भारत में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की कोशिशें नाकाम नजर आ रही हैं. अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट में पिछले साल की तुलना में हमारा देश वैश्विक सूचकांक में दो स्थान और फिसल कर 81वें पायदान पर आ गया है. एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रिश्वतखोरी और मीडिया की आजादी के मामले में सबसे खतरनाक देशों की सूची में भी भारत का नाम है. बेहतर होती अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन के दावों के बरक्स यह रिपोर्ट एक गंभीर चिंताजनक स्थिति प्रस्तुत करती है. इस सूचकांक के संदर्भ में भ्रष्टाचार से जुड़े विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण के साथ पेश है आज का इन-दिनों…
भ्रष्टाचार का आकलन करनेवाली वैश्विक संस्था ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ की ताजा रिपोर्ट ने भारत में भ्रष्टाचार कम होने के दावों को नकार दिया है. वैश्विक रैंक में भारत भ्रष्टाचार के मामले में दो पायदान फिसल गया है. दुनियाभर के 180 देशों की सूची में भारत का स्थान 81वां है, जबकि पिछले वर्ष यह 79 था, यानी देश में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है, बल्कि बढ़ा है, मामूली ही सही.
यह रिपोर्ट उस समय आयी है, जब भारत में बैंकिंग इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला सामने आया है. यह रिपोर्ट भारत सरकार के उन दावों को नकारती है, जिसमें कहा जाता है कि देश में भ्रष्टाचार कम हुआ है. बर्लिन स्थित इस संस्था की रिपोर्ट ने देश के उन लोगों की आशंकाओं को सही ठहराया, जो हर रोज सरकारी बाबुओं की जेब गर्म करके अपने जायज काम करवा पाते हैं.
सरल शब्दों में कहें, तो भारत ईमानदारी के इम्तिहान में बड़ी मुश्किल से पास हुआ है. उसे 100 में से मात्र 40 अंक प्राप्त हुए हैं. सीपीआई यानी भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 180 देशों की सूची में 81वें पायदान पर है. यह संगठन 13 स्रोतों के आधार पर सूचकांक तैयार
करता है.
आम आदमी पर सर्वाधिक असर
कुछ लोगों का मत है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थानों द्वारा किये गये सर्वे देश में भ्रष्टाचार की सही तस्वीर नहीं पेश करते. उनका तर्क है कि भ्रष्टाचार को लेकर देश के कुलीन वर्ग का अपना नजरिया रहता है. इससे नीतिगत प्रतिक्रिया प्रभावित होती है. यदि उनके तर्क को मान भी लें, तब भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि रिश्वतखोरी आम लोगों की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन गयी है. सरकारी कर्मचारी छोटे कार्यों के लिए भी घूस मांगते हैं.
थाने में एफआईआर दर्ज करानी हो या आरटीओ से ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना हो, रिश्वत या सुविधा शुल्क इतनी सामान्य बात हो गयी है कि यह खबर भी नहीं बन पाती. जब तक कोई बड़ा घोटाला सामने न आये, वह सुर्खियां नहीं बन पाता. बड़ा घोटाला आने के बाद लोग भ्रष्टाचार को कोसने पर मजबूर हो जाते हैं. इससे जनसामान्य सबसे अधिक प्रभावित होता है.
भ्रष्ट कर्मचारियों को ढूंढने की जरूरत नहीं है. सरकारी दफ्तर, अस्पताल, स्कूल, आरटीओ समेत अनेक कार्यालयों में आपको भ्रष्ट कर्मचारी मिल जायेंगे. निजी कंपनियां भी इससे दूर नहीं. अनैतिक कमाई करनेवाले रिश्वत के बिना एक इंच भी नहीं हिलते. लोग अपने जायज काम के लिए भी खुशामद करते हैं, लेकिन घूसखोर कर्मचारियों का दिल नहीं पिघलता. वह अपनी ताकत और पद का दुरुपयोग करते हैं. वह किसी को भी रिश्वत देने पर मजबूर कर देते हैं.
