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गंभीर होता मोटापा, बेतरतीन जीवनशैली बन रही जानलेवा

डिब्बाबंद भोजन से परहेज बहुत जरूरी विभा वार्ष्णेय एसोसिएट एडिटर, डाउन टू अर्थ इस बात के लगातार सबूत सामने आ रहे हैं कि बच्चों का मोटापा अब एक वैश्विक बीमारी का रूप धारण करता जा रहा है. इसकी चपेट में सिर्फ विकसित देश ही नहीं, बल्कि गरीब देश भी आ रहे हैं. भारत भी इस […]

डिब्बाबंद भोजन से परहेज बहुत जरूरी
विभा वार्ष्णेय
एसोसिएट एडिटर, डाउन टू अर्थ
इस बात के लगातार सबूत सामने आ रहे हैं कि बच्चों का मोटापा अब एक वैश्विक बीमारी का रूप धारण करता जा रहा है. इसकी चपेट में सिर्फ विकसित देश ही नहीं, बल्कि गरीब देश भी आ रहे हैं.
भारत भी इस संकट से अछूता नहीं है. वर्ल्ड ओबेसिटी फेडरेशन ने कहा है कि 2025 तक मोटापा से होनेवाली बीमारियों के इलाज पर भारत को हर साल 13 बिलियन डॉलर खर्च करना पड़ सकता है. हम पहले ही स्वास्थ्य संबंधी कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. ऐसे में इतना भारी खर्च एक बड़ा बोझ होगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस मुश्किल की रोकथाम के लिए नये दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जिन्हें भारतीय मेडिकल एसोसिएशन की ओर से देश में प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है. मोटापे से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर आधारित है
आज का संडे इश्यू.
हमारे देश का चौथा नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे बताता है कि वर्ष 2005 और 2015 के बीच यहां मोटे लोगों की संख्या दोगुनी हो गयी है. अगर 15-49 साल की उम्र के बीच के लोगों को देखा जाये, तो 20.7 प्रतिशत औरतों और 18.6 प्रतिशत मर्दों का या तो वजन ज्यादा (ओवरवेट) है, या वह अत्यधिक मोटे (ओबेस) हैं. तीसरे सर्वे में केवल 12.6 प्रतिशत औरतें और 9.3 प्रतिशत मर्द मोटापे से ग्रस्त थे. बीते 11 अक्तूबर को वर्ल्ड ओबेसिटी डे (विश्व मोटापा दिवस) पर वर्ल्ड ओबेसिटी फेडरेशन (डब्ल्यूओएफ) ने एक रिपोर्ट निकाली, जिससे पता चलता है कि भारत में मोटापे से होनेवाली बिमारियों से हर साल 12.7 बिलियन डॉलर का नुकसान होने की आशंका है. यह राशि भारत के इस साल के हेल्थ बजट का लगभग 17 प्रतिशत है.
दरअसल, मोटापे से मधुमेह, हृदय रोग, कैंसर और डिप्रेशन जैसी बीमारियां बढ़ जाती हैं और इनके कारण अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाती है. इसका उदहारण है, मानसिक रोगों से होनेवाला नुकसान.
और बढ़ सकता है मोटापा
वर्ल्ड हेल्थ आॅर्गेनाईजेशन (विश्व स्वास्थ्य संगठन) बताता है कि डिप्रेशन और एंग्जायटी (उत्कंठा) के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्था को हर साल 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान होता है. बीमार व्यक्ति की काम करने की क्षमता कम हो जाती है और ऊपर से इलाज पर खर्चा करना पड़ता है. दुनियाभर में लगभग 300 मिलियन लोग डिप्रेशन से और 260 मिलियन लोग एंग्जायटी डिसऑर्डर से पीड़ित हैं.
