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वैश्विक परिदृश्य पर ब्रिक्स की बढ़ती धमक, ब्रिक्स सम्मेलन से निकलते रास्ते

भारत और चीन के बीच तनाव तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हलचलों के बीच संपन्न हुआ ब्रिक्स शिखर सम्मेलन कई मायनों में महत्वपूर्ण है. एक तो यह हासिल रहा कि आपसी विवादों का असर समूह की प्रगति पर पड़ता हुआ दिखाई नहीं दिया, और दूसरी खास बात यह हुई कि भारत-विरोधी आतंकी संगठनों के विरुद्ध उल्लेख […]

भारत और चीन के बीच तनाव तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हलचलों के बीच संपन्न हुआ ब्रिक्स शिखर सम्मेलन कई मायनों में महत्वपूर्ण है. एक तो यह हासिल रहा कि आपसी विवादों का असर समूह की प्रगति पर पड़ता हुआ दिखाई नहीं दिया, और दूसरी खास बात यह हुई कि भारत-विरोधी आतंकी संगठनों के विरुद्ध उल्लेख संयुक्त घोषणा-पत्र में किया गया.
वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में ब्रिक्स एक जोरदार हस्तक्षेप के रूप में सामने आया है. इस सम्मेलन के महत्व और ब्रिक्स के सामने उपस्थित चुनौतियों के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-डेप्थ…
संजय भारद्वाज
प्रोफेसर, जेएनयू
चीन के शियामेन में हुए ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन से यह बात स्पष्ट हो गयी है कि इस समूह के पांच सदस्य देश वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में न केवल विशिष्ट नेतृत्व प्रदान करते हैं, बल्कि विश्व-व्यवस्था के बहु-ध्रुवीकरण का आधार भी बन गये हैं.
इन ब्रिक्स देशों में मोटे तौर पर वैश्विक समस्याओं को लेकर आम सहमति है तथा पिछले नौ वर्षों में कोई बड़ा मतभेद या विवाद उभर कर सामने नहीं आया है. ये देश विकास की लालसा में नयी ऊर्जा एवं नये रास्तों की तरफ अग्रसर हैं तथा सभी विकास की समान परिधि पर कार्यरत हैं.
गौरतलब है कि इन ब्रिक्स देशों में भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं भाषायी असमानताएं हैं तथा विकास की गति भी भिन्न है, परंतु वह गतिशील है. चूंकि ये सब विकास की समान परिधि पर काम कर रहे हैं इसीलिए ‘ग्लोबल कॉमंस’ के लिए एकजुट दिखाई पड़ रहे हैं.
ब्रिटिश अर्थशास्त्री जिम ओ’नेल की अवधारणा पर आधारित इस समूह का पहला सम्मेलन रूस में 2009 में हुआ. तब इसे ‘ब्रिक’ कहा जाता था.
इसमें जी-सात जैसे औद्योगिक राष्ट्रों के समूह की तर्ज पर एक महत्वाकांक्षी संगठन के निर्माण की रूप-रेखा तैयार की गयी. बाद में इस समूह में दक्षिण अफ्रीका के शामिल होने के बाद इसका नाम ‘ब्रिक्स’ हो गया. कुछ राष्ट्रइस संगठन के और विस्तार की वकालत इस तर्क के आधार पर करते हैं कि इससे बहुपक्षीयता व वित्तीय लोकतांत्रिकता को बल मिलेगा.
इतने कम समय में ब्रिक्स देशों ने कई महत्वपूर्ण संस्थाओं का निर्माण किया है तथा विभिन्न पहलों पर सहमतियां बनायी हैं. इनमें ब्रिक्स देशों के बीच स्टॉक एक्सचेंज का निर्माण (2011), स्थानीय मुद्रा में व्यापार पर समझौता (2012), ब्रिक्स यूनिवर्सिटी लीग का निर्माण (2013), न्यू डेवलपमेंट बैंक का गठन (2014), ब्रिक्स कंटीजेंसी रिजर्व एग्रीमेंट (2015), दक्षिण अफ्रीका में बैंक के क्षेत्रीय कार्यालय की स्थापना (2016) जैसे कदम प्रमुख हैं.
यही नहीं, वैश्विक घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इन देशों का हिस्सा 2006 के 12 फीसदी से बढ़ कर पिछले साल 23 फीसदी हो गया. विदेशी निवेश बढ़ कर सात फीसदी से 12 फीसदी हो गया तथा आपसी व्यापार 11 फीसदी से 16 फीसदी हो गया जो कि लगभग 250 बिलियन डॉलर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोवा सम्मेलन में ऐलान किया था कि ब्रिक्स देशों का आपसी व्यापार 2020 तक दुगुना होना चाहिए.
तात्पर्य यह है कि पिछले कुछ सम्मेलनों से इस खास समूह में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था व वैश्विक समस्या में आमूल-चूल परिवर्तन और समाधान की बड़ी पहल नजर आती है. इसे कुछ मुद्दों के संदर्भ में रेखांकित किया जा सकता है.
