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मवेशियों की खरीद-बिक्री पर नये नियमन के पेच

वध के लिए बाजारों में मवेशियों की खरीद-बिक्री पर केंद्र सरकार द्वारा जारी अधिसूचना को लेकर विवाद चल रहा है. केरल, बंगाल और कुछ राज्यों की सरकारों तथा कई जानकारों ने इस पर कड़ी आपत्ति जतायी है. कई जगह विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं. कुछ लोग इसे राज्यों के कानून में हस्तक्षेप बता रहे हैं, […]

वध के लिए बाजारों में मवेशियों की खरीद-बिक्री पर केंद्र सरकार द्वारा जारी अधिसूचना को लेकर विवाद चल रहा है. केरल, बंगाल और कुछ राज्यों की सरकारों तथा कई जानकारों ने इस पर कड़ी आपत्ति जतायी है. कई जगह विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं. कुछ लोग इसे राज्यों के कानून में हस्तक्षेप बता रहे हैं, तो कुछ इस नियमन के आर्थिक और कानूनी पहलुओं को लेकर चिंतित हैं. हालांकि, सरकार ने स्पष्ट किया है कि इस अधिसूचना का मवेशियों से संबंधित राज्यों के कानूनों का कोई लेना-देना नहीं है. अतः हस्तक्षेप का प्रश्न नहीं उठता है. इस अधिसूचना से जुड़े जरूरी मसलों पर आधारित है आज का संडे इश्यू…
गरीबों की अर्थव्यवस्था का वध
रिचर्ड महापात्रा
मैनेजिंग एडिटर डाउनटूअर्थ
वध के लिए बाजारों में मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर सरकारी रोक से भैंसों के मांस के निर्यात से होनेवाली आय तो भुला ही दें, क्योंकि इसका असली असर तो भारत के निर्धनतम किसानों और मवेशियों से संबद्ध उस अर्थव्यवस्था पर दिखनेवाला है, जो आज तीन लाख करोड़ रुपयों से भी अधिक का है. इस रोक को लेकर चलनेवाली सारी बहस आज दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से देश के संघीय ढांचे तथा धार्मिक भावनाओं पर केंद्रित हो गयी है, जबकि यह उस अर्थव्यवस्था का ही अंत करने चली है, जिस पर अनिश्चित मानसून और फसलों से घटती जाती आय के मारे भारत के लघु एवं सीमांत किसान निर्भर हो चुके थे.
पिछले एक दशक के अंदर कृषि क्षेत्र एक ऐतिहासिक विस्थापन का साक्षी बना, जब इसकी अर्थव्यवस्था में मवेशियों का आर्थिक योगदान खाद्य फसलों से आगे निकल गया. इस क्षेत्र के तीन पारंपरिक घटकों-फसलें, मवेशी एवं मत्स्यपालन-में फसलें जहां विकास की इंजन थीं, वहीं खाद्यान्न उसके मुख्य हिस्से हुआ करते थे. नतीजतन, नीतियां तथा कार्यक्रम फसलों पर ही केंद्रित रहे. देश में कृषि अर्थव्यवस्था के इस बदलते स्वरूप से अनभिज्ञता भी असल मुद्दे से बहसों के हालिया भटकाव की वजह बन गयी. मीडिया जहां आय की हानि पर जोर देता रहा, वहीं और किसी ने भी मवेशियों की उस स्थानीय अर्थव्यवस्था की बातें नहीं उठायीं, जो अब अकेले ही कृषि क्षेत्र के विकास की नियंता बन गयी थी.
इस बदलाव का एक दशक से भी अधिक अरसा बीत चुका, जब किसानों ने फसलों से हट कर मवेशियों पर चले जाने का सोचा-समझा फैसला लिया. 2002-03 में जब मवेशियों के आर्थिक योगदान ने फसलों की आय पीछे छोड़ दी, तो नीति निर्माताओं ने यह सोच कर इसकी उपेक्षा कर दी कि यह बार-बार के सुखाड़ों की वजह से कृषि विकास की सुस्त पड़ी रफ्तार के मुकाबले को गरीबों द्वारा इस्तेमाल की जानेवाली एक अस्थायी युक्ति है. पर राष्ट्रीय कृषि आर्थिकी एवं नीति अनुसंधान केंद्र के अर्थशास्त्रियों के अनुसार, तब से ही मवेशियों का यह योगदान फसलों की अपेक्षा 5 से 13 प्रतिशत आगे रहता आया है. तथ्य तो यह है कि मवेशी और मत्स्य पालन दोनों एक दशक से फसलों से आगे चलते रहे हैं. 2017 में समाप्त हुई 12 वीं पंचवर्षीय योजना के लिए तैयार की गयी एक रिपोर्ट ने मवेशियों को कृषि विकास का इंजन मानते हुए इस विस्थापन को मान्यता प्रदान की.
