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Natkhat Film Review : समाज के कई बड़े मुद्दों और परेशानियों को समेटे हुए है लघु फ़िल्म ‘नटखट’, यहां पढ़ें रिव्‍यू

natkhat film review vidya balan short film Natkhat Enters Race for Oscars 2021 bud : बीते साल 2020 में कोरोना महामारी के वक़्त फ़िल्म नटखट का 2 जून को यूट्यूब पर प्रीमियर हुआ था. उस वक़्त भी इस फ़िल्म ने जबरदस्त सुर्खियां बटोरी थी. अब यह फ़िल्म फिर से चर्चा में है. यह फ़िल्म ऑस्कर 2021 में बेस्ट शार्ट फ़िल्म कैटेगरी की रेस में शामिल हो गयी है.

Natkhat Film Review

फ़िल्म : नटखट

निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला,विद्या बालन

निर्देशक : शीन व्यास

कलाकार : विद्या बालन, सानिका पटेल, राज अर्जुन, अतुल तिवारी और अन्य

रेटिंग : चार

बीते साल 2020 में कोरोना महामारी के वक़्त फ़िल्म नटखट का 2 जून को यूट्यूब पर प्रीमियर हुआ था. उस वक़्त भी इस फ़िल्म ने जबरदस्त सुर्खियां बटोरी थी. अब यह फ़िल्म फिर से चर्चा में है. यह फ़िल्म ऑस्कर 2021 में बेस्ट शार्ट फ़िल्म कैटेगरी की रेस में शामिल हो गयी है. गौरतलब है कि विद्या बालन इस फ़िल्म की निर्माता भी हैं. 30 मिनट की यह फ़िल्म पितृसत्ता समाज ,लैंगिक असमानता , घरेलू हिंसा, रेप, छेड़छाड़ जैसे गंभीर मुद्दों पर बात करती है.

फ़िल्म की कहानी पांच वर्षीय सोनू (सनिका) और उसकी मां की है. सोनू समाज और अपने घर की पितृसत्ता सोच से प्रभावित हो रहा है. लड़कियों को मारना,उनका दुपट्टा खींचना,सीटी मारना उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार लगता है.एक रात पूरा परिवार साथ में खाना खा रहा होता है.चाचा,दादा और पिता लड़कियों को सबक सीखाने पर बात कर रहे थे तभी पांच वर्षीय सोनू कहता है कि उसे उठाकर जंगल ले जाओ फिर वह तंग नहीं करेगी.

दादाजी (अतुल तिवारी) हंसते हुए कहते हैं कि छोटे से कुछ सीखो. अपने पांच वर्षीय बेटे के मुंह से यह बात सुनकर उसकी मां (विद्या बालन) चकित रह जाती है. वह फैसला करती है कि वह दूसरे पुरुषों की तरह अपने बेटे को नहीं बनने देगी. वह खुद भी घरेलू हिंसा का शिकार है.वह औरतों के दर्द को बखूबी समझती है।मां सोनू को रात को सोते हुए कहानी सुनाती है.कैसे वो कहानी सोनू की सोच और व्यक्तित्व को बदलती है. यही आगे की कहानी है.

फ़िल्म बहुत सशक्त तरीके से इस बात को रेखांकित करती है कि जब कोई बच्चा गलती करें तो मां बाप को यह नहीं कहना चाहिए अभी छोटा है. लड़के लड़के ही रहेंगे.बच्चे नहीं तो कौन मस्ती करेगा बल्कि ये मां बाप की जिम्मेदारी है कि गलती को सुधारे.अपने बेटे को समझाए. फ़िल्म की कहानी बहुत ही खूबसूरती से अहम मुद्दों को उठाती है. हमारे समाज में लड़कियों के साथ हो रहे शोषण,दोयम दर्जे के व्यवहार और लड़कों को मिल रही छूट को फ़िल्म के अलग अलग दृश्यों के ज़रिए बखूबी बयां किया गया है.जो आपको सोचने पर मजबूर कर जाते हैं.कहानी के अंदर एक कहानी है और जिसे विद्या बालन का किरदार नरेट कर रहा है.जिस तरह से वह कहानी को नरेट करती हैं. वह आपको अंदर तक छू जाती है.

अभिनय की बात करें तो यह लघु फ़िल्म एक बार फिर इस बात को पुख्ता करती है कि विद्या बालन मौजूदा दौर की सबसे बेहतरीन अभिनेत्री क्यों कहीं कही जाती हैं. उन्होंने अपने किरदार को अपने बॉडी लैंग्वेज, संवाद अदायगी, चेहरे की चोटों से बखूबी जिया है. बाल कलाकार सानिका से पहले ही दृश्य से लगाव हो जाएगा. जब वो कहती है कि मां जलेबी बनाओ वो दृश्य हो या लड़कियों का दुप्पटा खींचना हर सीन नन्ही सनिका ने कमाल किया है. बाकी के कलाकारों ने भी अपने किरदारों को कम स्पेस टाइम में बखूबी जिया है.

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फ़िल्म के संवाद कहानी को और प्रभावी बनाते हैं. लड़का है हो जाता है. लड़की भला लड़के को कैसे मार सकती है. जब कोई लड़की तंग करें तो उसे उठाकर जंगल ले जाओ फिर वह तंग नहीं करेगी. ईश्वर की हर रचना अनोखी है और समान है.

फ़िल्म के दूसरे पहलू भी अच्छे बन पड़े हैं. कुलमिलाकर यह फ़िल्म बहुत सशक्त तरीके से पितृसत्ता और लड़के तो लड़के ही रहेंगे जैसी सोच पर सशक्त तरीके से चोट करती है. हर माता पिता को यह फ़िल्म ना सिर्फ देखनी चाहिए बल्कि इस फ़िल्म से जुड़े संदेश को अपने बेटे की परवरिश में शामिल भी करना होगा.

Posted By : Budhmani Minj

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