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के मसले पर ब्रिक्स देश बढ़ते ग्रीनहाउस प्रभाव और वैश्विक गर्मी पर चिंतित हैं तथा इसके समाधान के लिए विकसित राष्ट्रों एवं विकासशील राष्ट्रों के साथ बहस और समझौते पर जोर देते हैं. पेरिस जलवायु सम्मेलन के निर्णय से अमेरिकी असहमति ने ‘नॉर्थ-साउथ डायलॉग’ यानी विकसित तथा विकासशील और अविकसित देशों के बीच संवाद को आवश्यक बना दिया है.
शियामेन सम्मेलन में ऊर्जा की आपूर्ति और सुरक्षा पर बल दिया गया है तथा यह सुनिश्चित करने पर बल दिया गया है कि पारंपरिक स्रोतों तथा गैर-पारंपरिक स्रोतों का नयी तकनीक और पर्यावरणानुसार उपयोग किया जाये. आण्विक ऊर्जा पर जोर भारत के न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में शामिल होने का रास्ता खोलता है जिसमें चीन पहले बाधक बना हुआ था.
न्यू डेवलपमेंट बैंक के माध्यम से कुछ देशों के वित्तीय एकाधिकार को चुनौती देने की कोशिशें लगातार मजबूत हो रही हैं. ब्रिक्स देशों का विश्व बैंक में 13 फीसदी तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में 15 फीसदी ही वोटिंग अधिकार थे. ब्रिक्स बैंक से वित्तीय लोकतांत्रिकरण होगा तथा इन देशों में विकास हेतु निवेश में बढ़ोतरी होगी. आतंकवाद के मुद्दे पर बनी आम सहमति भारत के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है.
खासकर पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी गुटों को अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन मानना सीमा पार आतंकवाद पर लगाम लगाने में काफी हद तक मददगार होगा. चीन पिछले कुछ समय से अजहर मसूद को संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय आतंकी सूची में शामिल करने में अवरोध बना हुआ है, लेकिन अब इस बाधा के दूर होने के आसार हैं.
यह संगठन बहुपक्षीयता की वकालत करता है. इसलिए दक्षिण-दक्षिण वार्ता और उत्तर-दक्षिण वार्ता को व्यापार व सुरक्षा के मामले में सहयोग बढ़ाने पर बल देता है. इस सम्मेलन में सदस्य देशों के बीच आपसी सांस्कृतिक, सामाजिक व वैयक्तिक मेल-जोल व समझदारी पर बल दिया गया है.
इसके लिए छात्रवृत्ति, शिक्षा व तकनीकी सहायता का आह्वान किया गया है. इंटरनेट को आपसी सहयोग के लिए उपयोग करने पर बल दिया गया है, और साथ ही साथ विश्व सुरक्षा व शांति के लिए आंकड़े साझा करने और इंटरनेट गुणवत्ता पर बल दिया गया है. इसलिए अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था बनाने हेतु सुशासन तथा नवोन्मेषिक रणनीति के विकास पर बल दिया गया है.
खास बात यह है कि पिछले दो सम्मेलनों में भारत द्वारा आतंकवाद, पर्यावरण सुरक्षा तथा स्वच्छ ऊर्जा के मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय सहमति बनाने पर बल दिया जा रहा है.
इस सम्मेलन में यह आम सहमति भारत की पहल की जीत कही जा सकती है. पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद से भारत लंबे समय से जूझ रहा है तथा इस्लामिक स्टेट के खतरे के लिहाज से यह एक संवेदनशील राष्ट्र है. ब्रिक्स के आतंकवाद के प्रति कड़े रुख ने सभी को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है.
साथ ही भारत के एनएसजी एवं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में सदस्यता के दावे को भी बल मिलेगा. चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड’ जैसे महत्वाकांक्षी तथा डोकलाम जैसे दुस्साहसी कदमों से भारत को बिना दबाव के स्वतंत्र नीति अपनाने में मदद मिलेगी. यह सम्मेलन न सिर्फ सदस्य देशों के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए कई सकारात्मक उम्मीदों के साथ संपन्न हुआ है.
वार्षिक ब्रिक्स सम्मेलन
अपनी क्षमताओं के साथ एक जैसी चुनौतियों से जूझते ब्रिक्स देश
ब्रिक्स देशों ब्राजील, रूस, भारत,चीन और दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्र प्रमुखों ने चीन के शियामेन शहर में आयोजित वार्षिक सम्मेलन में शिरकत की. वर्षों पूर्व ब्रिक्स को वैश्विक अर्थव्यवस्था के भविष्य के रूप में देखा गया था. उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले इस समूह की धमक और अहमियत पश्चिम में भी महसूस की गयी. दुनिया की 40 फीसदी आबादी और एक चौथाई से अधिक भू-भाग वाले इस समूह के सामने एक जैसी चुनौतियां तो हैं ही, लेकिन संभावनाएं उससे कहीं बड़ी हैं. एक अरसे बाद ब्रिक्स देशों की हालातों में परिवर्तन और संभावनाओं पर एक नजर…
वैश्वीकरण और ब्रिक्स समूह
ब्रिक्स समूह का सबसे पहले सपना देखनेवाले मशहूर अर्थशास्त्री जिम ओ नील ने अनुमान लगाया था कि ब्रिक्स देश 21वीं सदी की वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के अहम किरदार होंगे. वैश्वीकरण के शुरुआती चरण यानी 1990 के दौर में इन देशों की वैश्विक जीडीपी में जो हिस्सेदारी महज 11 प्रतिशत थी, साल 2014 तक यह 30 प्रतिशत तक पहुंच गयी.
