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नागपुरी : जिनहर पाईक के पॉपकॉर्न

II सुधीर कुमार II सबसे पहीलेे डाड़ में जाय के गोड़ के झाईर के अरी अरी आईर से होते होते लेंगा होथे जिनहर के फोईड़ लेउ आउर फीर उकर दाड़ी के नोचुु, चोका के छोड़ाउ फिर रोउंवा के फुदकू, फिर फुदकल जिनहर अगर गदराल हैं तो उके भथकिया हाथ में लेके गरम आंगोर में पाकाउ […]

II सुधीर कुमार II

सबसे पहीलेे डाड़ में जाय के गोड़ के झाईर के अरी अरी आईर से होते होते लेंगा होथे जिनहर के फोईड़ लेउ आउर फीर उकर दाड़ी के नोचुु, चोका के छोड़ाउ फिर रोउंवा के फुदकू, फिर फुदकल जिनहर अगर गदराल हैं तो उके भथकिया हाथ में लेके गरम आंगोर में पाकाउ सब बटे उलटाय पलटाय के गोयठा झुरी कर आंगोर में उलटाय पलटाय के सेकू.

अगर आंगोर मीझें लागी तो फुकनइर से फुुकू नही तो सूप से धूकू आंगोर नई मींझी अगर फाट फुट कर आवाज आवी तो ना डराब. जब सगरों पीयर होय जाए तो जिनहर कर आगा के सोरंडा से कूईच के पकाउ तले उपरे कर जिनहर गोटा पाईक के करिया होय जाय डड़ेक लगे बुझाय, तो समझू पाईक गेलक, आउर सोनध सोंध गमकेक लागी आउर जीव पनियाय लागलक तो खायक ले तैयार हय, लेकिन तनीक रूकू बाबा, बुचू एखन आउर माजा लागी उकर उपरे नेम्बू कर रस संगे सेनधा नून के मेसाय उकर उपरे रगदू रगदल बादे जिव ललचाई आउर रहन न जाई तो नून मरचई कर थोपा करते करते सीधे मुह के आ आा करू आउर हबकु आउर जीनगी कर अगमे माजा लेउ. हबकल जिनहर कर गोटा के खड़े खड़े ना लिलब नई तो लिलेक में दिकत होई पेट होड़होड़ाई, आकुड़ बाकुड़ लागी सेहेले चेबाय–चेबाय चहुवा में पगुराय पगुराय के खाउ.

पाकल जिनहर के आपने भी खाउ, छउवा पुता गोटा गोतिया के भी खीयाउ, निखईर निखईर के छोटका बुचू मन के बाटु संगी मन के भी देउ अगम सोंध लागी नूनू नेंबू से भीजंल जिनहर कर गोटा जइसे मुह में जाई सब दुख दरद के भूलाय जाब. निखरल जिनहर कर हाड़ही के हिने हूने ना फेकब लेरू छगरी मने चेबाय नई पारयना हाड़ही के सीधे मइनधगाड़हा में फेईक देउ जहां माईद बनेक में काम आवी.

आईज काईल तो छोछो बाबा फुईट के जिनहर पॉॅपकॉर्न होय गेलक जेके फिलीम देखेक पहर कतई कोई फोईल फोईल के खायना. बाबा रे बाबा इसनो मिसीन नीकललक जिनहर कर मंजी के देलय बटम चिपलय आउर तूरथे मंजी पट पुट कइर फुटयला आउर फुइट के चरका चरका बगरा बगरा होय जायला सेके कतई सुनदर कड़कढ़ी रंगल ठोंगा में दू कोरी कचीया में बेचयना. मने आब सब को पलासटीस में भोराल पॉॅपकॉर्न खयना. का कहुं पहीले हामरे कर नानी घरे जात रही तो नानी करीया गगरी कर फुटल भाड़ा में जिनहर कर पुरना गोटा के गरम बालु में दे के उलात रहे आउर काउर काउर कइर के धीपल धीपल फुटल जिनहर जे खाय ले अगम माजा से ई पॉॅपकॉन कर पार्टी नानी कर हाथ कर सवादे एक ओजरा में पेट भोइर जात रहे. झुला के खोयछा बनायके राखल जिनहर कुरूम कुरूम कईर के खाते रहू.

आउर तो आउर आइयों कर सिझाल जिनहर के कोईर् कईसे भूलाई बाबा रोज बिहान के ऐहे सावन वाला महिना डेकची में छोड़ाल जिनहर के डबकाय के सीझाय देलय और डबकत जिनहर सीझ के इसने बेरा सवाद की डेकची से निकलते बुझाल की कोमइर के ऐखने सीराय देवब. आउरो जे पहर सिलईठ में पीस के जिनहर कर रोटी आर सरसो कर साग कर माजा, ए बाबा जिनहर के खाउ, बीहीन राखू आउर रोपू आउर राजा बनू काहेकी राउर जिनहर कर बड़का बड़का होटल में तो आइज काईल तीयन बनेेेला गुरूवा कॉर्न, बुचू कॉर्न, कॉर्नमसाला/सलाद/हलुआ/पोलाव/कॉन कुरकुरे/ लेस आउर का जून बाबा कतई नाम आहे. लेकिन रउरे मन जिनहर के ना भुलाबा. आउर का कहब बाबा हाथ में जिनहर आलक तो एको कटीक उ परीया कर याइद आय गेलक.

