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शिक्षक दिवस आज : शिक्षक और शिक्षा की दशा में लाना होगा गुणात्मक सुधार
बेहतर शिक्षा से बनेगा नया भारत शिक्षा क्षेत्र में आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौती है देश के सभी बच्चों को समान अवसरों के साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराना. कम-से-कम स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में 12वीं तक यह सबसे बड़ी चुनौती है. शिक्षा के क्षेत्र में लागू कानून को बहुत कम ही अमल में […]
बेहतर शिक्षा से बनेगा नया भारत
शिक्षा क्षेत्र में आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौती है देश के सभी बच्चों को समान अवसरों के साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराना. कम-से-कम स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में 12वीं तक यह सबसे बड़ी चुनौती है. शिक्षा के क्षेत्र में लागू कानून को बहुत कम ही अमल में लाया जाता है.
देशभर में अब तक नौ फीसदी से भी कम स्कूलों में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो पाया है. इसमें आठवीं तक तो सभी बच्चों को शिक्षा अनिवार्य रूप से मुहैया कराने की बात कही गयी है. इसके लिए शिक्षकों की समस्याओं का समाधान करने के साथ शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने पर जोर देना होगा. आज शिक्षक दिवस के मौके पर देश में शिक्षा और शिक्षकों की दशा समेत इससे जुड़े विविध पहलुओं पर चर्चा कर रहा है आज का यह विशेष पेज …
अंबरीश राय
राष्ट्रीय संयोजक, आरटीइ
हमारे देश में शिक्षा का अधिकार कानून पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया है. यदि यह कानून लागू हो गया होता, तो शिक्षा के स्तर में सुधार के साथ शिक्षक के स्तर में भी व्यापक सुधार हो सकता. देशभर में करीब 50 फीसदी शिक्षक संविदा आधारित हैं और उन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है. हमें यह समझना होगा कि शिक्षा का काम संविदा का नहीं है, यह नियमित काम है. यह बच्चों के निर्माण और इस तरह से देश निर्माण का काम है.
बच्चों को नियमित शिक्षा मिलेगी, तभी वे समझदार बनेंगे और देश के निर्माण में अपनी अहम भागीदारी निभायेंगे. हमारे यहां लोगों में यह गलतफहमी है कि शिक्षक को वेतन अधिक मिलता है, जबकि हालात इसके विपरीत हैं. मौजूदा समय में देश के बजट का करीब 3.4 फीसदी शिक्षा पर खर्च किया जाता है. इसमें से करीब 65 फीसदी आमदनी सरकार को विविध उपकरों से होती है. यानी शिक्षा में हमारा खर्चा बहुत कम है.
शिक्षक के लिए चुनौती
देशभर में 50 फीसदी शिक्षक वेतन से जूझ रहे हैं, जिन्हें 6,000 से भी कम वेतन मिलता है. शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए गठित किये गये कोठारी आयोग ने इस बात की सिफारिश की थी कि शिक्षक का वेतन कम-से-कम इतना तो हाेना ही चाहिए कि उसे किसी तरह की आर्थिक परेशानियों से जूझना नहीं पड़े.
आयोग ने शिक्षक को एक सम्मानित वेतन देने की बात कही थी. लेकिन, उनका वेतन न्यूनतम मजदूरी के समान है. दूसरी चुनौती यह है कि संविदा आधारित अधिकतर शिक्षकों ने शिक्षण-प्रशिक्षण नहीं लिया है. इससे शिक्षा की गुणवत्ता सीधे-सीधे प्रभावित हो रही है. इसलिए इन शिक्षकों को प्रशिक्षण दिलाना जरूरी है.
अप्रशिक्षित शिक्षक : बड़ी चुनौती
मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने हाल में संसद में कहा है कि करीब 11 लाख शिक्षक ट्रेंड नहीं हैं. उन्होंने एक अच्छी बात यह कही कि इन सभी शिक्षकों को प्रशिक्षण देने की जरूरत है. यानी अप्रशिक्षित और केवल डिग्रीधारी शिक्षक स्कूलों में नहीं पढ़ा सकेंगे.
आगामी दो वर्षों में इन्हें प्रशिक्षित करना होगा. अब बड़ी समस्या यह पैदा होगी कि जो काम पिछले सात वर्षों से विचाराधीन है और नहीं हो पाया है, इसे सरकार महज दो वर्षों में कैसे पूरा कर पायेगी. शंका इसलिए भी, क्योंकि इस दिशा में मुकम्मल तैयारी दिख नहीं रही है. इस पर चर्चा कई वर्षों से हो रही है, लेकिन इसके लिए बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ बनाने पर बहुत कम ध्यान दिया गया है.
इसलिए वर्ष 2019 तक इस लक्ष्य को हासिल कर पाना आसान नहीं है, क्योंकि देशभर में करीब 90 फीसदी टीचर्स ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट निजी सेक्टर में हैं, जिनका बुनियादी ढांचा कमजोर है और ट्रेनिंग की दशा बहुत खराब है. सरकारी क्षेत्र में अब तक बहुत ही कम टीचर्स ट्रेनिंग सेंटरों का गठन किया गया है.