वर्ल्ड ओबेसिटी फेडरेशन के अनुसार, इलाज करना प्रभावी लागत (कॉस्ट इफेक्टिव) है, क्योंकि इससे मोटापे से जुड़ी अन्य बीमारियां 25 प्रतिशत कम हो जायेंगी. डब्ल्यूओएफ के अनुमान से भारत के पुरुषों में मोटापे का विस्तार 2013 के 2.3 प्रतिशत के मुकाबले बढ़कर 2025 में 3.1 होने की संभावना है. वहीं स्त्रियों में यह 5.2 प्रतिशत से बढ़ कर 6.9 प्रतिशत हो सकती है.
डिब्बाबंद से होता है नुकसान
आखिर क्यों भारत के लोग मोटापे की चपेट में आ रहे हैं? वैसे इसके कारण तो बहुत है, पर सबसे पहला और सीधा कारण हमारा रोज का खाना है.
अब हमारा खाना पहले जैसा नहीं रहा है, क्योंकि बहुत ही सटीक मार्केटिंग के द्वारा हमें प्रसंस्कृत भोजन (प्रोसेस्ड फूड) की तरफ मोड़ दिया गया है. हमें बताया जाता है की डिब्बाबंद खाना ज्यादा स्वच्छ है या बनाना आसान है या इसमें ऊपर से पोषक तत्व (न्यूट्रिएंट) डालकर इसे ज्यादा पौष्टिक बनाया गया है. इतना ही नहीं, विज्ञापनों की मानें, तो बस यह डिब्बाबंद और बाजार में मिलनेवाला खाना ही स्वादिष्ट है.
यह खाना चीनी, नमक और तेल से भरा हुआ होता है, जो हमारी सेहत के लिए अच्छा नहीं है.
दुख की बात तो यह है कि चीनी, नमक और तेल बाजार में मिलनेवाले प्रसंस्कृत भोजन में छिपकर हम तक पहुंच रहे हैं. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के द्वारा 2012 में किया गया एक शोध बताता है कि एक 300 मिलीलीटर की कोल्ड ड्रिंक में लगभग 40 ग्राम चीनी है, जबकि यह एक व्यक्ति को दिन में केवल 20 ग्राम चीनी ही खानी चाहिए. उसी तरह, एक पैकेट इंस्टेंट नूडल में तीन ग्राम नमक है, जो दैनिक अनुशंसित मात्रा (डेली रेकमेंडेड वैल्यू) का आधा है.
केमिकल्स बढ़ाते हैं मोटापा
खाने के आलावा पर्यावरण में पाये जानेवाले केमिकल्स, जीवाणु और यहां तक कि बढ़ते हुए तापमान को भी मोटापे से जोड़ा गया है. इन्हीं वजहों से वजन घटना बहुत ही मुश्किल हो गया है.
आप कितना भी कम खाना खायें और कितना भी कैलोरीज को जलायें, पर आप मोटे ही रह जाते हैं. पर्यावरण में पाये जानेवाले केमिकल्स हमारे शरीर की प्रक्रिया बदल के हमें मोटा कर सकतें है. इन केमिकल्स को ओबिसोजन कहा जाता है और इनमें कुछ तो ऐसे हैं कि जिनका हम रोज सामना करते हैं.
इनके कुछ उदाहरण हैं एंटिबायोटिक्स, चाइनीज खाने में प्रयोग किये जानेवाला मोनोसोडियम ग्लूटामेट, मच्छरों को मारने में इस्तेमाल होनेवाला डीडीटी, प्लास्टिक में पाया जानेवाला बिस्फेनॉल-ए, सिगरेट की निकोटीन, पानी में पाया जानेवाला आर्सेनिक और सोयाबीन में प्रस्तुत जेनिस्टीन हैं. गाड़ियों और फैक्टरियों से निकलनेवाले धुएं तक में पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बंस जैसे केमिकल्स हैं, जो मोटापा बड़ा सकते हैं.
