हम हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाते हैं. हर साल यह मांग करते हैं कि राजभाषा हिंदी को देश में उसका उचित दर्जा दिया जाये. हर साल आंकड़ों के आधार पर यह दिखाते हैं कि हिंदी कितनी फल-फूल रही है. राजभाषा के नाम पर हिंदी के विकास के लिए कितना काम हो चुका है, कितना अभी होना है. असल में, राजभाषा किसी के सरोकार की नहीं, बल्कि रोजगार की भाषा है. राजभाषा के नाम पर सरकार के अलग-अलग उपक्रमों में हजारों लोग रोजगार में लगे हैं.
बहुत सारे लोग राजभाषा हिंदी के लिए नहीं, बल्कि अपने रोजगार के लिए हिंदी की सेवा कर रहे हैं. लेकिन, यूरोप-अमेरिका के देशों में, खासकर यूरोपीय भाषाओं में अनेक विद्वान हुए हैं, जिन्होंने हिंदी भाषा में बहुत उल्लेखनीय काम करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय आयाम दिया है. आज दिल से ऐसे हिंदी सेवियों को याद किया जाना चाहिए, जिनके काम की चर्चा विशाल हिंदी पट्टी में कम ही होती है. इंगलैंड, जर्मनी, इटली, अमेरिका में फैले इन विद्वानों ने राज-रोजगार के लिए नहीं, बल्कि भाषा प्रेम के कारण हिंदी की सेवा की. आज हिंदी दिवस के मौके पर ऐसे ही कुछ िवदेशी विद्वानों की चर्चा कर रहे हैं साहित्यकार प्रभात रंजन…
प्रोफेसर लोठार लुत्से
विदेशी हिंदी सेवियों की चर्चा लोठार लुत्से से ही की जानी चाहिए, क्योंकि वे उन कुछ विद्वानों में थे, जिन्होंने अपने समकालीन हिंदी लेखकों, विद्वानों से बराबर संवाद बनाये रखा. वे मूल रूप से जर्मन भाषी थे और जर्मनी के प्रसिद्ध हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय में इंडोलोजी यानी भारत विद्या के विभाग को मजबूत बनाने में उनका योगदान सबसे महत्वपूर्ण माना जाता रहा है. केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा उनको जॉर्ज ग्रियर्सन सम्मान भी प्रदान किया गया था. लोठार लुत्से ने हिंदी से जर्मन भाषा में अनुवाद भी किये और हिंदी को लेकर शोध को भी बढ़ावा दिया. एक तरह से जर्मन भाषा में विमर्श के केंद्र में संस्कृत के बरक्स हिंदी को लाने में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती रही है.
अलेक्सांद्र निकोलायेविच सिंकेविच
इस रूसी विद्वान ने स्वयं हिंदी में लिखा है और बीसवीं शताब्दी के हिंदी के सभी बड़े कवियों की कविताओं का रूसी भाषा में अनुवाद किया है, जिनमें अज्ञेय, बच्चन, अशोक वाजपेयी, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा आदि का नाम प्रमुख है.
इसके अलावा, इन्होंने हिंदी के अपेक्षाकृत युवा पीढ़ी के कवियों की रचनाओं के अनुवाद भी रूसी में प्रकाशित किये हैं- जैसे विश्वनाथ प्रसाद सिंह, गोरख पांडेय, मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, नरेंद्र जैन, अरुण कमल, अनिल जनविजय, गगन गिल और स्वप्निल श्रीवास्तव आदि. अलेक्सांद्र सिंकेविच की कविताएं कभी ‘दिनमान’ में भी प्रकाशित होती थीं, जिनका अनुवाद सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और रघुवीर सहाय जैसे कवि करते थे. अलेक्सांद्र सिंकेविच ने भारत संबंधी अनेक अभियानों का आयोजन और नेतृत्व किया है. उनकी पहल पर और उनके नेतृत्व में अनेक रूसी अभियान दलों ने उत्तर भारत के हिमालयी क्षेत्रों के अलावा, भूटान, नेपाल और तिब्बत की खोज यात्राएं की हैं. अलेक्सांद्र सिंकेविच रूस से हिंदी लेखकों को दिये जाने वाले ‘पुशकिन सम्मान’ की ज्यूरी के स्थायी सदस्य हैं. अलेक्सांद्र सिंकेविच को 2007 में इवान बूनिन पुरस्कार मिल चुका है.
