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ऑनलाइन गेम की बढ़ रही है खतरनाक लत, 2014 में आया था एयरोसोल चैलेंज

ब्लू व्हेल की जानलेवा लत से पहले भी कई ऑनलाइन गेम किशोरों को शिकार बना चुके हैं. वर्ष 2014 में आया एयरोसोल चैलेंज में किशोर बेहद करीब से अपने बदन पर डिऑडोरेंट का स्प्रे करते थे और यह देखते थे कि कौन कितनी देर तक दर्द बर्दाश्त करने की हिम्मत रखता है. इस खेल में […]

ब्लू व्हेल की जानलेवा लत से पहले भी कई ऑनलाइन गेम किशोरों को शिकार बना चुके हैं. वर्ष 2014 में आया एयरोसोल चैलेंज में किशोर बेहद करीब से अपने बदन पर डिऑडोरेंट का स्प्रे करते थे और यह देखते थे कि कौन कितनी देर तक दर्द बर्दाश्त करने की हिम्मत रखता है. इस खेल में कई लोग बुरी तरह जल गये थे. फायर चैलेंज भी ऐसा ही खेल था.
उसमें ज्वलनशील द्रव शरीर पर लगाना होता था. पास-आउट चैलेंज में किशोर मरने या बेहोश होने की हद तक खुद को घुटन में रखते थे और पूरी हरकत को रिकॉर्ड कर सोशल मीडिया पर अपलोड करते थे. अब ब्लू व्हेल कहर बरपा रहा है. मनोवैज्ञानिक चिकित्सकों का कहना है कि समाज में हमेशा से आत्ममुग्ध, परपीड़क और खुद को दर्द देनेवाले लोग रहे हैं. इंटरनेट ने उन्हें आपस में जोड़ा है और कमजोर मानसिकता के किशोरों को निशाना बनाने का अवसर दिया है.
इन खेलों की लत के पीछे प्रतिद्वंद्विता और अगले चरण में जाने की ललक सबसे बड़ी भूमिका निभाती है. खेलों को इस तरह डिजाइन किया जाता है कि खेलनेवाला उसमें धीरे-धीरे फंसता जाता है. शुरू के चरणों में आसानी होती है और खेलनेवाले को ऐसा लगता है कि वह अच्छा खेल रहा है.
इस तरह से वह अगले चरणों में घुसता जाता है. ऑनलाइन में इस बात का दबाव भी नहीं रहता है कि खेलनेवाले को
समाज में या असली जीवन में कोई क्या कहेगा. वहां पहचान भी जाहिर नहीं करनी होती है. ऐसे में कई तरह की चीजों को आजमाने का मौका मिलता है.
वहां अगर आप अच्छा कर रहे हैं तो लोग फॉलो करते है, वाहवाही मिलती है. इससे अपने खास होने का अहसास पैदा होता है जो कि असली जिंदगी में खेलनेवाले को नहीं मिलती है.
अक्सर पाया गया है कि खतरनाक खेल खेलनेवाले अवसाद या उदासी के शिकार होते हैं. ऑनलाइन गेम उन्हें हिम्मती और कुछ कर पाने का भ्रम देते हैं. ऐसे ही स्थिति में कुछ लोग आभासी दुनिया को असली मान कर उसमें इस हद तक रम जाते हैं कि वे आत्महत्या या शरीर को चोटिल कर बैठते हैं.
ऑनलाइन में सक्रिय परपीड़क ऐसे लोगों की तलाश में रहते हैं. वे पहले उनकी परेशानियों को हमदर्दी से सुनते हैं और भरोसा जमाते हैं. धीरे-धीरे उन्हें खतरनाक खेलों में उलझा देते हैं. इसलिए सोशल मीडिया पर या कम्यूनिटी चैट ग्रुप में अनजान लोगों से संपर्क बनाते समय बेहद सतर्क रहने की जरूरत है.
अकेलेपन या अवसाद की स्थिति में किशोरों को बड़ों की मदद लेनी चाहिए और दोस्तों के साथ रहना चाहिए. मुश्किल अधिक बढ़ जाने पर मनोवैज्ञानिक सलाहकार के पास जाने से नहीं हिचकना चाहिए. अकेलेपन का इलाज इंटरनेट पर खोजने का खामियाजा बहुत बुरा है.
आभासी दुनिया को असली जीवन मानने की भूल नहीं करनी चाहिए. इंटरनेट पर सकारात्मक और सूचनात्मक जानकारियां भी हैं तथा किशोर समझ से काम लें, तो उनका लाभ उठा सकते हैं.
परिवार के लोगों और परिचितों को भी चौकन्ना रहना चाहिए. अगर किसी किशोर में गुस्सा, चिड़चिड़ापन या कमजोर हिम्मत जैसे लक्षण दिखें, तो उन्हें मदद करनी चाहिए. व्यवहार में उतार-चढ़ाव और रोजमर्रा की जिंदगी में दिलचस्पी नहीं लेनेवाले किशोर ऐसे खेलों की लत के शिकार हो सकते हैं.
हमारी जिंदगी में इंटरनेट के बढ़ते दखल की स्थिति में समाज और परिवार पर यह जिम्मेदारी है कि वे किशोरों के व्यवहार पर नजर रखें तथा उन्हें ऐसी लत से बाहर निकालें. यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि सोशल मीडिया या सामान्य ऑनलाइन खेलों में भी अधिक समय देना बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास में बाधक होता है. यदि परिवार और स्कूल के स्तर पर बच्चों को ध्यान से समझाया जाये, तो हम अगली पीढ़ी को तबाही के रास्ते पर जाने से रोक सकते हैं.
(विभिन्न रिपोर्टों के आधार पर)

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