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स्मृति शेष : संवेदनाओं के पुंज का प्रयाण, जीवन में गहरी आस्था रखने वाले कवि थे केदारनाथ सिंह

मंगलेश डबराल, वरिष्ठ साहित्यकार यह हिंदी कविता का दुखद दौर है. कुछ महीने पहले कुंवर नारायण ने विदाई ली और अब केदारनाथ सिंह चले गये. इस प्रयाण के साथ हिंदी कविता के एक अहम युग का अवसान होता है. रघुवीर सहाय के बाद ये दोनों हमारे सबसे बड़े कवि थे. केदार जी का जाना इस […]

मंगलेश डबराल, वरिष्ठ साहित्यकार
यह हिंदी कविता का दुखद दौर है. कुछ महीने पहले कुंवर नारायण ने विदाई ली और अब केदारनाथ सिंह चले गये. इस प्रयाण के साथ हिंदी कविता के एक अहम युग का अवसान होता है. रघुवीर सहाय के बाद ये दोनों हमारे सबसे बड़े कवि थे.
केदार जी का जाना इस लिहाज से भी अप्रत्याशित है कि उन्हें कोई बीमारी नहीं थी. न दिल की कोई शिकायत थी और न ही रक्तचाप या मधुमेह की. इस अवस्था में निमोनिया घातक हो जाता है. उनसे अभी भी उत्कृष्ट रचनाओं की उम्मीद थी, क्योंकि वे निरंतर सक्रिय थे.
गीत-नवगीत से प्रारंभ कर वे कविता की आधुनिक संवेदना से जुड़े और फिर प्रगतिशीलता की ओर आये. उनकी कविताओं में संवेदना के विभिन्न धरातल हैं. लोक जीवन है, कस्बाई मिजाज है, शहरी अनुभव हैं.
वे लगातार गांव से जुड़े रहे थे और इसका एहसास उनकी रचनाओं में हमेशा मौजूद रहा है. चूंकि वे लंबे समय तक बनारस में रहे और अध्यापन किया, तो उनकी कविताओं में कस्बे के आयाम भी बखूबी मौजूद हैं. और, फिर महानगर तो है ही. संवेदनाओं की इतनी सतहों की उपस्थिति उनकी कविता को बड़ी उत्कृष्टता देती है. नागर के बीच गांव और कस्बे की प्रतिष्ठा उनका हासिल है.
उनका गद्य भी अप्रतिम है. उनसे साहित्य जगत को यह अपेक्षा रहती थी कि वे ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ जैसा गद्य रचें. अन्य रचनाओं कर साथ उनके काव्य-संग्रह- ‘जमीन पक रही है’ और ‘सृष्टि पर पहरा’- साहित्य को उनका अप्रतिम योगदान हैं.
जैसी कोमलता और सादगी उनकी रचनाओं में परिलक्षित होती है, वे व्यक्तिगत जीवन में भी वैसे ही थे. मिलनसार, आत्मीय और बतकही करनेवाले शख्स थे केदार जी. उनके साथ बात करना और रहना बेहद सुंदर अनुभव होता था.
उनके पास अद्भुत संस्मरणों का पूरा खजाना था. केदार जी कविता के बारे में बहुत कम बात करते थे और सामान्य जीवन एवं उस जीवन में आये आम किरदारों की चर्चा किया करते थे. मिलने-जुलने में वे कभी भी अपने ज्ञान की गरिमा या वरिष्ठता को लादते न थे, बल्कि अनुभव की बारीकियों का साक्षात्कार कराते थे. वे अपने बेहद निजी जीवन के बारे में चर्चा से भी बचते थे. पत्नी के देहांत के बाद वे उनकी अनुपस्थिति को गहरे तक महसूस करते थे. बेटियों के करीब थे और उनसे लगाव बहुत सघन था. उनका जाना बड़ी क्षति है. अब तो बस उनकी रचनाओं का ही संग है.
जन्म 01 जुलाई, 1934
जन्म स्थान उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव में
शिक्षा 1956 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए, 1964 में पीएचडी की उपाधि
विधाएं कविता, आलोचना
कार्यक्षेत्र गोरखपुर में हिंदी के शिक्षक, जेएनयू से हिंदी भाषा विभाग के अध्यक्ष पद से रिटायर हुए.
‘मेरी सबसे बड़ी पूंजी है, मेरी चलती हुई सांस’
जूते
सभा उठ गयी
रह गए जूते
सूने हाल में दो चकित उदास
धूल भरे जूते
मुंहबाए जूते जिनका वारिस
कोई नहीं था
चौकीदार आया
उसने देखा जूतों को
फिर वह देर तक खड़ा रहा
मुंहबाए जूतों के सामने
सोचता रहा-
कितना अजीब है
कि वक्ता चले गए
और सारी बहस के अंत में
रह गए जूते
उस सूने हाल में
जहां कहने को अब कुछ नहीं था
कितना कुछ कितना कुछ
कह गए जूते
अकाल में सारस
तीन बजे दिन में
आ गए वे
जब वे आए
किसी ने सोचा तक नहीं था
कि ऐसे भी आ सकते हैं सारस
एक के बाद एक
वे झुंड के झुंड
धीरे-धीरे आए
धीरे-धीरे वे छा गए
सारे आसमान में
धीरे-धीरे उनके क्रेंकार से भर गया
सारा का सारा शहर
वे देर तक करते रहे
शहर की परिक्रमा
देर तक छतों और बारजों पर
उनके डैनों से झरती रही
धान की सूखी
