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सस्सी-पुन्नू ने वियोग में मरुभूमि पर दे दी जान

सस्सी-पुन्नू की प्रेम कहानी पंजाब की धरती में गहराई से रची-बसी है. हिंदू राजकुमारी सस्सी को एक मुसलमान धोबी ने पाला़ उसे एक भोले युवक पुन्नू से प्यार हुआ़ सस्सी-पुन्नू की लोककथा संगीत के राग मुल्तानी काफी में जब गायी जाती है, तो वह श्रोताओं की अांखें नम कर देती है. पुन्नू ने रेत के […]

सस्सी-पुन्नू की प्रेम कहानी पंजाब की धरती में गहराई से रची-बसी है. हिंदू राजकुमारी सस्सी को एक मुसलमान धोबी ने पाला़ उसे एक भोले युवक पुन्नू से प्यार हुआ़ सस्सी-पुन्नू की लोककथा संगीत के राग मुल्तानी काफी में जब गायी जाती है, तो वह श्रोताओं की अांखें नम कर देती है. पुन्नू ने रेत के टीले पर अपनी जान दे दी, जहां दुल्हन के वस्त्र पहने सस्सी ने अपने प्राण त्यागे थे़
सस्सी का जन्म भंबोर राज्य के राजा के घर तब हुआ जब राजा अपने घर में नन्हे बालक की किलकारी सुनने को सालों तक तरस चुका था. लाख मिन्नतों, मन्नतों, दान-दक्षिणा के बाद एक खूबसूरत-सी नन्ही परी ने राजा के आंगन को अपनी किलकारियों से नवाजा.
इस बच्ची के जन्म के समय ही ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी कर दी कि यह बड़ी होकर अनोखा इश्ककरेगी. यह सुनते ही राजपरिवार के खिले चेहरे स्याह पड़ गये! अभी तो वे अपनी चांद-सी बेटी के जन्म का जश्न भी नहीं मना पाये थे कि भविष्यवाणी ने उनका उत्साह ठंडा कर दिया. बच्चे के लिए सालों तक तरसनेवाला पिता अचानक कसाई बन गया. उसने अपनी फूल-सी बच्ची को मारने का हुक्म दे डाला. पर मंत्रियों ने मंत्रणा कर बच्ची को संदूक में डाल नदी में बहा देने का सुझाव दिया.
तब राजा ने बेटी को सोने से भरे संदूक में डाल उफनती नदी की भयानक लहरों के हवाले कर दिया़ एक धोबी ने नदी में डूबता-उतराता संदूक देखा और उसे निकाल कर खोला़ इतना सारा सोना और नन्ही-सी प्यारी बच्ची को पा कर वह अपनी किस्मत पर इतराया़ बच्ची सही-सलामत थी, शायद उसकी नियति में यही लिखा था. बच्ची को चंद्र कला के समान सुंदर देख कर उसका नाम सस्सी (शशि का स्थानक प्रयोग) रखा गया़ साल दर साल बढ़ती सस्सी की सुंदरता के चर्चे दूर-दूर तक होने लगे. धोबी समाज में से ही किसी ने जा कर भंबोर के राजा को बताया कि एक धोबी के घर अप्सरा-सी सुंदर कन्या है, जो राजमहल की शोभा बनने के लायक है.
बस फिर क्या था! अधेड़ राजा ने सस्सी के घर विवाह का न्योता भेज दिया. सस्सी का पालक पिता इसी उधेड़बुन में था कि सोने से भरे संदूक में मिली बच्ची जाने किस ऊंचे खानदान से संबंधित है? उसे क्या हक है कि वह किसी की राजकुमारी को अपनी बेटी कह उसका रिश्ता कर डाले? राजा के बुलाने पर उसने सस्सी के जन्म समय का ताबीज जो उसके गले में था, राजा को दिखा कर अपनी मजबूरी बतायी़ उस ताबीज को देख कर राजा की स्मृतियां जाग उठीं! यह ताबीज तो उसकी बेटी के गले में था.
उसे अपनी नंगी नीयत पर शर्म आयी़ इधर सस्सी की रानी मां अपनी बेटी की ममता में तड़प उठी. वह सस्सी को महलों में वापस लाना चाहती थी, लेकिन संदूक में हृदयहीनता से बहा दिये जाने की घटना से वाकिफ सस्सी ने महलों में जाने से इनकार कर दिया. राजा ने धोबी के झोंपड़े को महल में बदल दिया. नौकर-चाकर, धन-दौलत से उस महल को भर दिया.
एक दिन सस्सी, नदी के रास्ते आनेवाले सौदागरों के पास पुन्नू की तसवीर देख उस पर मोहित हो गयी. और उससे मिलने को तड़पने लगी. पर दूर देश में रहनेवाला पुन्नू उससे अनजान ही बना रहा.
एक साल तक वह उसका पता-ठिकाना खोजती रही. अपने राजा पिता से अनुमति लेकर उसने नदी पर चौकी बिठाकर आने-जाने वाले सौदागरों से पूछताछ जारी रखी और एक दिन पुन्नू का पता पा लिया. सौदागरों ने इनाम के लालच में स्वयं को पुन्नू का भाई बताया़ सस्सी ने उन्हें गिरफ्तार करवा लिया और उन्हें पुन्नू को लेकर आने की शर्त पर ही छोड़ा.