यह केमिकल्स बहुत तरीकों से हमारे शरीर को मोटा करते हैं, जैसे कि यह हमारे हार्मोनल बैलेंस को खराब कर सकतें है या फिर फैट सेल के आकार को ही बदल देते हैं.
इन केमिकल्स से आपका किसी भी उम्र में सामना हो, यह आपको मोटा कर सकते हैं, पर ज्यादातर बच्चे ज्यादा चपेट में आते हैं. यहां तक कि अगर कोई गर्भवती महिला का सामना इन केमिकल्स से हो जाये, तो यह उनके बच्चे में कुछ ऐसे जेनेटिक बदलाव ले आयेगा कि उन्हें मोटा होने से कुछ नहीं रोक पायेगा. कुछ केमिकल्स स्टेम सेल्स में कुछ बदलाव ले आते हैं, जिससे वह फैट सेल्स बनाना शुरू कर देते हैं.
फैट टैक्स होगा कारगर
पर्यावरण से ओबिसोजन या केमिकल्स हटाना मुश्किल काम है. स्टॉकहोल्म कन्वेंशन के द्वारा 22 केमिकलों को हटाने का प्रयत्न किया जा रहा है, पर डीडीटी का प्रयोग फिर भी आम है.
वैसे भी मोटापे को भोजन से ही ज्यादा जोड़ा जाता है और जंक फूड को कम करने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं. जंक फूड के विज्ञापनों पर रोक लगाने से लेकर इस खाने को स्कूलों की कैंटीन से निकालने तक के प्रयत्न किये गये हैं. इनमें फैट टैक्स काफी कारगर पाया गया है. फैट टैक्स लगाने से खाना महंगा हो जाता है और लोग इसे कम खरीदते हैं. डेनमार्क और हंगरी में इस तरह के एक्सपेरिमेंट्स सफल माने गये हैं.
फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआइ) को यह भी प्रयत्न करना चाहिए कि वह खाने में नमक, चीनी और वसा को नियंत्रित करे. इसके आलावा सरकार लेबलिंग कानूनों को बना सकती है, जिससे लोगों को पता चल सकता है कि वे जो खा रहे हैं, उसमें कितना फैट, चीनी और नमक है. यह सिर्फ डिब्बाबंद खाने पर ही नहीं, बल्कि और फास्ट फूड जैसे कि पिज्जा-बर्गर पर भी लागू करना चाहिए. कई देशों में बहुत आसान तरीके से पैकेट और डब्बों पर ट्रैफिक लाइट सिग्नल जैसे लेबल लगाकर उपभोक्ताओं को जागरूक बनाया जाता है.
सरकार की नीतियां और योजनाएं
भारत का नेशनल एक्शन प्लान एंड मॉनीटरिंग फ्रेमवर्क फॉर प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ नॉन कम्युनिकेबल डिजीज के तहत, 2025 तक भारत में मोटापा बढ़ने के रेट को कम किया जायेगा. नीतियों के माध्यम से और योजनाओं को लाकर लोगों में जल्दी इलाज की जागरूकता बढ़ायी जायेगी, खान-पान की ऐसी नीतियां बनायी जायेंगी, जिससे कैलोरीज पर नियंत्रण रखा जा सकेगा. खाने में खराब ट्रांस फैट हटाकर अच्छे फैट्स को प्रोत्साहन दिया जायेगा और अच्छे खाने के ऊपर टैक्स कम किया जायेगा.
बच्चों पर केंद्रित विज्ञापनों को भी नियंत्रित किया जायेगा. इसके साथ ही हमें पारंपरिक खाने को भी बढ़ाना चाहिए, क्योंकि वह स्वास्थ्य के लिए ज्यादा अच्छा है. जब तक हम इस सब का इंतजाम न कर सकें, तब तक कम-से-कम शारीरिक सक्रियता (फिजिकल एक्टिविटी) बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए.