इमरै बंघा
आज से करीब 17 साल पहले हंगरी के इस निवासी की किताब हिंदी में आयी थी- सनेह को मारग. यह रीतिकाल के सबसे अनूठे कवि घनानंद की जीवनी थी. जी, प्रेम के इस महाकवि के जीवन को लेकर किस्से-कहानियों में तो बहुत कुछ लिखा जाता रहा था, लेकिन व्यवस्थित रूप से उनके जीवन, उनके लेखन को लेकर हिंदी में कुछ खास नहीं लिखा गया था.
इमरै बंघा ने घनानंद की पहली जीवनी लिख कर उनके जीवन को लेकर फैली हुई धुंध को साफ करने का काम किया था. लेकिन लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल स्टडीज में हिंदी पढ़ानेवाले इस विद्वान का काम यहीं तक नहीं है. इमरै ने खड़ी बोली के उद्भव और विकास को लेकर गंभीर काम किये हैं. भारत में हाल के दशकों में हिंदी भाषा को लेकर खास काम नहीं हुआ है. इमरै बंघा का काम उसकी क्षतिपूर्ति करता लगता है. इमरै ने ब्रजभाषा साहित्य का मूल भाषा में गहरा अध्ययन किया है और भाषाओं की राजनीति को लेकर भी वे काम करते रहे हैं. वे मध्यकालीन और आधुनिक हिंदी के विभिन्न रूपों में समान रूप से दक्ष हैं. वे रुपर्ट स्नेल के विद्यार्थी रहे हैं और उनकी परंपरा को अंगरेजी में आगे बढ़ा रहे हैं.
मारिओला औफ्रेदी
इटली के प्रसिद्ध वेनिस विश्वविद्यालय में मरिओला औफ्रेदी ने करीब 40 सालों तक हिंदी पढ़ाया. भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाने के अलावा मरिओला ने भारत में हिंदी और संस्कृत से अनेक उल्लेखनीय अनुवाद किये. भारतीय भाषाओं में बोलियों के प्रभाव के ऊपर काम किया और इटली में कई पीढ़ियों को उन्होंने हिंदी साहित्य से जोड़ने का काम किया.
उनके अनुवादों में जो सबसे उल्लेखनीय बात है, वह यह है कि उन्होंने हिंदी भाषा के कई पीढ़ियों के लेखकों-कवियों की रचनाओं के इटैलियन भाषा में अनुवाद किये. उन्होंने मूर्धन्य कवि कुंवर नारायण और निर्मल वर्मा जैसे वरिष्ठ लेखकों के अनुवाद किये, तो दूसरी तरफ अलका सरावगी और उनकी पीढ़ी के कई लेखकों की रचनाओं के अनुवाद किये. किसी भी विदेशी भाषा में हिंदी का सबसे अधिक अनुवाद मारिओला औफ्रेदी ने ही किया है. यह दुर्भाग्य की बात है कि हिंदी पट्टी में उनके इस योगदान को कहीं नहीं याद किया जाता है, जबकि हिंदी की आधुनिकता और परंपरा के साथ उसके अंतर्संबंधों को लेकर मारिओला ने जो काम किये हैं, उससे हिंदी को लेकर आधुनिक विमर्श समृद्ध हुआ है.
