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फिल्‍म रिव्‍यू : ”विस्‍की” और ”पानी” का मिश्रण और अमिताभ की आवाज है ”शमिताभ”

II अनुप्रिया अनंत II फिल्म का नाम: शमिताभ डायरेक्टर: आर बाल्कि स्टार कास्ट: अमिताभ बच्चन, धनुष, अक्षरा हसन अवधि: 153 मिनट सर्टिफिकेट: U/A रेटिंग: 3.5 स्टार आर बाल्की ने अमिताभ बच्चन के जन्मदिन के खास मौके पर अमिताभ को तोहफे के रूप में ‘षमिताभ’ का कांसेप्ट सुनाया था और उसी दिन अमिताभ ने हामी भर […]

II अनुप्रिया अनंत II

फिल्म का नाम: शमिताभ

डायरेक्टर: आर बाल्कि

स्टार कास्ट: अमिताभ बच्चन, धनुष, अक्षरा हसन

अवधि: 153 मिनट

सर्टिफिकेट: U/A

रेटिंग: 3.5 स्टार

आर बाल्की ने अमिताभ बच्चन के जन्मदिन के खास मौके पर अमिताभ को तोहफे के रूप में ‘षमिताभ’ का कांसेप्ट सुनाया था और उसी दिन अमिताभ ने हामी भर दी थी. आर बाल्की की षमिताभ उन तमाम कलाकारों को समर्पित फिल्म है, जो मेहनत, जुनून और जज्बे से सिनेमा की दुनिया में कदम रखते हैं. साथ ही यह उन तमाम गुमान और गुरुर में मदहोश रहनेवाले कलाकारों को भी आंख दिखाती है, जो इस घमंड के नशे में चूर रहते हैं कि वे अकेले ही दुनिया में राज कर सकते. बॉलीवुड ही नहीं, दुनिया में तमाम सिनेमा की दुनिया से संबंध रखने वाले कलाकार इस घोर विश्वास में जीते हैं, कि उनसे प्रतिभाशाली व्यक्ति पूरी दुनिंया में नहीं हैं.

कई हुक्ममरान निर्देशकों के जेहन में यह बात होती है कि वे अपने दम पर फिल्म बना सकते. फिर उनकी कहानी में कोई भी हो. बॉलीवुड में ऐसे कई दिग्गज शख्सियत हैं, जो आत्म मुग्ध हैं और अक्सर वह कहते फिरते हैं कि उन्होंने इसे स्टार बनाया. उन्होंने इसे सुपरस्टार बनाया. कई सुपरस्टार्स भी इस गुमान में रहते हैं कि उनके पास लुक्स है, स्टाइल है तो उन्हें कहानी की क्या जरूरत. वह हिट हैं. लेकिन आर बाल्की की षमिताभ उन तमाम लोगों को पाठ पढ़ाती है कि जिंदगी भी सिनेमा है.

जब जिंदगी किसी एक के सहारे नहीं जी सकती तो सिनेमा की परिकल्पना कैसे कर सकते. फिल्म का शीर्षक यों ही षमिताभ नहीं है. बाल्की का विजन इस शीर्षक से स्पष्ट होता है. यह कहानी किसी गूंगे व्यक्ति या किसी व्यक्ति के स्टार न बनने की खींझ की कहानी नहीं. बल्कि यह दो कलाकार के अहं और अहं में विनाश की कहानी है. सिनेमा तिलिस्म है. क्यों है. आर बाल्की अपनी इस फिल्म से सिनेमा के उस तिलिस्म को दर्शाने में कामयाब रहे हैं. सिनेमा क्यों इश्क, है जुनून है. और इश्क व जूनून उसे किस हद तक ओंछापन करने पर भी मजबूर कर देते हैं.

यह इस फिल्म में दर्शाया गया है. दरअसल, बाल्की की यह फिल्म दो पैरलल कहानियां साथ लेकर चली हैं, जहां वह एक ही साथ सिनेमा की दुनिया की कड़वी सच्चाईयों को बिना सनसनी फैलाये दर्शकों के सामने रखते हैं तो दूसरी तरफ वे इस दुनिया में बिना किसी व्यक्ति विशेष का नाम का इस्तेमाल किये उसका माखौल भी उड़ाते हैं. फिल्म के एक दृश्य में आकर जब कलाकार निर्णय लेता है कि वह दुनिया के सामने सच स्वीकारेगा और उस सच के भी क्या फायदे व नुकसान हैं, इस पर भी विशेष चर्चा होती है. चूंकि सिनेमा बाजार है. और इसमें काम कर रहे लोग जुआरी.

