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महत्वाकांक्षी ग्राम नीति से खुद को बदलने की कोशिश कर रहा चीन

चीन की सरकार ने फरवरी 2006 में एक नयी महत्वाकांक्षी ग्राम नीति की घोषणा की. इसमें इस बात का ध्यान रखा गया था कि विकास में कम से कम भेदभाव और संसाधनों का अधिक सुव्यवस्थित वितरण हो एवं आय का संतुलन बना रहे. इसका संदेश स्पष्ट था गांव की ओर चलो. दरअसल, चीन में आर्थिक […]

चीन की सरकार ने फरवरी 2006 में एक नयी महत्वाकांक्षी ग्राम नीति की घोषणा की. इसमें इस बात का ध्यान रखा गया था कि विकास में कम से कम भेदभाव और संसाधनों का अधिक सुव्यवस्थित वितरण हो एवं आय का संतुलन बना रहे. इसका संदेश स्पष्ट था गांव की ओर चलो. दरअसल, चीन में आर्थिक कारणों से उत्पन्न असमानता बढ़ चुकी थी.

इस कारण आमलोगों के विरोध का सामना देश को करना पड़ रहा था. इसका कारण था भ्रष्टाचार और गरीबी, जो हाल के वर्षो में बढ़ गयी थी. नयी ग्राम नीति ने यह मौका उपलब्ध करवाया कि चीन की आर्थिक नीतियां एक नयी दिशा में बढ़े. नये समाजवादी ग्रामीण राष्ट्र का निर्माण शिक्षा, स्वास्थ्य, किसानों की आर्थिक सहायता या सब्सिडी एवं बड़े पैमाने पर ग्रामीण आधारभूत संरचना के लिए वित्तीय मदद उपलब्ध करवाने के माध्यम से आरंभ हुआ. गांवों को लेकर की गयी यह नयी पहल 2006-2010 की नयी पंचवर्षीय योजना का केंद्रीय हिस्सा थी. चीन के राष्ट्रपति (तत्कालीन) हू जिंताओ और प्रधानमंत्री(तत्कालीन) बेन जिवाबो ने अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता इस चीज को बनाया कि कैसे गरीबों और अमीरों के बीच के अंतर को कम किया जाये, जो वहां ग्रामीण व शहरी विभाजन के रूप में दिखता है.

चीन ने अस्सी करोड़ किसान जो देश की आबादी का 70 प्रतिशत थे, पर उनकी सालाना औसत आय मात्र 400 डॉलर (लगभग 2680 रुपये) थी. यह शहरी आय का मात्र एक तिहाई थी. यह कृषक वर्ग राष्ट्र के सकल घरेलू उपभोग का मात्र 40 प्रतिशत उपभोग करता था. यह गैप तब और बढ़ जाता था, जब स्वास्थ्य सेवा और दूसरे सामाजिक लाभ में शहरी लोगों को बेहतर सुविधा उपलब्ध करायी जाती थी. जबकि ग्रामीण क्षेत्र में उस तरह की सुविधा उपलब्ध नहीं करायी जाती थी. चीन के जन सुरक्षा मंत्रलय के आंकड़ों के अनुसार, देश में 2005 में कुल 87 हजार विरोध प्रदर्शन हुए. ये प्रदर्शन कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार, जमीन का गलत ढंग से अधिग्रहण और मजदूरी व पेंशन का भुगतान नहीं करने के विरुद्ध था.

नयी ग्राम नीति में कई पायलट प्रोजेक्ट के तहत कई तरह की योजनाओं पर कार्य किया जाने लगा. इसमें एक महत्वपूर्ण कदम था, जनवरी 2006 में सैकड़ों साल पुरानी कृषि नीति को समाप्त कर किसानों को राहत देना. दिसंबर 2005 में नेशनल पिपुल कांग्रेस (एनपीसी) ने आरंभिक तौर पर 100 विलियन यान यानी 12.5 विलियन डॉलर एक साल के लिए ग्रामीण क्षेत्र के लिए स्वीकृत किया.

चीन में सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियान में 100 प्रतिशत तक हिस्सेदारी की छलांग लगायी, जो साम्यवादी क्रांति वाले दिनों में 15 प्रतिशत थी. पहले चीन के बड़े नगरों में रहने वाले लोग स्वास्थ्य संसाधनों का 80 प्रतिशत उपयोग करते थे, जिनकी आबादी देश में मात्र एक तिहाई थी. 2000 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के 191 देशों की सूची में स्वास्थ्य सेवा के दृष्टिकोण से 144वां स्थान दिया गया, यहां तक कि भारत का स्थान भी उससे ऊपर था.

चीन की नयी ग्राम नीति में वादा किया गया कि 2007 में ग्रामीण छात्रों को पुस्तकों के लिए राशि नहीं देनी होगी. गरीब परिवार के छात्रों को मुफ्त छात्रवास व यात्र में छूट दी जायेगी. यह प्रस्ताव रखा गया कि ग्रामीण क्षेत्र में पढ़ाने वाले शिक्षकों के वेतनमान में वृद्धि की जायेगी. साथ ही यह भी अनिवार्य किया गया कि शहरों में काम करने वाले शिक्षकों को भी कुछ साल ग्रामीण क्षेत्र में पढ़ाना होगा. चीन के द्वारा उठायी गयी इस तरह की नीतियां का व्यापक असर वहां के ग्रामीण क्षेत्र के विकास पर पड़ा.

हालांकि चीन की नयी ग्राम नीति में कुछ गंभीर कमियां भी हैं. जो इस प्रकाश है :

नयी आर्थिक नीति में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि किसानों की जमीन बेचने व खरीदने के संबंध में किस तरह अनुमति दी जायेगी.