शिक्षक की अनदेखी
शिक्षक की अनदेखी करके शिक्षा की गुणवत्ता पर बात नहीं की जा सकती है. ग्रामीण इलाकों में अब भी करीब 10 फीसदी स्कूल ऐसे हैं, जहां एकमात्र शिक्षक हैं.
इसी शिक्षक को बच्चों की उपस्थिति, सभी विषयों व वर्गों की पढ़ाई के साथ मिड डे मिल का इंतजाम भी करना है. एनसीइआरटी जैसे सरकारी शिक्षा संस्थानों को मजबूत बनाने के बजाय सरकार आज जिस तरह से निजी सेक्टर की ओर देख रही है, इससे शिक्षा का बेड़ा गर्क हो जायेगा. ऐसे में शिक्षक भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं और शिक्षा पर निजी क्षेत्र का शिकंजा मजबूत होता जायेगा.
विविध कार्यों में उलझाना
सरकार को यह चुनौती कबूल करनी होगी कि अपने स्कूलों की शिक्षा के स्तर में सुधार करने, उन्हें मजबूती प्रदान करने के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की नियुक्ति हो. साथ ही उनके लिए नियमित प्रशिक्षण का इंतजाम होना चाहिए. टीचर्स को बहुत सारे दूसरे कार्यों में भी उलझाया जाता है. हालांकि, कानूनी तौर पर शिक्षकों को केवल तीन तरह के (जनगणना, चुनाव और प्राकृतिक आपदा के समय) अतिरिक्त कार्यों में लगाने की बात कही है. लेकिन, वास्तव में ऐसा होता नहीं है और उन्हें अनेक कार्यों में लगाया जाता है.
सरकारी विभाग ऐसा समझते हैं कि स्थानीय स्तर पर कार्यों को निबटाने के लिए शिक्षक सबसे आसान टारगेट है. अनेक इलाकों में ऐसा देखा जाता है कि स्थानीय प्रशासन अपने विविध कार्यों (पल्स पोलियाे, मिड डे मील, अन्य किसी तरह की गणना आदि) के लिए शिक्षकों का इस्तेमाल करता है.
समस्याओं का समाधान जरूरी
बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण और उनके भीतर राष्ट्रप्रेम की भावना पैदा करने में शिक्षक का महत्वपूर्ण योगदान होता है. लेकिन, जब तक शिक्षक की अपनी समस्याएं नहीं सुलझेंगी, तब तक वह इस ऐतिहासिक कार्य को सही तरीके से करने में कैसे सक्षम हो सकता है. शिक्षक के बिना शिक्षा और स्कूल का कोई अस्तित्व नहीं है.
शिक्षक दिवस पर महत्वपूर्ण संदेश यही है कि राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों के योगदान को ध्यान में रखते हुए सरकार उनकी समस्याओं का समाधान करे और शिक्षक को शिक्षा के अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्य में न लगाया जाये. साथ ही, शिक्षक अपनी इस व्यापक जिम्मेदारी को समझें कि वे देश के भविष्य निर्माता हैं.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
ऐसे भी हैं शिक्षक
नाथानिएल सीलन
वैसे तो इस युवा शिक्षक की मुख्य शिक्षा फैशन में है, पर सीलन कई सालों से बच्चों को अपारंपरिक तरीके से शिक्षित करने के काम में लगे हुए हैं. फैशन की पढ़ाई के दौरान गर्मी की छुट्टियों में वे स्वैच्छिक कार्यों में योगदान देते थे. बच्चों के साथ सप्ताहांत में पढ़ाई से अलग रचनात्मक कामों में समय देते हुए सीलन को लगा कि शिक्षण एक उत्कृष्ट कार्य है. वर्ष 2016 के जनवरी से वे चेन्नई के विद्या निकेतन में सहायक स्कूल लीडर हैं.
अपने अनुभव से उन्होंने पाया कि हमारी शिक्षा प्रणाली उतनी बेकार नहीं है, जितनी कि वह एकतरफा है, जहां तेज बच्चों पर ध्यान दिया जाता है और कमजोर बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है. सीलन बच्चों को समूह में बांट कर कला और खेलों का पूरा उपयोग करते हुए उनके शैक्षणिक, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के विकास के लिए प्रयासरत हैं.
रमन बहल
रमन इंजीनियरिंग में शिक्षित हैं. वे दिल्ली में बीते आठ सालों में तीन स्कूलों में पढ़ा चुके हैं और अब पूरी तरह से बच्चों के सर्वांगीण विकास के प्रति समर्पित हैं.
‘टीच फॉर इंडिया’ के वोलंटियर के रूप में वे उन्हीं गरीब इलाकों में रहते थे जहां से उनके छात्र थे. ऐसा वे अधिकाधिक योगदान कर पाने और स्थानीय अनुभवों को समझने के लिए करते थे. वे दिल्ली की गरीब बस्तियों के स्कूलों में शिक्षकों को भी प्रशिक्षित करते हैं. शिक्षा से संबंधित एक संस्था में कार्य करते हुए उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न इलाकों का भ्रमण कर शिक्षा की स्थिति को जाना और समझा.