रुपर्ट स्नेल
अंगरेजी जाननेवालों को हिंदी सिखाने के लिए ब्रिटिश विद्वान रुपर्ट स्नेल ने जितना काम किया है, उतना शायद किसी और ने नहीं किया. अंगरेजी भाषी समाज में हिंदी सीखनेवालों के बीच सबसे मानक उनकी हिंदी सिखानेवाली किताबें ही मानी जाती हैं. लेकिन रुपर्ट स्नेल सिर्फ इसी काम के लिए नहीं जाने जाते हैं. उनको ब्रजभाषा साहित्य पर अपने शोध और किताबों के लिए जाना जाता है. ब्रजभाषा में कृष्णभक्ति काव्य परंपरा को लेकर हिंदी में शायद ही किसी हिंदी विद्वान ने इतने विस्तार से काम किया है.
हिंदी में कृष्णभक्ति काव्य-परंपरा का सारा जोर सूरदास और अष्टछाप के कवियों पर रहा है, लेकिन रुपर्ट स्नेल ने अपने शोध के माध्यम से यह दिखाया कि बड़ी तादाद में कवि कृष्ण भक्ति काव्य की रचना कर रहे थे और ब्रजभाषा की व्याप्ति के पीछे इन्हीं भक्त कवियों का बड़ा योगदान रहा. पहले लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल स्टडीज में प्रोफेसर रहे रुपर्ट स्नेल आजकल अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास, ऑस्टिन में प्रोफेसर हैं. वे निरंतर इसको लेकर प्रयोग करते रहते हैं कि किस तरह से अंगरेजी भाषी लोगों को हिंदी सिखाने के लिए नये-नये तरह के कोर्स चलाये जायें, उनको किस तरह आसान बनाया जाये. स्नेल ने हिंदी कवि हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा का अंगरेजी में अनुवाद किया ‘इन द आफ्टरनून ऑफ टाइम’ के नाम से, जिसकी बहुत सराहना हुई. उन्होंने 90 के दशक के बाद लोकप्रिय हुई हिंगलिश भाषा पर भी काम किया है और आजकल बिहारी सतसई के अंगरेजी अनुवाद में लगे हुए हैं.
जिलियन राइट
अगर हिंदी साहित्य के अंगरेजी अनुवादों की चर्चा हो और जिलियन राइट का जिक्र न आये, तो यह चर्चा अधूरी ही मानी जायेगी. इसके कारण हैं. एक कारण यह कि वह भारत में रहती हैं और हिंदी को लेकर उन्होंने जो काम किये हैं, उस कारण हिंदी जगत में जानी जाती रही हैं.
हिंदी में अपने भाषाई खेल के लिए जाने जाने वाले दो बेहतरीन उपन्यासों, राही मासूम रजा के उपन्यास ‘आधा गांव’ और श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ के अंगरेजी भाषा में अनुवाद किये और इस कारण उनकी पर्याप्त चर्चा भी हुई. जिलियन राइट के बारे में ध्यान रखनेवाली एक बात यह है कि उन्होंने उस दौर में हिंदी साहित्य के अंगरेजी अनुवादों की शुरुआत की, जब अंगरेजी में हिंदी साहित्य के अनुवाद न के बराबर हुए थे. समकालीन साहित्य का तो बिल्कुल नहीं. एक तरह से जिलियन राइट के अनुवादों ने अंगरेजी सहित तमाम यूरोपीय भाषाओं का ध्यान हिंदी के समकालीन साहित्य की तरफ खींचा. जिलियन राइट भारत में ही रहती हैं और भारतीय समाज को लेकर अंगरेजी में लिखती रहती हैं.
फादर कामिल बुल्के
हिंदी दिवस के दिन फादर कामिल बुल्के को जरूर याद किया जाना चाहिए. बेल्जियम में जन्मे फादर बुल्के को हिंदी सेवी के रूप में याद किया जाता है. उन्होंने राम कथा की उत्पत्ति और विकास पर ऐसा शोध किया, जो आज भी राम कथा को लेकर सबसे मानक शोध माना जाता है.