वह मूल्यांकन किये बगैर आगे नहीं बढ़ते. लेकिन किसी कारणवश वह सच सामने नहीं आ पाता.और सिनेमा का वह तिलिस्म बरकरार ही रहता है. आर बाल्की ने षमिताभ के माध्यम से स्पष्ट रूप से यह भी दर्शाने की कोशिश की है कि फिल्मी दुनिया के वह नकाबपोशी चेहरा ही दर्शकों के सामने आता है, जो फिल्मी स्टार्स दिखाना चाहते हैं और वे उसी पर भरोसा करते हैं. शेष एक नकाब के पीछे कितने नकाब और कितने झूठ हैं.जो कभी सामने नहीं आते. लेकिन सिनेमा का यही असली मजा है. झूठ है, कल्पना है. तभी सिनेमा है.

एक कलाकार शुरुआत से सिनेमा को लेकर इस कदर जुनूनी रहता है कि वह हर हाल में मुंबई पहुंचता है. चूंकि उसे बी का मतलब बेन किनस्ले नजर आता है. गांधी की पत् नी का नाम कस्तूरबा गांधी का किरदार निभा चुकीं रोहिणी के रूप में ही याद रहता है. लेकिन कामयाबी के साथ किस तरह कलाकार मतलबी हो जाता है और वे एक दूसरे को नीचा गिराने के लिए किस तरह गिरी हरकतें कर सकता. यह फिल्म में बखूबी दर्शाया गया है.

शायद बाल्की ने अमिताभ को यह फिल्म जन्मदिन तोहफे में दी थी, तो इसी बात को मद्देनजर रखते हुए किसी दौर में अमिताभ की आवाज की वजह से अमिताभ को कई ठोकरे खानी पड़ी थी. इस फिल्म में इसे दस्तावेज बना कर और एक कलाकार की ताकत बना कर प्रस्तुत किया गया है.

अमिताभ आज जिस मुकाम पर हैं, कई लोगों को उनसे शिकायत रही हैं. इंडस्ट्री के कई दिग्गजों ने स्वीकारा है कि अमिताभ को अमिताभ बनाने में उनकी अहम भूमिकाएं रही हैं. लेकिन अमिताभ आज उन्हें याद नहीं करते. यह फिल्म उन दिग्गजों को भी जवाब देती है कि हकीकत यह है कि अगर अमिताभ में कोई बात नहीं होती, वे वाकई प्रतिभाशाली नहीं होते तो कोई कहानी, कोई संवाद उन्हें कामयाब नहीं बनाता. सिनेमा टीम वर्क है. यह फिल्म अमिताभ समेत उन तमाम सितारों की कहानियां भी साथ लेकर चलती है. एक कलाकार अपनी आवाज, अपने अभिनय व मेहनत से आगे बढ़ता है. निस्संदेह उसे संवारने में लेखक, निर्देशक सभी का साथ होता है. ऑडियो के बिना वीडियो और वीडियो के बिना ऑडियो विजुअल मीडियम में आधे अधूरे हैं.

फिल्म की नायिका कहती है कि तुम में स्टारों वाली बात है. स्टारी टैंटरम भी है. एक्टिंग भी कर लेते हो. बाल्की ने फिल्म में साबित भी किया है कि एक कलाकार क्यों जन्मजात ही कलाकार बन जाता है कि वह क्रबिस्तान में भी रहता है तो खुद को जहांपनाह कहलाना चाहता है. वह किरायेदार होकर भी किस तरह मालिक पर मालिकाना हक जमाता है. वह किस रुआब से रहता है.

सबसे खास बात यह है कि यह फिल्म किसी भी रूप में भाषणबाजी नहीं करती.

आर बाल्की की यह सोच भी लाजवाब है कि उन्होंने धनुष जैसे आम लुक वाले कलाकार को चुना और दूसरी तरफ महानायक को. यह फिल्म इन दो कलाकारों के बिना अधूरी थी. धनुष और अमिताभ बच्चन ने फिल्म को सार्थक किया है. शुक्रिया आर बाल्की का, चूंकि उनकी फिल्मों के माध्यम से हम हर बार अलग अलग अमिताभ से मिलते हैं. और अमिताभ से यूं ही मिलना निश्चित तौर पर दर्शकों के बेहद लुभायेगा. अक्षरा ने अच्छी शुरुआत की है.

धनुष रांझणा के बाद एक बार फिर साबित करते हैं कि वे अदभुत अभिनेता हैं. वे किरदार में हर तरह से ढल जाते हैं और कमाल करते हैं. उन्हें अपने बेहतरीन अभिनय के लिए लुक्स की जरूरत नहीं . एक स्टार के लिए शारीरिक बनावट ही सबकुछ नहीं वह इस फिल्म से साबित करते हैं.

और हां, विस्की और पानी के समीकरण को फिल्म में बखूबी दर्शाया गया है. विस्की का इस गुमान के नशे में रहना भी सही नहीं कि वह बिना पानी के भी हर बार चढ़ती है. और पानी का भी इस अहं में रहना है कि वह पानी है तो संपूर्ण है. शेष फिल्म देखें तो इस तिलिस्म को समझ पायेंगे.

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