वे हिमाचल प्रदेश में पांच महीने की अवधि में 700 से अधिक शिक्षकों को प्रशिक्षित कर चुके हैं. वे माहेमदावाड़ स्थित शांति निकेतन नामक स्कूल के प्रधानाचार्य भी रह चुके हैं. अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने पाठ्यक्रम को नये सिरे से बनाने की जरूरत पर ध्यान देना शुरू किया.
(बेटर इंडिया की एक रिपोर्ट पर आधारित)
इन्हें भी जानें
स्कूली शिक्षा में सुधार संभव
बीते दशक में बड़ी संख्या में छात्र सरकारी स्कूलों को छोड़ कर निजी स्कूलों में गये और प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर बेहद निराशाजनक स्थिति देखी गयी. पूरे देश में करीब 35 फीसदी बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं.
सरकारी आवंटन में साल-दर-साल वृद्धि होने व निजी स्कूलों में शुल्क बढ़ाये जाने के बावजूद बच्चों में शिक्षा का स्तर नहीं सुधारा जा सका है. वर्ष 2013-14 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में 21 हजार से अधिक अपंजीकृत विद्यालय हैं. यह संख्या इंगित करती है कि सरकारी स्कूलों में अभिभावकों का भरोसा घटता जा रहा है. नेशनल सैंपल सर्वे के 2014 के आकलन के अनुसार, करीब 7.1 करोड़ बच्चे निजी स्तर पर ट्यूशन लेते हैं. यह छात्रों की कुल संख्या का एक-तिहाई है. एसोचैम ने 2013 में किये एक सर्वे में पाया कि महानगरों में निजी ट्यूशन में छह सालों में दोगुनी बढ़ोतरी हुई.
नये तरीके अपनाने की जरूरत
बीच में ही पढ़ाई छोड़नेवाले छात्रों की संख्या भी बहुत अधिक है. ऐसे में शिक्षण के नये तरीकों को अपनाने की जरूरत है :
बच्चों की क्षमता के अनुसार पढ़ाना : वर्ष 2016 के एक अध्ययन में पाया गया था कि छात्रों की क्षमता के अनुसार समूह में विभाजित कर पढ़ाने से वे बेहतर परिणाम दे पाये. बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में प्रतिष्ठित संस्था ‘प्रथम’ के मॉडल को अपनाने के नतीजे सकारात्मक रहे थे. इसी तरह से अनेक स्कूलों में कंप्यूटर के इस्तेमाल से भी फायदा हुआ है.
कौशल क्षमता विकसित करने के लाभ : वर्ष 2012 में हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में 3,200 परिवारों की बच्चियों को रोजगारपरक शिक्षा दी गयी और उन्हें रोजगार पाने में मदद भी की गयी. इसका नतीजा यह हुआ कि शिक्षा में विस्तार के साथ शादी और बच्चा पैदा करने में देरी होने लगी. ऐसा ही सफल प्रयोग बांग्लादेश में हो चुका है.
ये परिणाम संकेत करते हैं कि सरकार और अभिभावकों को समुचित तौर-तरीकों में निवेश करना चाहिए. सरकारी और अन्य संस्थाओं में नये उपायों और तेवरों से बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सकती है और देश के भविष्य को बेहतरी की ओर अग्रसर किया जा सकता है.
(स्क्रॉल डॉट इन में प्रकाशित विशेषज्ञ गौतम पटेल के लेख का संपादित अंश, साभार)
शिक्षा का संकट
– सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में 18 फीसदी व माध्यमिक विद्यालयों में 15 फीसदी शिक्षकों के पद खाली हैं.
– कुल मिलाकर करीब 10 लाख शिक्षकों की कमी है.
– कम साक्षर राज्यों में शिक्षकों की अधिक कमी है.
– देश के 26 करोड़ स्कूली छात्रों का करीब 55 फीसदी हिस्सा सरकारी स्कूलों में पढ़ता है.
– सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में माध्यमिक स्कूलों की सर्वाधिक रिक्तियां झारखंड में है, जो कि 70 फीसदी है. इस राज्य में प्राथमिक स्कूलों के लिए यह आंकड़ा 38 फीसदी है.
– उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षकों के आधे पद खाली हैं, जबकि बिहार और गुजरात में यह कमी एक-तिहाई है.
– 60 लाख शिक्षकों के पदों में करीब नौ लाख प्राथमिक स्कूलों में और एक लाख माध्यमिक स्कूलों में खाली हैं.
– गोवा, ओडिशा और सिक्किम में कोई पद रिक्त नहीं है.
– सबसे खराब दशा हिंदीभाषी राज्यों में है.
(सरकार द्वारा लोकसभा में पांच दिसंबर, 2016 को पेश आंकड़े)
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