चीन के संविधान के अनुसार खेतिहर भूमि गांव की सामूहिक संपत्ति होती है. ऐसे में कोई किसान, जो उस खेत को जोतता है, उसका आसानी से स्थानीय अधिकारियों द्वारा शोषण किया जा सकता है. इस बिना पर कि उस भूमि को विकास योजनाओं के लिए अधिग्रहित करना है. इतना ही नहीं उसे अपर्याप्त मुआवजा पाने जैसी कष्टकर स्थितियों से भी गुजरना पड़ सकता है.

ग्रामीण आबादी का वहां बड़े शहरों की ओर पलायन अबतक प्रतिबंधित है. इससे उनके पास गरीबी दूर करने के विकल्प या क्षमता सीमित हो जाती है.

2005 के यूएनडीपी के आंकड़े के अनुसार, असमानता नापने के इंडैक्स पर चीन का प्वाइंट 44.7 था, जो भारत के 32.5 से भी अधिक खराब स्थिति का सूचक है.

भारत के लिए चीन से सीखने वाली चीजें
वास्तव में भारत की सफलता या विफलता की चीन के साथ तुलनात्मक अध्ययन स्वाभाविक है. इसमें कुछ अकादमिक व विद्ववतापूर्ण हैं, जो वास्तविकता से दूर हैं. दूसरे वैसे हैं, जिनका उपयोग राजनीतिक बहस व वाद-विवाद में किया जाता है. इसका महत्वपूर्ण व्यावहारिक असर भी पड़ता है. कुछ मामले किसी विशेष क्रांति से जुड़े हैं, जैसे माओवादी राजनीतिक पार्टियों. जो वाम पार्टियां क्रांतिकारी नहीं हैं और वे भारतीय संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में अच्छे ढंग से शामिल हो चुकी हैं और शासन में भागीदारी निभाती हैं, वे इस बात पर दीर्घकालिक ध्यान रखती हैं कि कैसे सामाजिक और आर्थिक उपलब्धियां हासिल की जाये. इसके लिए वे चीन की ओर सम्मानपूर्वक देखती हैं और उससे सीखती व मार्गदर्शन लेती हैं. वहां बाजार की शक्ति आर्थिक विकास के लक्ष्य को वहन करती है. जबकि भारत में लोग तब तेजी से गरीबी की ओर बढ़ते हैं, जब यह संदेह होता है कि बाजार तंत्र को क्या करना चाहिए. बाजार तंत्र के द्वारा बनाये गये कारणों से हमारा आर्थिक विकास अधिक नहीं हो पाता, क्योंकि उदारीकरण ने निरंतर सामाजिक विकास को नकारा है.

दूसरी बात, चीन में सामाजिक अवसर के विस्तार के लिए दो चीजों के बीच संतुलन बनाये रखने की कोशिश की गयी है. एक ओर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, सामाजिक सुरक्षा और भूमि सुधार में वहां सरकार का प्रभावी हस्तक्षेप है. वहीं, दूसरी ओर वहां बाजार तंत्र प्रभावशाली व्यापार और उत्पादन का हिस्सा है.

तीसरी बात, चीन के उदारीकरण कार्यक्रम के पास कुछ व्यावहारिक व यथार्थवादी योजनाएं हैं. जैसे बाजार तंत्र वहां सामाजिक एवं आर्थिक अवसर के लिए अतिरिक्त चैनल का निर्माण करता है. वह भी बिना बाजार पर निर्भर होने की कोशिश किये. वह स्वयं ही उसकी जगह एक सामाजिक ढांचा तैयार करता है. वहां सार्वजनिक निगमों के निजीकरण के लिए परेशान करने वाली कोशिश नहीं आरंभ हुई है. और न ही शासन द्वारा उसे उपेक्षित छोड़ने का उदाहरण है. इसके बदले वहां नयी संभावनाओं के द्वारा निजी क्षेत्र के लिए खोलने की कोशिश की जाती है.

चौथी बात, चीन में भूमि पर सामूहिक स्वामित्व रहता है. पुरुष एवं महिला दोनों का उस पर समान अधिकार होता है और उस पर कृषि उपज हासिल करने के बदले उसे एक शुल्क अदा करना होता है. यह लैंगिक समानता की दिशा में एक अच्छी स्थिति है. यानी वहां वयस्क पुरुष एवं महिला का भूमि पर समान अधिकार होता है. जबकि भारत में भूमि पर अधिकार पुरुष सत्तात्मक है. यह लैंगिक असमानता का यहां बड़ा कारण है और यह महिलाओं के लिए प्रतिकूल परिस्थिति होने का एक बड़ा कारण है. चीन की व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्र में एक ऐसी स्थिति की उत्पत्ति को भी रोकती है, जिसमें किसी व्यक्ति केपास भूमि नहीं हो. सामूहिक स्वामित्व व व्यक्तिगत उपयोग के माध्यम से उत्पादन वाली दोहरी स्थिति वहां की विशेषता है. यह वहां के आर्थिक सुधार के लिए अच्छी स्थिति है. भारत चीन से ये चीजें अपने लिए सीख सकता है.

चौथी बात, भारत चीन से आर्थिक और सामाजिक नीतियों के क्षेत्र में सीख सकता है. चीन की तरह भारत में भी मजबूत राजनीतिक जवाबदेही है. राजनीतिक नेतृत्व पर गरीबी और सुविधा-सेवाओं से वंचित होने की स्थिति को कम करने का जिम्मा है. वहां आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों में राजनीतिक कारणों से तदर्थवाद(तात्कालिक व हल्के ढंग से निबटाना) नहीं है.

Prabhat Khabar Digital Desk
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