पत्तियों की गंध
अचानक
एक बुढ़िया ने उन्हें देखा
जरूर-जरूर
वे पानी की तलाश में आए हैं
उसने सोचा
वह रसोई में गयी
और आंगन के बीचोबीच
लाकर रख दिया
एक जल-भरा कटोरा
लेकिन सारस
उसी तरह करते रहे
शहर की परिक्रमा
न तो उन्होंने बुढ़िया को देखा
न जल भर कटोरे को
सारसों को तो पता तक नहीं था
कि नीचे रहते हैं लोग
जो उन्हें कहते हैं सारस
पानी को खोजते
दूर-देसावर से आए थे वे
सो, उन्होंने गर्दन उठाई
एकबार पीछे की ओर देखा
न जाने क्या था उस निगाह में
दया कि घृणा
पर एक बार जाते-जाते
उन्होंने शहर की ओर मुड़कर
देखा जरूर
फिर हवा में
अपने डैने पीटते हुए
दूरियों में धीरे-धीरे
खो गए सारस
पूंजी
सारा शहर छान डालने के बाद
मैं इस नतीजे पर पहुंचा
कि इस इतने बड़े शहर में
मेरी सबसे बड़ी पूंजी है
मेरी चलती हुई सांस
मेरी छाती में बंद मेरी छोटी-सी पूंजी
जिसे रोज़ मैं थोड़ा-थोड़ा
खर्च कर देता हूं
क्यों न ऐसा हो
कि एक दिन उठूं
और वह जो भूरा-भूरा-सा एक जनबैंक है-
इस शहर के आख़िरी छोर पर-
वहां जमा कर आऊं
सोचता हूं
वहां से जो मिलेगा ब्याज
उस पर जी लूंगा ठाट से
कई-कई जीवन
हर मुद्दे पर बेबाक राय
केदारनाथ सिंह ने कहा था….
केदारनाथ सिंह समकालीन कविता के न केवल प्रमुख हस्ताक्षर थे, बल्कि समकालीन मुद्दों पर अपनी बेबाक राय भी रखते थे. वह चाहे भाषा का विवाद हो या फिर हिंदी को बाजार उपलब्ध कराने का सवाल, या फिर कविता के श्रोता-पाठक को लेकर उठ रहे मुद्दा- इन सभी मुद्दों पर केदारनाथ सिंह ने अपनी राय रखी. यहां प्रस्तुत है, समय-समय पर रखे गये उनके विचार. इसे हमने बीबीसी हिंदी डॉट कॉम और उनके इंटरव्यू से साभार लिया है.
अपने बारे में
जनकवि कहलाने लायक हिंदी में कई कवि हो चुके हैं. कई सम्मानित हुए, कई नहीं हुए. लेकिन जो कुछ मैं लिखता पढ़ता रहा हूं उसमें गांव की स्मृतियों का ही सहारा लिया है, क्योंकि मैं गांव से आया हुआ हूं और ग्रामीण परिवेश की स्मृतियों को संजोए हुए मैं दिल्ली जैसे महानगर में रह रहा हूं.
मेरी जड़ें ही मेरी ताक़त है. मेरी जनता, मेरी भूमि, मेरा परिवेश और उससे संचित स्मृतियां ही मेरी पूंजी है. मैं अपने साहित्य में इन्हीं का प्रयोग करता रहा हूं और बचे खुचे जीवन में भी जो कुछ कर पाऊंगा, उन्हीं के बिना पर कर पाऊंगा.
भाषा विवाद पर
मैं भाषाओं की अनेकता को स्वीकार करता हूं. बड़ी भाषा और छोटी भाषा का सवाल नहीं है. हिंदी सारी भारतीय भाषाओं की बहन है. इसलिए छोटी बहन, बड़ी बहन का सवाल पैदा नहीं होता. राधाकृष्णन ने भारतीय साहित्य की एक परिभाषा दी थी, साहित्य अकादमी का आदर्श वाक्य है और उसे मैं अपने आदर्श वाक्य के रूप में स्वीकार करता हूं. उन्होंने कहा था, ”भारतीय साहित्य एक है जो अनेक भाषाओं में लिखा जाता है.”
हिंदी के बारे में
बाजार में तो हिंदी पहुंच चुकी है और छोटे शहरों व कस्बों में वो अपनी जगह बना चुकी है. जहां तक महानगरों का सवाल है, वह एक बड़ा बाज़ार है- जिसे वैश्विक बाजार भी कह सकते हैं.
यह तथ्य है कि हिंदी वहां अपनी जगह नहीं बना पायी है. वहां उसे कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा है. यहां अंग्रेज़ी से काम चल जाता है क्योंकि यहां हिंदी की कोई अनिवार्यता नहीं है जैसे चीन या जापान की भाषा. वहां की भाषाएं बाजार की अनिवार्यता हैं. इसे मैं एक भाषिक असंतुलन कहूंगा. लेकिन इतना ज़रूर है कि एक बड़े पैमाने पर हिंदी अपनी जगह बना चुकी है.
कविता में बदलाव पर
कविता का प्रतिमान पूरी तरह बदल चुका है. प्रतिमान बदलता रहता है. भारतेंदु या दिनकर जिस तरह की कविता लिखते थे, उस तरह की कविता तो हम लिखते नहीं. अज्ञेय और उनके बाद की पीढ़ी ने जो कविता लिखी, वह गाकर नहीं, बोल कर लिखी गयी है.
वह मुक्त कंठ कविता है. हालांकि ये कविताएं भी गोष्ठियों में पढ़ी जाती हैं, पर उसमें कवि सम्मेलन वाला श्रोता या पाठक नहीं आता. कवि सम्मेलन वाली कविता का संबंध बाजार से है. यह जो गंभीर कविता है, उसे सुनने वाला बाजार से उठ कर नहीं आता. वह कुछ पढ़ता-लिखता है.

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