जमींदारी के जुल्म का वह कारुणिक गीत

पारस नाथ सिन्हा

मेरे स्वर्गीय चाचा जी 1960-65 के वर्षों में हुसैनाबाद से लगभग 20 किलोमीटर दक्षिण के जंगलों में स्थित कसियाड के छोटे से गांव में रहते थे. गांव में परहिया आदिवासियों के 20-22 घर थे और एक भंडार जो भूतपूर्व जमींदार का था, जिसमे मेरे स्वर्गीय चाचा जी बराहिल की हैसियत से रहते थे और जमींदार के बचे खुचे जमीनों एवं उसकी खेती की देखभाल करते थे.

मैं भी कॉलेज के गर्मी अवकाश में उन्हीं के साथ रहता था और केंदु पत्ती के ठेकेदार की ओर से पत्तियां तोड़वाता, सुखवाताऔर पोला बना बना कर गिनती से बोरों में सीलबंद करवा कर भंडारण करवा देता था. इसके एवज में ठेकेदार से मुझे डेढ़ महीने की मजदूरी 45 रुपये मिलते थे जिससे मैं कॉलेज में अगले वर्ष का एडमिशन ले लेता था.

बैशाख जेठ की तपती या चिलचिलाती दुपहरी में भी परहिया जिन्हें बैगा भी कहा जाता था के वृद्ध, युवा, बच्चे स्त्री पुरुष सभी दिन भर भूखे प्यासे जंगल पहाड़ों के इस पेड़ से उस पेड़ तक चक्कर लगाते रहते थे और केंदु पत्तों को तोड़ तोड़ कर टोकरी, थैले, आंचल में सहेज-सहेज कर रखते जाते थे.

ईमानदारी इतनी कि मजाल नहीं कि उसमें दूसरे पत्ते धोखा देने की नीयत से मिला दें. दो-तीन दिन मुश्किल से मैं उनलोगों के साथ घने वनों के बीच में रह पाया. वहां न तो कुछ खाने को था न कुछ पीने को.

सभी नदी जलाशय तो सूखे रहते थे. तड़के सुबह वे जंगलों में कुछ खा-पीकर निकल जाते थे. बारह-एक बजते-बजते भूख प्यास से मैं अधमरा-सा हो जाता तो उसमें से कोई मुझे घर तक छोड़ आता था. रजनी बैगा, बनारसी बैगा, भूखन बैगा, गोहर बैगा, गोआली बैगा सभी बड़े संजीदा इंसान थे. घर पहुंचते के साथ अपने घर से दौड़ कर गुड़, पानी, मट्ठा लाकर मुझे खिलाते पिलाते और मेरे स्थिर होते के साथ नंगे पांव सीधे जंगल पहाड़ की ओर निकल जाते.

एक पूरा परिवार मुश्किल से दिन भर में एक रुपया कमा पाता था. यही उनका लक्ष्य भी रहता था. इन्हीं दिनों में वे चावल या रोटी खा पाते थे. बाकी के दिनों में तो वे लोग खनेया या गेठी खा कर रहा करते थे. गेठी एक पेड़ का जड़ था, जिसे वे रात भर पानी के बहाव में डाल कर छोड़ते थे. तब जाकर उसका कसैलापन हटता था. वरना वह नीम से भी ज्यादा कसैला होता था. इसके बाद भी खाने में कोई स्वाद नहीं मिलता था.

बच्चे तो जाड़ा, गर्मी, बरसात नंगे ही रहते थे. स्त्रियों के पास पर्याप्त कपड़े न होते थे. पुरुष प्रायः अधनंगे रहते थे. वनरक्षी की नजर बचा कर यदि एकाध पेड़ की डाली से कोई सामान बाजार में बेच पाए तो उसी से उनका कपड़ा वगैरह कुछ खरीदा जाता था. यही उनकी जिंदगी थी.

एक शाम अंधेरे में कुछ युवक मिल कर अत्यंत राग से गा रहे थे – “साग पात खा के पोसली प्राण, बाछा बेच के देली डांड, नहीं माने मुंशी, देवान ओ ओ ओ ओ ओ ओ…..

सुनते-सुनते मैं रोने लगा.

(लेखक सेवानिवृत्त वाणिज्य-कर उपायुक्त, झारखंड सरकार हैं.)

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