधि ली. फिर उन्होंने सेंट स्टीफेंस कॉलेज में उर्दू पढ़ाया भी. उनकी एक समालोचना ‘साख्तियात पस-साख्तियात’ और ‘मशरीकी शेरियात’ के लिए उन्हें में साहित्य अकादेमी पुरस्कार (उर्दू) से सम्मानित किया गया. 50 से ज्यादा पुस्तकें लिखने वाले प्रो नारंग की पुस्तक रीडिंग्स इन लिटरेरी उर्दू प्रोज (1968) का प्रकाशन विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा किया गया था, जो ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी, तुर्की के विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम में शामिल है.

उर्दू फिक्शन में जान डालने वाले कथाकार कृष्ण चंदर

कृष्ण चंदर की पहचान उर्दू फिक्शन के एक मशहूर लेखक व कथाकार के रूप में होती है. कृष्ण चंदर ने कहानियां, उपन्यास, व्यंग्य लेख, नाटक जैसी सभी विधाओं में लिखा, मगर उनकी मुख्य पहचान कथाकार के तौर पर ही बनी. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बंगाल में पड़े भीषण अकाल पर लिखी ‘अन्नदाता’ उनकी कालजयी रचना मानी जाती है. इस कहानी को लिखने के साथ ही उर्दू अदब में उनकी पहचान अफसाना निगार के रूप में होने लगी थी. इसके अलावा गड्डा, दानी, पूरे चांद की रात, आधे घंटे का खुदा जैसी उनकी कई दूसरी कहानियां भी उर्दू फिक्शन में क्लासिक मानी जाती हैं. कृष्ण चंदर की ज्यादातर कहानियां ऐसे इंसानों पर केंद्रित हैं, जिनको दूसरे लोग आमतौर पर नोटिस भी नहीं करते, जैसे- उनकी कहानी ‘कालू भंगी’ में वे बड़े ही मार्मिकता से समाज में सबसे ज्यादा हाशिये पर रहने वाले समुदाय के एक शख्स ‘कालू’ की जिंदगी की दास्तां को बयां करते है. अविभाजित भारत के गुजरांवाला में जन्मे कृष्ण चंदर ने बंटवारे की त्रासदी पर अपनी कई कहानियां और रचनाएं लिखीं. उनकी कहानी ‘पेशावर एक्सप्रेस’ भारत-पाक बंटवारे की दर्दनाक दास्तां को बयां करती है.

राही मासूम रजा की बेहतरीन नज्मों में एक है ‘देश में निकला होगा चांद’

राही मासूम रजा ने अपने लेखन का आरंभ शायरी से किया था, लेकिन बाद में शायरी छोड़ गद्य लिखने लगे. फिल्मों से आकर्षण की वजह से वे बंबई (मुंबई) चले गये. मुंबई उनके लिए साहित्यिक लेखन के दृष्टिकोण से भी उर्वर रही, जहां उन्होंने आधा गांव, दिल एक सादा कागज, ओस की बूंद, हिम्मत जौनपुरी जैसे उपन्यास लिखे. ये सभी कृतियां हिंदी में थीं, लेकिन इनमें उर्दू की छाप साफ नजर आती है. इससे पहले वह उर्दू में नज्म और गजल लिखते रहे थे. मुंबई में संघर्ष के क्रम में बीआर चोपड़ा और राज खोसला की दोस्ती उनके काम आयी, जो उन्हें फिल्मों में काम देने लगे थे. बीआर चोपड़ा ने बेहद लोकप्रिय हुए ‘महाभारत’ का पटकथा लेखन उनसे कराया. रजा के अन्य उपन्यासों में टोपी शुक्ला, मुहब्बत के सिवा, असंतोष के दिन, नीम का पेड़ आदि प्रमुख हैं. नया साल, मौजे-गुल : मौजे-सबा, रक्से-मय, अजनबी शहर के अजनबी रास्ते, गरीबे शहर उनके प्रमुख उर्दू काव्य-संग्रह हैं. ‘देश में निकला होगा चांद’, उनकी बेहद लोकप्रिय नज्म है, जिसे जगजीत सिंह-चित्रा सिंह ने पहली बार गाया था. उन्होंने कई सफल फिल्मों और धारावाहिकों के लिए पटकथा व संवाद लेखन किया.

अपनी गीतों में उर्दू के शब्दों को खूबसूरती से पिरोते हैं गुलजार

गुलजार नाम से प्रसिद्ध संपूर्ण सिंह कालरा एक जानेमाने गीतकार हैं. वे कवि, पटकथा लेखक, फिल्म निर्देशक, नाटककार तथा प्रसिद्ध शायर भी हैं. उर्दू से गुलजार की मुहब्बत किसी से छिपी नहीं है. इनकी रचनाएं मुख्यतः हिंदी, उर्दू तथा पंजाबी में हैं. बंटवारे से पहले पंजाब में झेलम जिले के दीना गांव में जन्मे गुलजार का परिवार बंटवारे के बाद पंजाब के अमृतसर में आकर बस गया. परिवार के लोगों के विपरीत गुलजार शुरू से ही लेखक बनना चाहते थे. पद्म भूषण से नवाजे जा चुके गुलजार ने नज्म में एक नयी विधा ‘त्रिवेणी’ का आविष्कार किया है. गुलजार मानते हैं कि उर्दू जुबां गरीबी में नवाबी का मजा देती है. गुलजार साहब जिस खूबसूरती से अपनी शायरी व गीतों में उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हैं, वह मन को मोह लेता है. फिल्म हैदर के एक गाने ‘लब तेरे यूं खुले जैसे हर्फ थे, होंठ पर यूं घुले जैसे बर्फ थे’ में उन्होंने उर्दू के शब्द हर्फ का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ होता है अक्षर.

भारतीय उपमहाद्वीप के महान उर्दू कहानीकार सआदत हसन मंटो

सआदत हसन मंटो को भारतीय उपमहाद्वीप का महान उर्दू कहानीकार माना जाता है. उनकी कहानियां भारत-पाक विभाजन के दंश का प्रमाणिक दस्तावेज हैं. मिर्जा गालिब के बाद शायद वे पहले लेखक हैं, जिन पर फिल्म भी बनी है. मंटो पर कई बार लेखन के लिए मुकदमे भी चले और पाकिस्तान में 3 महीने की कैद भी हुआ. फिर उसी पाकिस्तान ने उनके मरने के बाद उनको सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘निशान-ए- इम्तियाज’ से भी सम्मानित किया. उनकी एक कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ करोड़ों पाठकों ने पढ़ी और उस पर आधारित अनेक नाटकों का मंचन हो चुका है. मंटो की पूरी उम्र कहानियां, रेडियो नाटक, रेखाचित्र, संस्मरण और लेख लिखने में कटी. वह जीवटता से भरे रचनाकार थे. मंटो के बगैर उर्दू कहानी पर कोई बात करना बेमानी है. उनकी मशहूर कहानियों में ठंडा गोश्त, खोल दो, बू, काली सलवार आदि शामिल हैं.

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