वैश्विक वित्तीय संकट का इस समूह पर भी असर दिखा, लेकिन यह समूह नियमित अंतराल पर अपने महत्वाकांक्षी एजेंडे पर बढ़ता रहा. यही वजह है कि भारत और चीन ने ग्लोबल सप्लाइ चेन का फायदा उठाया, तो ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका ने प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों को बेचने के लिए वैश्वीकरण को एक सशक्त माध्यम के रूप में अपनाया.
भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत
नौवें वार्षिक सम्मेलन में ब्रिक्स देशों ने कर और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए आधुनिक वैश्विक कर प्रणाली पर काम करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर सहमति जाहिर की. भारत ने कालेधन और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए डिजिटल माध्यमों पर अपनी निर्भरता बढ़ाई है और विमुद्रीकरण व एकीकृत कर प्रणाली जैसे बड़े कदम उठाये हैं.
वहीं चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग ने भ्रष्टाचार विरोधी बड़ा अभियान छेड़ रखा है. हालांकि, भ्रष्टाचार से निपटने में ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका की स्थिति चिंताजनक है. ब्राजील की पूर्व राष्ट्रपति डिलमा रोसेफ अपने पद से हाथ धो चुकी हैं, वर्तमान राष्ट्रपति माइकल टेमर पर भी साए मंडरा रहे हैं. ब्राजील की जीडीपी दो वर्ष निगेटिव रहने के बाद इस साल सांस लेती दिखी है. दूसरी ओर, दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रपति जैकब जुमा पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप हैं. भ्रष्टाचार के मामले में रूस के भी कमोबेस यही हालात हैं.
बढ़ते मध्यम वर्ग की ताकत
करों, नियमों और सामाजिक मानदंडों का अनुपालन करने की सर्वाधिक जिम्मेदारी मध्यवर्ग पर होती है. भारत और चीन दोनों देशों की स्थिति या कहें विकास पैमाना इस वर्ग की कार्यक्षमता और कार्यकुशलता पर निर्भर है.
चीन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के बूते आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जीडीपी वाला देश है, तो वहीं भारत की जीडीपी को ताकत देने में सर्विस सेक्टर ने अहम भूमिका निभायी है. जीडीपी में 61 प्रतिशत का योगदान देनेवाले सर्विस सेक्टर खास कर आइटी सर्विसेज (108 बिलियन डॉलर) की अहमियत लगातार बढ़ी है. भारत दुनिया का प्रमुख आइटी सेवा निर्यातक है. वर्ष 1990 में चीन में वैश्विक मध्यवर्ग का एक प्रतिशत भी नहीं था, जबकि 2015 में 16 प्रतिशत हो चुका है और 2030 तक 3.5 करोड़ लोग और इसका हिस्सा बन जायेंगे. भारतीय मध्यवर्ग 1990 में वैश्विक मध्य वर्ग का एक प्रतिशत से बढ़ कर 2015 में आठ प्रतिशत हो चुका है और 2030 तक 3.8 करोड़ लोग और जुड़ जायेंगे.
ऑटोमेशन से सहमे भारत और चीन
ब्रिक्स समूह में भारत और चीन दुनियाभर में सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में देखे जाते हैं. दोनों देशों में भविष्य को लेकर अपनी-अपनी उम्मीदें और कयास हैं. लेकिन, निकट भविष्य में तकनीकी परिवर्तन की चुनौतियों की विकरालता दोनों देशों को सहमा रही है. ऑटोमेशन को बड़ी आबादी के लिए रोजगार संकट के तौर पर देखा जा रहा है.
कार्यस्थलों पर तेजी से होते ऑटोमेशन की चुनौतियों को भांपते हुए विश्व बैंक ने एक अध्ययन में अनुमान लगाया है कि भारत में 68 प्रतिशत, तो चीन 77 प्रतिशत मौजूदा नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं. चीन में मजदूरी बढ़ने से मैन्युफैक्चरिंग की लागत बढ़ रही है, जिसका असर अर्थव्यवस्था पर दिखने लगा है. भारत में रोजगार संकट तेजी से बढ़ रहा है. जब देश की आधी आबादी गरीबी के दलदल में फिसलने के कगार पर बैठी हो, ऐसे में बेरोजगारी आफत बन कर टूट सकती है.
– ब्रह्मानंद िमश्र

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