उन्होंने पहली बार राम कथा के तमाम तरह के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्रोतों को आधार बना कर उसका एक वैज्ञानिक शोधपूर्ण आकलन प्रस्तुत किया. यही नहीं हिंदी भाषा के प्रति उनकी निष्ठा ऐसी थी कि उन्होंने हिंदी में शोध प्रस्तुत करने के लिए विशेष अनुमति ली. जिस समय फादर बुल्के शोध कर रहे थे, उस समय यह नियम था कि शोध प्रबंध केवल अंगरेजी में ही प्रस्तुत किये जा सकते थे. उनके लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में नियम में विशेष संशोधन किया गया था. वे अपने समय में भारत विद्या के सबसे बड़े ज्ञाता माने जाते थे.
यही नहीं, फादर कामिल बुल्के की ख्याति का एक और कारण उनके द्वारा तैयार किया गया अंगरेजी-हिंदी कोश है. आज तक वह अंगरेजी-हिंदी का सबसे मानक कोश माना जाता है. फादर ने बशाओं और संस्कृतियों के बीच ऐसा पुल बनाया, जिसका दूसरा उदाहरण ढूंढ़े नहीं मिलता. बुल्के की हिंदी सेवाओं पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि वे हिंदी के लिए जिये और हिंदी के लिए काम करते-करते ही अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर हिंदी जगत पर एक बड़ा ऋण छोड़ गये.
सेलिना थिलेमान
विदेशी हिंदी सेवियों में सेलिना थिलेमान का योगदान अलग तरह का है. उनका काम भी सबसे हटकर है. उन्होंने संगीत और हिंदी की शिक्षा प्राप्त की. संगीत की शिक्षा जर्मनी में और हिंदी की शिक्षा स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज लंदन से. बाद में उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से संगीत पर पीएचडी की.
सेलिना ने ब्रजभाषा की गायन परंपरा पर शोध करने के लिए बरसों वृंदावन को अपना ठिकाना बनाया. ब्रजभाषा के भक्ति संगीत को लेकर उन्होंने अंगरेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में नियमित रूप से लिखा और अपनी संगीत प्रस्तुतियों के माध्यम से गायन की उस लुप्त होती परंपरा को जीवित बनाये रखा, उनको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलायी. इसके लिए उन्होंने कई बरसों तक ध्रुपद गायन की बाकायदा शिक्षा ग्रहण की. मध्यकालीन भक्ति साहित्य के गायन की परंपरा को लेकर जितना काम अकेले सेलिना थिलेमान ने किया है, उतना शायद ही किसी ने किया हो.
जेसन ग्रूनबाम
हिंदी के बहुत कम लेखक ऐसे हुए, जिनकी ख्याति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई. उदय प्रकाश ऐसे ही लेखकों में एक हैं. जब हम इस बात की चर्चा करते हैं कि हमारी भाषा के लेखक की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति हुई, तो इस ख्याति के पीछे जिस अनुवादक का योगदान होता है, उन्हें याद नहीं करते, आम तौर पर उसके काम की तरफ ध्यान भी नहीं देते.
जेसन ग्रूनबाम अमेरिकी हैं और उन्होंने उदय प्रकाश के कहानी संग्रह ‘दिल्ली की दीवार’ का अंगरेजी में अनुवाद किया. इसके अलावा उन्होंने उदय प्रकाश के उपन्यास ‘पीली छतरी वाली लड़की’ का भी अंगरेजी में अनुवाद किया. इन अनुवादों का उल्लेख इसलिए जरूरी है, क्योंकि इन अनुवादों को अंगरेजी जगत में पर्याप्त ख्याति मिली. अमेरिका की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनके अनुवाद को लेकर चर्चा हुई. उन्होंने मंजूर एहतेशाम के उपन्यास का भी अंगरेजी में अनुवाद किया है. वे अमेरिका में हिंदी भी पढ़ाते हैं और उन्होंने अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं के लिए दुभाषिया के रूप में भी काम किया है. वे युवा हैं और आने वाले समय में उनसे अनेक उल्लेखनीय कामों की अपेक्षा की जा सकती है.