कुपोषण और मोटापे की दोहरी चुनौती
भारत एक ओर जहां बच्चों और किशोरों में मोटापे की समस्या का सामना कर रहा है, वहीं दूसरी ओर हाल के वर्षों में मोटापे के शिकार बच्चों की संख्या तेजी से बढ़ रही है.
लांसेट द्वारा 200 देशों में बॉडी मॉस इंडेक्स (बीएमआइ) पर किये गये अध्ययन से स्पष्ट है कि पांच से 19 वर्ष आयु के बच्चों और किशोरों में 1975 से 2016 के बीच मोटापे के शिकार बच्चों की संख्या 10 गुना ज्यादा तक बढ़ चुकी है. भारत में 20 वर्ष से कम आयु के बच्चों में 22.7 प्रतिशत लड़कियां और 30.7 प्रतिशत लड़के कु‌पोषित हैं, यानी उनका वजन निर्धारित मानकों से कम है. इसके अलावा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े भी बताते हैं कि 2006 से 2016 के बीच मोटापे के शिकार लोगों की संख्या में दोगुनी बढ़ोतरी हो चुकी है.
हर तीसरे व्यक्ति में उच्च कोलेस्ट्रॉल
देश में बदलती और बेतरतीब जीवनशैली के कारण एक साथ कई बीमारियां लोगों को चपेट में ले रही हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार हर तीन में से एक व्यक्ति हाइपरटेंशन, चार में से एक डायबिटीज और तीन में से एक उच्च कोलेस्ट्रॉल और मोटापे से ग्रसित है. राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआइएन) के एक सर्वेक्षण से स्पष्टहै कि शहरी इलाकों में पांच वर्ष से कम आयु के 25 फीसदी बच्चे कुपोषित और 29 फीसदी बच्चे मोटापे के शिकार हैं, जबकि 16 प्रतिशत बच्चों का लंबाई एवं भार अनुपात असंतुलित है. देश के ज्यादातर शहरों में हाइपरटेंशन, हाइ कोलेस्ट्रॉल और मोटापाजनित बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं.
आरामदेह जीवनशैली से बीमारियों का जोखिम
आधे शहरी भारतीयों का वजन ज्यादा
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार बॉडी मॉस इंडेक्स (बीएमआइ) 23 से कम होना चाहिए, जबकि इन मानकों पर शहरी क्षेत्रों में रहनेवाले आधे भारतीय फिट नहीं बैठते.
राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआइएन) के मानकों के मुताबिक 34 प्रतिशत पुरुषों का वजन ज्यादा (बीएमआइ 25 से अधिक) और 13 प्रतिशत का कम है, जबकि 44 प्रतिशत महिलाएं मोटापाग्रस्त और 11 प्रतिशत कुपोषित हैं. डब्ल्यूएचओ द्वारा एशियाई मानकों पर शहरी क्षेत्रों के 52 प्रतिशत पुरुषों और 59 प्रतिशत महिलाओं का वजन अधिक पाया गया है. सबसे अधिक मोटापाग्रस्त पुरुषों और महिलाओं की संख्या पुदुचेरी (59.8 प्रतिशत) और राजस्थान (42.5 प्रतिशत) में पायी गयी है.
बच्चों में बढ़ता वजन चिंताजनक
भारतीय बच्चों में मोटापे की समस्या तेजी से बढ़ रही है. बचपन में मोटापे के शिकार लोगों के लिए युवावस्था में डायबिटीज का खतरा कई गुना ज्यादा बढ़ ज्यादा है. इंडियन जर्नल ऑफ एंडोक्राइनोलॉजी एंड मेटाबोलिज्म के मुताबिक भारत में 20 प्रतिशत स्कूली बच्चे मोटापाग्रस्त हैं.