भ्रष्ट अफसरों की एक अलग श्रेणी भी होती है, जो अपनी छवि को लेकर काफी संजीदा होते हैं. वह तभी रिश्वत मांगते हैं, जब आश्वस्त हों कि इससे उनकी छवि खराब नहीं होगी. इस तरह के लोग रिश्वत लेने में सतर्कता बरतते हैं. हर किसी की जेब से पैसे निकालने के बजाय कुछ खास लोगों से ही घूस की रकम वसूलते हैं, ताकि उनकी इज्जत पर दाग न लगे. यह लोग रिश्वत के लिए हर किसी पर दबाव भी नहीं डालते, लेकिन यदि कोई अपनी इच्छा से उनकी जेब गर्म कर दे, तो इससे उन्हें परहेज भी नहीं होता.
भौतिकतावाद से बदल रही सोच
रोजमर्रा की जिंदगी में भौतिकतावाद इस कदर हावी हो गया है कि हम अमीर और ताकतवर व्यक्ति का आदर करते हैं. यह नहीं देखते कि वह रईस बना कैसे. उसने अपार संपत्ति कैसे अर्जित की. इन बातों पर हमारा ध्यान नहीं जाता. हम केवल यह देखते हैं कि वह कितना ताकतवर और धनी है. इसलिए परिवार के सदस्य अपने परिवार के मुखिया पर हर इच्छा पूरी करने का दबाव डालते हैं. इसके लिए चाहे उसे अनैतिक कार्य करना पड़े. बच्चों और पत्नी के सामने अपनी छवि एक नायक की तरह बनाने के लिए उसे अनैतिक कदम उठाने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती.
लंबे समय तक भ्रष्ट माहौल में रहनेवाला व्यक्ति भी कुछ समय बाद भ्रष्टाचार की ओर अपने कदम बढ़ा देता है. भ्रष्ट समाज में रहनेवाला व्यक्ति नियम-कानूनों को तोड़-मरोड़कर फायदा उठाता है. सवाल यह है कि क्या हम भ्रष्टाचार की गहरी जड़ों में दरार डाल सकते हैं और क्या हम अपना डीएनए बदल सकते हैं? आण्विक जीव विज्ञान के क्षेत्र में पिछले दिनों किये गये शोध से पता चलता है कि विचार और धारणाओं के आधार पर व्यक्ति के ‘जीन’ बदलते रहते हैं.
प्रत्येक शख्स और उसके साथ-साथ समाज को यह स्वीकार करना होगा कि रिश्वत लेना-देना गलत और अनैतिक कृत्य है. शुरुआत स्कूलों से की जा सकती है. परिवार के सदस्यों को भी घर के कमानेवाले शख्स का सहयोग करना चाहिए, ताकि उस पर रिश्वत लेने का दबाव न बने.
नैतिकता पर हावी मुनाफा!
भ्रष्टाचार व्यक्तिगत पसंद का मामला है. व्यक्तिगत और संगठन स्तर पर लोग तय कर सकते हैं कि हम रिश्वत न देंगे और न लेंगे. इससे समाज में एक अलग तरह का समूह पैदा होगा. अनैतिक कमाई की जड़ लालच है. लालच ही व्यक्ति को अनैतिकता की ओर धकेलता है. एक तीसरे तरह के लोग भी हैं, जिनके लिए भ्रष्टाचार बिजनेस है. भ्रष्टाचार को लेकर वे एक तरीके की नैतिक दुविधा में भी रहते हैं. इन लोगों पर यह सवाल हमेशा हावी रहता है कि नैतिक मूल्य ज्यादा जरूरी हैं या मुनाफा.
यह उनके लिए परेशानी खड़े करनेवाला सवाल है. इस तरह के कारोबारी संगठनों को यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार में अपने हाथ काले करना अनैतिक और गैर-कानूनी है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके कारोबारी प्रतिद्वंद्वी किस तरह के हथकंडे अपनाते हैं. उन्हें यह समझना होगा कि गैर-कानूनी हथकंडों के जरिये कमाया गया मुनाफा उस तरह का लाभ है, जिसके वह हकदार नहीं हैं. उन्हें एक पल के लिए अपने कामकाज के तरीकों पर सोच-विचार करना होगा और अंतरात्मा की आवाज पर आगे बढ़ना होगा.