सौदागरों ने पुन्नू के माता-पिता से उसे साथ ले जाने के लिए पूछा. उनके इनकार करने पर उन्होंने पुन्नू से बार-बार सस्सी की सुंदरता का जिक्र कर उसे अपने साथ चलने के लिए मना लिया.
पुन्नू को लेकर कारवां भंबोर लौटा. सौदागरों ने अपने ऊंट आजाद छोड़ दिये और उन ऊंटों ने सस्सी के बाग उजाड़ दिये. जिससे गुस्सा होकर सस्सी ने कारवां वालों की खूब खबर ली.
राजा की परित्यक्त बेटी अब राजकुमारी का जीवन बिताती थी. बागों में घने पेड़ों तले उसकी सेज हमेशा बिछी रहती थी, जहां वह सहेलियों के साथ घूमती-खेलती और थक कर सो जाती थी. पुन्नू कारवां से अलग घूमता-फिरता वहां पहुंच कर सस्सी की सेज पर सो गया. उधर कारवां पिटाई के डर से शोर मचाता इधर-उधर दौड़ रहा था. इसी चीखा-चिल्ली में पुन्नू की नींद टूटती है और सस्सी भी कारवां को खदेड़ती वहीं पहुंच जाती है.
और यहां प्रेम रस में डूबे दो प्रेमियों का प्रथम प्रत्यक्ष दर्शन होता है. सस्सी पुन्नू प्रेम में इस कद्र खो गये कि दस दिन कैसे गुजर गये पता ही नहीं चला. उधर पुन्नू की माता अपने पुत्र के वियोग में तड़पने लगी. ममता की मारी मां होशो-हवास खो बैठी. पुन्नू के भाइयो से मां का यह हाल देखा न गया और वे उसे लेने निकल पड़े.
सस्सी ने उसके भाइयों का बेहद प्यार और सम्मान से स्वागत किया. मन में बदला लेने की कुत्सित भावना से वशीभूत उन्होंने पुन्नू को साथ चलने के लिए कहा. उसके मना करने पर उन्होंने उसे खूब शराब पिलायी और बेहोशी की हालत में उसे साथ ले गये. सस्सी पर इसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी.
पुन्नू के भाइयों के धोखे से आहत वह प्रेम में बिताये मीठे क्षणों को याद कर कर के रोती तड़पती. पुन्नू के साथ घूमे हर स्थान पर जा उसे पुकारती. पागल सी हो गयी. जिस दीवार से उसने टेक लगायी थी उसे चूमती. जिस दरवाजे पर वह खड़ा हुआ था, उससे लिपटती. हर जगह उसे खोजती अपने-आप में ही न रही थी. सस्सी की मां उसे पुन्नू के धोखेबाज होने की दलील देती कि होश में आने के बाद उसे लौट आना चाहिए था, पर सस्सी हर दलील रद्द कर देती.
मां उसे लंबे जलते रेगीस्तान का डर दिखाती, लेकिन सस्सी तो पुन्नू से मिलने को बेकरार थी़ और इस तरह सस्सी चल पड़ी अपने पुन्नू की तलाश में. रेगिस्तान सन्न रह गया. उसकी आग शर्मसार हो गयी. तपती जलती रेत हार गयी और वह नाजुक-से कोमल पैरोंवाली चांद-सी सुंदर सस्सी अपने प्यार के लिए नियति ही नहीं, प्रकृति से भी टकरा गयी. नंगे पांव उस आग के दरिया में अकेली उतर गयी. क्रूर आतिश का दरिया उसे चिलचिलाती धूप, धधकती रेत और भयानक लू के थपेड़ों से जलाता चला गया.
एक भेड़ें चरानेवाला सस्सी को मिला पर उस निर्जन जलते रेगिस्तान में किसी लड़की को देख, वह विश्वास न कर सका और डर कर छिप गया. सस्सी की पुकार सुन कर भी वो उसकी मदद को न आया. कहते हैं सस्सी वहीं खत्म हो गयी. शायद रेगिस्तान ने ही अपने शर्मसार हाथों से उसे अपनी रेत में छिपा लिया था़
इधर पुन्नू होश में आते ही अपनी सस्सी के लिए तड़प उठा. वह भी रेगिस्तान पार करता उसी जगह पहुंचा, जहां आग का दरिया सस्सी को निगल गया था. पता नहीं किस भावना से वशीभूत हो, वही भेड़ें चरानेवाला उसे मिल गया जो अभी तक उस स्थान के समीप ही बैठा था, जहां सस्सी की रेतीली समाधि थी. वह पुन्नू को वहां ले गया. कहते हैं पुन्नू ने वहीं प्राण त्याग दिये.
और आखिर में…..
‘सस्सी-पुन्नू’ को 1932 में शारदा मूवीटोन नेरजत पट पर पेश किया़ 1933 में इस कहानी को महालक्ष्मी सिनेटोन ने ‘बुलबुले पंजाब’ उर्फ ‘फेयरी ऑफ पंजाब’ के नाम से फिल्माया़ इसके बाद 1935 में इस कथा को ‘सस्सी’ नाम से एवरेडी प्रोडक्शन ने फिल्माया़ वर्ष 1946 में वासवानी आर्ट प्रोडक्शंस ‘सस्सी-पुन्नू’ एक बार और फिल्म का रूप दिया़ ये सारी फिल्में सफल रहीं.

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