सामान्य बच्चों के मुकाबले मोटापाग्रस्त बच्चों में टाइप-2 डायबिटीज होने का खतरा चार गुना तक अधिक होता है. कम आयु में मोटापे के शिकार लोगों पर मेटाबॉलिक सिंड्रोम, हाइपरटेंशन, कॉर्नेरी हॉर्ट डिजीज, हड्डियों की समस्या, लिपिड प्रोफाइल के असंतुलन जैसे खतरे सर्वाधिक होते हैं. इसके अलावा इन बच्चों का मानसिक विकास प्रभावित होता है यानी उनमें मानसिक बीमारियों का जोखिम कहीं अधिक होता है.
कुपोषण से गंभीर होती मोटापे की समस्या
एक रिपोर्ट के अनुसार 2016 में 5-19 वर्ष आयु वर्ग में मोटापा की संभावनाएं दो प्रतिशत थी, लेकिन उम्र बढ़ने के साथ 8-14 प्रतिशत किशोरों में मोटापा बढ़ने की समस्या देखी गयी है. विशेषज्ञों के मुताबिक कम आयु में कुपोषण और बढ़ती उम्र के साथ मोटापा कई बीमारियों को जन्म देता है.
युवाओं में भी बढ़ता जोखिम
किशोरों के अलावा भारतीय युवाओं में बेतरतीब जीवनशैली के कारण तेजी से मोटापा बढ़ रहा है. वर्ष 2005 में 15-49 वर्ष आयु वर्ग की 12.6 प्रतिशत महिलाओं और 9.3 प्रतिशत पुरुषों में मोटापा की समस्या थी, जो 2015 में बढ़ कर महिलाओं में 20.7 प्रतिशत और पुरुषों में 18.6 प्रतिशत हो गयी, यानी एक दशक में मोटापाग्रस्त महिलाओं की संख्या में 8.1 प्रतिशत और पुरुषों में 9.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई.
यहां के बच्चे हैं सबसे ज्यादा मोटे
एनसीडी रिस्क फैक्टर कोलाबोरेशन की रिपोर्ट कहती है कि पैसिफिक आइसलैंड के अधिकतर देशों में वैश्विक स्तर पर मोटापे का स्तर सबसे ज्यादा है. यहां के 5 से 19 वर्ष के 30 प्रतिशत से अधिक युवा मोटापे के शिकार हैं.
वहीं अमेरिका व प्यूर्टो रिको जैसे कैरिबियाई देश सहित कुवैत, कतर जैसे मध्य पूर्व के देशों में 5 से 19 वर्ष के 20 प्रतिशत से अधिक बच्चे मोटापे से ग्रस्त हैं. बीते चार दशकों में वैश्विक स्तर पर बच्चों व किशोरों के बीच मोटापे में वृद्धि हुई है. निम्न व मध्य आय वाले देशों का भी यही हाल है. इसी अवधि में विशेष तौर पर पूर्वी व दक्षिण एशियाई देशों में मोटापे में वृद्धि देखने को मिली है. जहां तक उच्च आय वर्ग वाले देशों का सवाल है, तो वहां भी बच्चों व किशोरों के बीच मोटापे की दर बहुत ऊंची है.
विश्व की एक तिहाई आबादी मोटापाग्रस्त
मोटापा किसी महामारी की तरह संपूर्ण विश्व को चपेट में लेती जा रहा है. एक रिपोर्ट कहती है कि शहरीकरण, खराब आहार और शारीरिक श्रम में कमी के कारण विश्व की एक-तिहाई आबादी का वजन जरूरत से ज्यादा है. यहां चिंता वाली बात यह है कि इस बीमारी ने वयस्कों के अलावा बच्चों और किशारों को भी अपनी गिरफ्त में ले रखा है. एक नजर इससे संबंधित आंकड़े पर.
2 अरब से ज्यादा वयस्क और बच्चे विश्वभर में अधिक वजन या मोटापे और इस कारण होनेवाली स्वास्थ्य समस्याओं से परेशान हैं. न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट से यह तथ्य सामने आया है.