कानून को लागू करनेवाली एजेंसियां भ्रष्टाचार को कम करने के प्रति सजग नहीं हैं. कमजोर और लचर प्रशासन भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है. न्यायपालिका और नौकरशाही में जवाबदेही की कमी, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी आदि भी भ्रष्टाचार को बढ़ाने में सहायक है.
राष्ट्र के रूप में हम
इतने भ्रष्ट क्यों हैं
चारा घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला समेत अनेक घोटाले चर्चा का विषय बने, लेकिन रोजमर्रा के कामकाज में आम आदमी को जिन भ्रष्ट अफसरों का सामना करता है, वे इस तरह की सुर्खियां नहीं बटोर पाते हैं. यह भी कहा जाता है कि भ्रष्टाचार तो हिंदुस्तानियों के डीएनए में है. क्या यह वाकई सच है? देश में लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार के कई कारण गिनाये जाते हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ बने कानूनों पर अमल नहीं होता. कानून को लागू करनेवाली एजेंसियां भ्रष्टाचार को कम करने के प्रति सजग नहीं हैं. कमजोर और लचर प्रशासन भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है. न्यायपालिका और नौकरशाही में जवाबदेही की कमी, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी आदि भी भ्रष्टाचार को बढ़ाने में सहायक है.
कानून लागू करने में कोताही से मुश्किल हो रहा नियंत्रण
भ्रष्टाचार पर नकेल न कस पाने के यह कई प्रमुख कारण हैं. एक बड़ा कारण समूहवाद की संस्कृति का पनपना भी है. सोसाइटी के रूप में हमने भ्रष्टाचार को स्वीकार कर लिया है. सोसाइटी ने यह मान लिया है कि कोई भी सरकारी काम बिना घूस दिये नहीं हो सकता. भ्रष्टाचार ने समाज में अपनी जड़ें बहुत गहरी कर ली हैं.
यह बीमारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है. एक समाज की संस्कृति और उसकी सोच व्यक्तियों के निजी व्यवहार पर निर्भर करती है. एक और महत्वपूर्ण तथ्य है कि भ्रष्टाचार कम जोखिम वाला अत्यंत लाभकारी खेल माना जाता है. रिश्वत लेने वाला और देने वाला, दोनों समझते हैं कि उन पर किसी तरह का कोई कानूनी शिकंजा नहीं है और उन्हें किसी तरह की सजा नहीं होगी. कानूनों को लागू करने में लचीलापन उन्हें भ्रष्ट गतिविधियों में संलिप्त होने के लिए प्रेरित करता है और इसी वजह से भ्रष्टाचार लगातार अपने पांव पसारता जा रहा है.
भारत की दशा में गिरावट
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत की स्थिति बेहतर नहीं मानी गयी है. इस सूचकांक में शून्य से 100 के स्केल में उसने पिछले साल की भांति इस साल भी 40 अंक ही हासिल किया है, जो एशिया- पैसिफिक देशों के औसत 44 अंक और वैश्विक औसत 43 अंक से नीचे ही है. वहीं 180 देशों में भारत को 81वां स्थान दिया गया है, जबकि वर्ष 2016 में वह 79वें स्थान पर था, लेकिन तब इस सूचकांक में 176 देश ही शामिल किये गये थे. इस लिहाज से देखा जाये तो भारत की स्थिति में खास सुधार नहीं हुआ है.
एशिया-पैसिफिक देशों की चिंताजनक दशा
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा वर्ष 2017 के लिए भ्रष्ट देशों के लिए जारी वैश्विक सूचकांक में एशिया-पैसिफिक देशों की स्थिति में काफी भिन्नता दिखाई देती है. इस क्षेत्र के कुछ देश, जैसे- न्यूजीलैंड और सिंगापुर, जहां 89 और 84 अंक प्राप्त कर वैश्विक स्तर पर भ्रष्टाचार के निचले पायदान पर खड़े हैं, वहीं अफगानिस्तान, उत्तर कोरिया और कंबोडिया क्रमश: 15, 17 और 21 अंकों के साथ ऊपरी पायदान पर खड़े हैं. इस सूचकांक में एशिया- पैसिफिक के आधे से ज्यादा देशों ने 50 से भी कम अंक हासिल किया है. इन देशों का शून्य से 100 के स्केल पर अगर औसत निकाला जाये, तो वह महज 44 आता है, जो एक चिंताजनक स्थिति है. यहां शून्य का मतलब सर्वाधिक भ्रष्टाचार वाले देश और 100 का मतलब साफ-सुथरे देशों से है.