कृषि के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के चौथे हिस्से को मवेशी ही नियंत्रित करते हैं. 2010-11 में इन्होने वर्तमान कीमतों के हिसाब से 3,40,500 करोड़ रुपयों का आउटपुट दिया, जो कृषि के जीडीपी का 28 प्रतिशत तथा देश के जीडीपी का पांच प्रतिशत था. योगदान के मामले में मवेशियों के बाद धान का दर्जा है. केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार, 2009-10 में मवेशियों से मिला आउटपुट धान के मूल्य का ढाई गुना और गेहूं की कीमतों के तीन गुने से भी अधिक था. एक अर्थशास्त्री ने कहा है कि ‘मवेशी नैसर्गिक पूंजी हैं, जिनकी वंशवृद्धि आसानी से करते हुए उनकी संततियों को उससे मिलनेवाले ब्याज के रूप में एक जीता-जागता बैंक और फसलों की विफलता तथा प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध एक बीमा माना जा सकता है.’
किसानों के लिए मवेशियों की उपयोगिता के साथ ही खाद्य उपभोग के चलन में बदलाव ने मवेशियों पर आधारित इस अर्थव्यवस्था का विकास तेज किया. कृषिकर्म के यंत्रीकरण तथा जोत के आकार घटते जाने के साथ ही बोझ खींचने अथवा उसे ढोने की शक्ति के रूप में मवेशियों का महत्व गिरता गया. गोबर खाद की जगह रासायनिक उर्वरकों ने छीन ली. इसके साथ ही, शहरी तथा ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में तेजी से विकसित होते मध्यवर्ग की बढ़ती आय की वजह से अंडे, दूध और मांस जैसे पशु उत्पादों का उपभोग भी बढ़ चला.
कई कृषि अर्थशास्त्रियों के अनुसार ‘गोमांस’ को लेकर बने लगातार भ्रम और मांस के उपभोग के प्रति बढ़ती असहनशीलता से गरीबों की इस नयी अर्थव्यवस्था के सामने मंदी का संकट आ खड़ा हुआ है. मसलन, ये नये विनियम लोगों को पशु हाटों में कारोबार करने से रोकते हैं, जबकि लगभग सभी मवेशी स्थानीय साप्ताहिक हाटों में ही बेचे जाते हैं. किसानों के लिए ये बाजार सुगम और सुविधाजनक विकल्प पेश करते रहे हैं, वरना उन्हें परिवहन पर कहीं अधिक खर्च करना पड़ जाता.
मवेशियों की अर्थव्यवस्था में उछाल देख अर्थशास्त्रियों ने वर्ष 2010-11 में ही यह पूर्वानुमान किया था कि सकल कृषि विकास ऊंचा होगा. भीषण सुखाड़ के बावजूद, 2009 में कृषि क्षेत्र ने मवेशी अर्थव्यवस्था में तेजी के बूते ही विकास दर्ज करायी थी. रोजगार तथा आयोत्पादक अवसर प्रदान करने में मवेशियों ने सबसे अहम भूमिका हासिल कर ली. हालांकि फसलें अभी भी अधिक लोगों को रोजगार देती हैं, पर मवेशियों से मिलनेवाला रोजगार तेजी से उसकी बराबरी की ओर बढ़ रहा है.
मवेशी क्षेत्र के विकास में गरीबी में गिरावट लाने की क्षमता है. जिन राज्यों में कृषि आय में मवेशियों का योगदान अधिक है, वहां ग्रामीण गरीबी भी कमतर है. पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, केरल, गुजरात तथा राजस्थान इसकी मिसालें हैं. मवेशियों के व्यवसाय में ज्यादातर वही लोग आ रहे हैं, जो या तो सीमांत कृषक हैं अथवा खेती-किसानी छोड़ चुके हैं. भारत में मवेशियों के बाजार का 70 प्रतिशत लघु, सीमांत तथा भूमिहीन आबादी के 67 प्रतिशत के स्वामित्व में है. एक अर्थ में, समृद्धि अब खेतों की बजाय ‘प्रति व्यक्ति मवेशी-मिल्कीयत’ पर ज्यादा निर्भर है. इसका अर्थ यह है कि गरीबी में गिरावट पर फसल विकास की अपेक्षा मवेशी क्षेत्र का असर अधिक होगा.