195 देशों पर अध्ययन से यह पता चला है कि 13 प्रतिशत अमेरिकी बच्चे और युवा वयस्क मोटापे की चपेट में हैं और इस श्रेणी में अमेरिका सबसे ऊपर है. मिस्र के 35 प्रतिशत वयस्क मोटापा ग्रस्त हैं.
6.85 करोड़ लोगों के बीच किये गये विश्लेषण के आधार पर शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि 73 देश में मोटे लोगों की संख्या दोगुनी हो गयी 1980 के मुकाबले 2015 में. इन देशों के अलावा दूसरे देशों में भी मोटापे में तेज वृद्धि देखने को मिली है.
2.2 अरब लोंगों का वजन आवश्यकता से अधिक था या वे स्थूलकाय (ओबेस) थे, वैश्विक स्तर पर 2015 में. इनमें से 71 करोड़ लोग स्थूलकाय थे, जिनमें 5 प्रतिशत बच्चे और 12 प्रतिशत वयस्क शामिल थे.
6.9 करोड़ (69 मिलियन) पूरे विश्व में मोटी महिलाएं थीं 1975 में जो 2016 में बढ़कर 39 करोड़ यानी 390 मिलियन हो गयीं, जबकि 1975 में 3.1 करोड़ पुरुष मोटे थे जो 2016 में बढ़कर 28.1 करोड़ यानी 281 मिलियन हो गये, लांसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक.
बढ़ता वजन बन रहा मौत की वजह
न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, अधिक वजन होने के कारण होनेवाली अन्य बीमारियां जैसे कार्डियोवैस्कुलर डिजीज के कारण विश्वभर में मरनेवालों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है.
इस रिपोर्ट की मानें तो 40 लाख ओवरवेट में से 40 प्रतिशत लोगों की मौत सिर्फ बॉडी मास इंडेक्स के उच्च होने की वजह से हुई बीते वर्षों में, हालांकि ये लोग ओवरवेट यानी स्थूलकाय की श्रेणी में नहीं आते थे. एक विश्लेषण के अनुसार, वर्ष 2015 में उच्च बीएमआइ की वजह से होनेवाली लगभग 70 प्रतिशत मृत्यु का कारण कार्डियोवैस्कुलर डिजीज था. इस बीमारी ने 27 लाख लोगों की जान ले ली थी.
7.94 करोड़ यानी तकरीबन 35 प्रतिशत वयस्क अमेरिकी मोटे हैं. मोटे लोगों में अमेरिका के बाद चीन का स्थान है. यहां की 5.73 करोड़ वयस्क मोटापे की गिरफ्त में हैं. 01 प्रतिशत आबादी के साथ बांग्लादेश और वियतनाम मोटापा दर में विश्व में सबसे नीचे हैं.
यहां बढ़ रही है मोटापे की दर
केंट यूनिवर्सिटी के स्टैटिस्टिशियन जेम्स बेंथम के अनुसार, पूर्व, दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में बच्चों व किशोरों के बीच मोटापे की दर तेजी से बढ़ ही रही है, साथ ही दूसरे निम्न व मध्य आय वर्ग वाले क्षेत्रों में भी बच्चों व किशोरों के बीच मोटापा बढ़ता जा रहा है.
बीमारियों से 4.58 अरब डॉलर का नुकसान!
एनआइएन द्वारा 2015-16 में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार, पांच में से एक व्यक्ति धूम्रपान और तीन में से एक शराब का नियमित सेवन करता है. लगातार बिगड़ती जीवनशैली बड़ी संख्या में बीमारियों की न्यौता दे रही है. भारत में 60 प्रतिशत मौतें हृदय संबंधित बीमारियों, मधुमेह और कैंसर आदि से होती हैं. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के अनुमान के मुताबिक, इन बीमारियों से भारत पर 2012 से 2030 के बीच 4.58 अरब डॉलर (311.9 अरब रुपये) का बोझ पड़ेगा.
चीन-भारत में सबसे ज्यादा मोटे बच्चे

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