एशिया- पैसिफिक के सर्वाधिक भ्रष्ट देश अफगानिस्तान की बात करें, तो 2012 के मुकाबले 2017 में इसने सात अंकों का सुधार किया है और आठ से 15 अंकों पर पहुंच गया है. इंडोनेशिया को भी काफी काम करने की जरूरत है. दक्षिण कोरिया इस सूचकांक में छह वर्षों से लगभग स्थिर बना हुआ है.
किसी भी देश को नहीं मिले 100 अंक
इस सूचकांक में एक भी देश को 100 में से 100 अंक नहीं प्राप्त हो पाया है. इस सूचकांक में शून्य से 100 के स्केल में सभी देशों को रखा गया है. यहां तक कि बेहद ईमानदार छवि वाले देशों में शामिल न्यूजीलैंड और सिंगापुर को भी 100 अंक नहीं प्राप्त हुआ है. पिछले छह सालों में कुछ देशों की स्थिति में सुधार आया तो है, लेकिन उसकी गति बहुत धीमी है.
ऐसे कम हो सकता है भ्रष्टाचार
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टाचार सूचकांक जारी करने के साथ ही कुछ उपाय भी बताये हैं, जिनके जरिये भ्रष्टाचार पर लगाम लगायी जा सकती है.
सरकार और व्यवसायी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, स्वतंत्र मीडिया, राजनीतिक असहमति व सामाजिक संगठनों को प्रोत्साहित करें.
सरकार मीडिया पर नियंत्रण कम करे और यह सुनिश्चित करे कि एक पत्रकार बिना किसी डर के अपना काम कर सके. इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय दानकर्ता भी विकास सहायता या अंतरराष्ट्रीय संगठनों तक पहुंच के लिए प्रेस की स्वतंत्रता को प्रासंगिक बनाने पर विचार करें.
सामाजिक संगठनों और सरकारों को उन कानूनों को बढ़ावा देना चाहिए जो सूचनाओं तक पहुंच बनाने की बात करते हैं. इससे भ्रष्टाचार के अवसर कम करने के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने में मदद मिलती है.
राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर सुधार के लिए आवाज उठाने और इसे आगे बढ़ाने को लेकर संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य जिस गति से काम कर रहा है, सामाजिक कार्यकर्ताओं व सरकारों को उसका फायदा उठाना चाहिए.
सरकारों और व्यवसायों को चाहिए कि वे सार्वजनिक हित की सूचनाओं का आंकड़ों सहित खुलासा करें.
उजागर करने वालों पर खतरा
इस सूचकांक के विश्लेषण से यह पता चलता है कि एशिया- पैसिफिक के कई देशों में कोई खास सुधार नहीं हुआ है, और यहां अभी भी भ्रष्टाचार अपनी जड़ें गहराई से जमाये हुए है. यहां के कुछ देश तो ऐसे हैं, जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाले पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, विपक्ष के नेता और यहां तक कि संगठनों को धमकाया जाता है और मामला हद से गुजर जाने पर उनकी हत्या तक कर दी जाती है. फिलीपींस, भारत और मालदीव में भ्रष्टाचार उच्च स्तर पर मौजूद है और यहां प्रेस की स्वतंत्रता भी कम है. इन देशों में भ्रष्टाचार के मामले उजागर करनेवाले पत्रकारों की जिंदगी खतरे में है.
‘कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले छह वर्षों में यहां भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करनेवाले 15 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. कंबोडिया, पापुआ न्यूगिनी और चीन में तो सामाजिक संगठनों को बाकायदा सरकारी अधिकारियों से धमकी मिलती रहती है. कुल मिलाकर देखें, तो एशिया-पैसिफिक के अधिकांश देशों में अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा लगाया जा रहा है और नागरिकों के अधिकारों में दिनों- दिन कटौती की जा रही है.