भाषाओं को मरने से रोकना है, तो उन्हें प्रयोग में रखना होगा अन्यथा परिणाम हमारे सामने हैं. देश में पहले 16000 से अधिक भाषाएं बोलीं जाती थीं, जबकि अब चलन में छह हजार भाषाएं ही हैं. यह कहना है रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के कोर्डिनेटर डाॅ हरि उरांव का.
प्रयोग बढ़ाने से बचेगी मातृभाषा

21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है. इस मौके पर प्रभात खबर के साथ बात करते हुए डाॅ हरि उरांव ने कहा कि मातृभाषा वह भाषा है, जिसमें एक बच्चा अपनी मां से परिवार से बात करना सीखता है. परिस्थितियों के अनुसार कई बार बच्चा अपनी मां की भाषा से अलग भाषा सीख जाता है और वही उसकी मातृभाषा बन जाती है. ऐसे में वह अपनी मां की भाषा से अलग हो जाता है और उसकी मातृभाषा पर संकट उत्पन्न हो जाता है. किसी भी मातृभाषा को बचाने के लिए यह सबसे जरूरी है कि उसके प्रयोग को बढ़ाया जाये. अगर मां और परिवार के अन्य लोग बच्चे से उसकी मातृभाषा में बात करेंगे तो बच्चे का जुड़ाव अपनी मातृभाषा से बना रहेगा. प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने से भी बच्चे का जुड़ाव मातृभाषा से बना रहेगा. किसी भी भाषा का साहित्य उस भाषा को समृद्ध करता है इसलिए मातृभाषा को बचाने में उसकी भी अहम भूमिका है.
मातृभाषा का अंत समुदाय के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न

झारखंड के साहित्यकार और प्रसिद्धरंग कर्मी महादेव टोप्पो का कहना है कि अगर मातृभाषा नष्ट होती है तो आपकी सांस्कृतिक और भौगोलिक पहचान पर भी खतरा मंडराता है. किसी भाषा से आपकी परंपरा -संस्कृति जुड़ी होती है. उदाहरण स्वरूप कुड़ुख भाषा में सरहुल का जो नाम है उसका स्पष्ट अर्थ है -धरती का विवाह. लेकिन जब हम सरहुल कहते हैं तो उससे स्पष्ट नहीं होता है कि इस त्योहार का महत्व क्या है और यह त्योहार क्यों मनाया जाता है. यह हमारे मातृभाषा की विशेषता है कि वह सबकुछ स्पष्ट बताता है. लेकिन जब हम अपनी मातृभाषा से दूर होंगे तो हम अपनी परंपराओं और संस्कृति से भी दूर होंगे. परिणाम यह हो रहा है कि लोग अपने मूल जीवन पद्धति और जीवन की सोच से अलग हो रहे हैं, जो किसी समुदाय के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न है. मातृभाषा को बचाने के लिए यह जरूरी कि लोगों को जागरूक किया जाये. हमारे जैसे बुजुर्गों को पहल करनी चाहिए. मातृभाषा को प्रयोग में लाना होगा. हमने अपने समाज के सहयोग से 25 ऐसे निजी स्कूल खोले हैं, जहां कुड़ुख भाषा में पढ़ाई हो रही है. यहां के बच्चे तोलोंग सिकि जो कुड़ुख भाषा की लिपि है उसी में पढ़ाई कर रहे हैं. यह एक अच्छा प्रयास है. साथ ही साहित्य रचना और फिल्मों के निर्माण के जरिये भी कुड़ुख भाषा को बचाने का प्रयास किया जा रहा है.
मातृभाषा में नौकरी नहीं मिलती इसलिए लाभ की भाषा हावी