मगर यह भी इस क्षेत्र की पूरी संभावनाओं का उद्घाटन नहीं करता. निर्धनतम आबादी के हित साधनेवाले इस क्षेत्र का विकास नीतिगत अभावों ने अवरुद्ध कर रखा है. भारत की मवेशी उत्पादकता वैश्विक औसत से 20 से 60 प्रतिशत नीची है. उत्पादकता की इस गैरहासिल संभावना के 50 प्रतिशत का सर्वाधिक उत्तरदायी कारक पशु खाद्य तथा चारे की कमी हैं, जिसके बाद मवेशियों में अपर्याप्त प्रजनन तथा बढ़ती बीमारियों का स्थान आता है.
चूंकि मवेशी भूमंडलीय उष्णता तथा जलवायु परिवर्तन के प्रति कम संवेदनशील हैं, उन पर वर्षा-निर्भर कृषि से अधिक भरोसा किया जा सकता है. पर मवेशियों के इस क्षेत्र को कृषि और संबद्ध क्षेत्र पर सार्वजनिक व्यय के केवल 12 प्रतिशत तथा कुल संस्थागत ऋण प्रवाह के चार-पांच प्रतिशत से ही संतोष करना पड़ता है. बमुश्किल छह फीसदी मवेशियों का ही बीमा हो पाता है.
और अब, हालिया विनियमों तथा स्वयं सरकार की नीतियों में भ्रम की वजह से गरीबों की इस नयी अर्थव्यवस्था पर गंभीर संकट की घटाएं घिर आयी हैं. जब देश बेरोजगारी के शिकंजे में पड़ा है, मवेशी क्षेत्र इस संकट से निबटने के लिए एक नैसर्गिक विकल्प बन उभर सकता था, पर यदि किसान अपने मवेशी बेच पाने तथा उनका कारोबार करते वक्त स्वयं की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त ही न हों, तब यह अर्थव्यवस्था तो तत्काल ही धराशायी हो जायेगी. मुक्त बाजार की ही तरह, गरीबों की अर्थव्यवस्था के लिए भावनाओं की भी बहुत अहमियत होती है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
वध के लिए पशु बिक्री पर रोक
23 मई, 2017 को केंद्र सरकार ने पशु बाजारों में वध के लिए मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध लगाने संबंधी एक अधिसूचना जारी की, जिसे लेकर सियासत गरमा गयी है. अनेक राजनीतिक दलों ने सरकार के इस फैसले को मनमाना और एकतरफा बताया है. केरल पश्चिम बंगाल, गोवा, तमिलनाडु समेत कई राज्यों में केंद्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली है. एक नजर इस प्रतिबंध से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्यों पर.
क्या है अधिसूचना
पर्यावरण मंत्रालय ने पशु पर क्रूरता रोकने के लिए पशु क्रूरता निरोधक नियम (पशुधन बाजार नियमन), 2017 को लेकर नयी अधिसूचना जारी की है. यह नियम पशु क्रूरता निरोधक अधिनियम, 1960 के तहत अधिसूचित किया गया है. इस अधिसूचना के अनुसार, पशु बाजार समिति के सदस्य सचिव को यह सुनिश्चित करना होगा कि काई भी व्यक्ति अवयस्क पशु को बिक्री के लिए बाजार में लेकर न आये. अधिसूचना में सांड, बैल, गाय, भैंस, बधिया बैल, बछिया व बछड़ा और ऊंट को मवेशी के अंतर्गत शामिल किया गया है. इसके अलावा मवेशी विक्रेता और क्रेता को लिखित में यह देना होगा कि जिस मवेशी को मवेशी बाजार में बेचा जा रहा है, वह वध के उद्देश्य से नहीं बेचा जा रहा है. क्रेता के पास उसके किसान होने के दस्तावेजी प्रमाण भी होने चाहिए और उसे भी लिखित में यह देना होगा कि क्रय की तिथि से छह महीने तक वह मवेशी को नहीं बेचेगा. इसके साथ ही पशु बाजार समिति को यह सुनिश्चित करना होगा कि क्रेता मवेशी को वध के लिए न बेचे, न ही उसकी बलि दे और न ही राज्य मवेशी सुरक्षा या संरक्षण कानून के तहत राज्य की आज्ञा के बिना वह मवेशी को राज्य के बाहर बेचे. इसके अतिरिक्त सरकार ने मवेशियों से जुड़ी क्रूर परंपराओं जैसे सींग रंगना, उनको सजावट के सामान या आभूषण से सजाना आदि पर भी प्रतिबंध लगाया है.
भैंस मांस के निर्यात में अग्रणी है भारत
< भारत के अधिकांश राज्यों में गोवध प्रतिबंधित है. वर्तमान समय में भारत भैंस मांस निर्यात में विश्व में अग्रणी है.
< 4 अरब डॉलर (चार बिलियन डॉलर) के मांस का निर्यात होता है प्रतिवर्ष भारत से और इस कारोबार से लाखों लोग जुड़े हुए हैं.
< 3.9 अरब डॉलर (3.9 बिलियन डॉलर) मूल्य के 1.33 मिलियन टन भैंस के मांस का निर्यात किया है भारत ने 2016-17 में 31 मार्च तक.
< 29 प्रतिशत समग्र वार्षिक दर के साथ 3,533 करोड़ से 26,685 करोड़ (13,14,157 मीट्रिक टन) बढ़ गया भैंस के मांस का निर्यात 2007-08 और 2015-16 में.
< भैंस के मांस के निर्यात में प्रमुख योगदान उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब का है, इन राज्यों में भैंस के मांस का सर्वाधिक उत्पादन होता है.
< वियतनाम, मलेशिया, मिस्र, सऊदी अरब और इराक मांस के प्रमुख आयातक देश हैं.
5.5 अरब डॉलर (5.5 बिलियन डॉलर) मूल्य के कच्चे माल की आपूर्ति होती है मांस निर्यात के अलावा चमड़ा इकाई को भारत से.
मद्रास उच्च न्यायालय का आदेश
30 मई को मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै खंडपीठ ने अपने अंतरिम आदेश में केंद्र सरकार की इस अधिसूचना पर चार सप्ताह के लिए रोक लगा दी और रोक की इस अवधि के भीतर केंद्र सरकार को अपना जवाब दायर करने को कहा. रोक को चुनौती देनेवाली कई याचिकाओं के दाखिल होने के बाद न्यायालय ने यह फैसला लिया. इस पीठ में न्यायमूर्ति एमवी मुरलीधरन और न्यायमूर्ति सीवी कार्तिकेयन शामिल थे.
केरल उच्च न्यायालय
मवेशी बिक्री के लिए जारी नयी अधिसूचना पर मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले के एक दिन के बाद ही केरल उच्च न्यायालय की पीठ ने इस अधिसूचना के खिलाफ युवा कांग्रेस नेता द्वारा दायर की गयी याचिका को खारिज कर दिया. इसके साथ ही पीठ ने मदुरै खंडपीठ द्वारा सुनाये गये फैसले से असहमति भी जतायी. इस पीठ में न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश नवनीति प्रसाद सिंह और न्यायमूर्ति राजीव विजयराघवन शामिल थे.
कितना होगा प्रतिबंध का असरसीमित हो जायेंगे मवेशी बेचने के माध्यम
पशु बाजार के माध्यम से ही अधिकांश मवेशी वध के लिए खरीदे जाते हैं. इस प्रकार सरकार द्वारा बनाये गये नये नियम किसानों के लिए परेशानी का सबब बन जायेंगे और उनके लिए अपने मवेशियों को बेचना मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि आमतौर पर मांस व्यापारी मवेशी बाजार के जरिये ही किसानों से भैंस खरीदते हैं और उसके बाद वे उसे बूचड़खानों में भेज देते हैं. लेकिन, अब नये नियम के कारण व्यापरियों को सीधे किसानों से ही मवेशी खरीदना होगा और उसे बूचड़खाना भेजना होगा. इस तरह किसानों के पास अपने मवेशियों को बेचने के माध्यम सीमित हो जायेंगे. इस नियम से मांस निर्यात इकाई भी भयभीत हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनकी आपूर्ति प्रभावित होगी.
बढ़ जायेंगे दूध के दाम
< अभी एक भैंस 20,000 रुपये में बेची जाती है, इस नये नियम के लागू होने के बाद उसके दाम कम हो सकते हैं.
< अब जब किसानों को बूढ़े, बीमार या दूध देने में अक्षम हो चुके मवेशियों को बेचने पर पूरे दाम नहीं मिल पायेंगे, तो वे उसकी भरपाई दूध का दाम बढ़ा कर करेंगे. इस तरह न सिर्फ दूध, बल्कि दुग्ध उत्पादाें के दाम भी बढ़ जायेंगे.
< उधर, डेयरी मालिक भी चिंतित हैं कि नये नियम के तहत बहुत सारी कागजी कार्रवाई पूरी करने और लिखित में वादे करने के कारण मवेशियों को खरीदने और उन्हें ले जाने में मुश्किलें आयेगी.
< अभी किसान मवेशियों को इसलिए पालते हैं कि जब तक वे दूध देंगी तब तक वे दूध बेचेंगे और बाद में मवेशी को बेच कर अपना पैसा निकाल लेंगे. लेकिन, नये नियम के कारण मवेशियों को बेचने में अानेवाली दिक्कतों को देखते हुए बहुत संभव है कि किसान उन्हें पालना और दूध बेचना ही बंद कर दें.

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