हिंदी और मैथिली भाषा की प्रसिद्ध साहित्यकार डाॅ उषा किरण खान कहती हैं कि आज जिस तरह का समाज शहरों में बन रहा है, उसमें मातृभाषा के अस्तित्व पर खतरा तो मंडरा रहा है. वैसे भी जब हम कोई दिवस मनाने लगते हैं, तो इसका अर्थ ही यही है कि खतरे की घंटी बज चुकी है. मेरा ऐसा मानना है कि मातृभाषा में पढ़ाई होना अच्छी बात है, अगर उस भाषा का व्याकरण समृद्ध है तो यह किया जा सकता है, लेकिन यहां यह भी देखना होगा कि हजारों-लाखों ऐसे लोग हैं जो पढ़े-लिखे नहीं है और अपनी मातृभाषा में बात करते हैं, अगर ये लोग अपनी मातृभाषा से दूर होंगे तो उन्हें कैसे रोका जायेगा? आज की सच्चाई यह है कि मातृभाषा में नौकरी नहीं मिलती, यही वजह है कि लाभ की भाषा तो बच रही है, लेकिन मातृभाषा के अस्तित्व पर संकट है. बहुत संभव है कि आज से कुछ साल बाद सिर्फ वही भाषाएं बचें जो लाभ की भाषाएं हैं. मातृभाषा को बचाने के लिए सबसे जरूरी है कि जैसे हम अपनी मां से प्रेम करते हैं, उसका आदर करते हैं वैसे ही मातृभाषा से भी करें. इसके लिए जागरूकता जरूरी है. मातृभाषा का अपमान हमें अपने जड़ों से दूर करता है. अपनी संस्कृति और परंपराओं की रक्षा के लिए भी हमें अपनी मातृभाषा से जुड़कर रहना चाहिए. वाचिक परंपरा का साहित्य भी मातृभाषा को बचाने में अहम भूमिका निभा सकता है. साथ ही लोकगीत, मुहावरे भी अहम हैं जो हम अपने परिवार में मां, नानी-दादी से सुनते और सीखते हैं.
प्रतियोगिता परीक्षा में मातृभाषा को शामिल करना सराहनीय

नागपुरी साहित्यकार शकुंतला मिश्र का कहना है कि जब हम अपनी मातृभाषा की बात करते हैं हम उस भाषा की बात करते हैं जो हमने अपनी मां, परिवार और समाज से सीखी होती है. लेकिन कई बार परिस्थितियों की वजह से बच्चा अपनी मातृभाषा को नहीं सीख पाता और अपने परिवेश की भाषा को सीखता है. मसलन अगर हम नागवंशी राजाओं की बात करें तो जो मान्यता है उसके अनुसार उनकी माता बनारस की थीं, लेकिन फणीमुकुट राय के जन्म के बाद उनकी मौत हो गयी. पिता का साया भी उनके सिर पर नहीं था, उस वक्त मुंडा राजा ने उनकी परवरिश की, ऐसे में उन्हें मुंडारी बोलना चाहिए था. लेकिन शाहदेव राजवंश ने नागपुरी भाषा को एडाप्ट किया और वही उनकी मातृभाषा है. आज जो समाज विकसित हो रहा है उसमें मातृभाषा पर संकट है. मातृभाषा के नष्ट होने से उस जाति -समुदाय की परंपराओं का भी अंत होता है. ऐसे में मातृभाषा को बचाने के लिए लोगों को जागरूक होना होगा. झारखंड सरकार ने प्रतियोगिता परीक्षाओं में मातृभाषा को शामिल किया है, यह सराहनीय पहल है. अभी तक झारखंड में नौ भाषाओं जिसमें पांच जनजातीय भाषा कुड़ुख, मुंडारी हो, संताली, खड़िया और चार क्षेत्रीय भाषा नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया और कुरमाली को लेकर सरकारें चली थीं, लेकिन अब प्राथमिक शिक्षा में सिर्फ जनजातीय भाषाओं की बात की गयी है, जो मेरे दृष्टिकोण से उचित नहीं है. मातृभाषा के प्रयोग को बढ़ावा देना होगा. इन नौ भाषाओं की अकादमी की स्थापना होनी चाहिए. साहित्य जगत मातृभाषा में समृद्ध होगा तो भाषाएं भी संरक्षित होंगी.