पीटर बारान्निकोव
वे रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में हिंदी पढ़ाते थे. एक तरह से रूस में वे हिंदी की पहचान की तरह थे. उनके पिता भी हिंदी के विद्वान थे और उन्होंने रामचरित मानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया था. रूस में हिंदी सिनेमा को लेकर वे लेखन करते थे और एक पत्रिका भी निकालते थे, जो हिंदी सिनेमा पर केंद्रित थी. उनकी यही मान्यता थी कि हिंदी सिनेमा ने अनेक देशों, अनेक भाषाओं से जुड़े लोगों को हिंदी से जोड़ा और उनको हिंदी सीखने के लिए प्रेरित भी किया.
रॉबर्ट ह्युक्सडेट
1980 के दशक के बाद हिंदी साहित्य, विशेषकर उत्तर-आधुनिक हिंदी साहित्य का परिचय अंगरेजी के माध्यम से विश्व साहित्य से करवाने में बहुत बड़ा योगदान रॉबर्ट ह्युक्सडेट का रहा है. वे अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जिनिया में प्रोफेसर हैं और न केवल उन्होंने खुद, बल्कि उनके विद्यार्थियों ने भी हिंदी के समकालीन परिदृश्य से अपना संबंध बनाये रखा है.
अनुवादों के माध्यम से, उनके ऊपर लेख लिख कर, उनको अपने विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का हिस्सा बना कर कई समकालीन हिंदी लेखकों को उन्होंने विश्वविख्यात बनाया है. मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानी’ का अंगरेजी अनुवाद उन्होंने ही किया था. उनके इस अनुवाद के कारण उनको अनुवाद के अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले. इसी तरह, उदय प्रकाश को भी अंतरराष्ट्रीय लेखक के रूप में स्थापित करने में रॉबर्ट के अनुवादों की भूमिका रही है. उन्होंने अनेक समकालीन लेखकों के अनुवाद किये हैं और वे समकालीन हिंदी लेखन के लगातार संपर्क में रहते हैं. हिंदी दिवस पर उनके योगदान को याद किया जाना चाहिए.
फ्रेंसेस्का और्सेनी
फ्रेंसेस्का और्सेनी ने यूनिवर्सिटी ऑफ वेनिस इटली से हिंदी में स्नातक की शिक्षा प्राप्त की. उसी विश्वविद्यालय से जहां मारिओला औफ्रेदी ने करीब चार दशक तक हिंदी पढ़ाया. वह अपेक्षाकृत युवा हैं और संभवतः वह उन चंद यूरोपीय लोगों में हैं, जिनको हिंदी साहित्य के इतिहास की गहरी समझ है.
सिर्फ समझ नहीं, बल्कि उनका शोध भी अपने ढंग का अनूठा है और एक तरह से हिंदी साहित्य को लेकर किये गये शोधों में मील के पत्थर की तरह है. हिंदी के लोकवृत्त या पब्लिक स्फेयर को लेकर उन्होंने जो शोध किया, 1920-40 के दशकों में हिंदी समाज के मानस को समझने में बहुत मददगार है. उनके शोध ने हिंदी में शोधों को एक नयी दृष्टि दी. फ्रेंसेस्का ओर्सिनी स्कूल ऑफ ओरिएंटल स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में हिंदी की प्रोफेसर हैं. उन्होंने हिंदी और उर्दू के लोकप्रिय साहित्य को लेकर अपने शोध के माध्यम से गंभीर बहसें चलायीं.
एक तरह से यह कहा जा सकता है कि उनके शोधों के कारण हिंदी के तथाकथित गंभीर परिसर का विस्तार हुआ और अब तक निषिद्ध समझे जानेवाले लोकप्रिय साहित्य का उसमें प्रवेश हुआ. फ्रेंसेस्का हिंदी की संभवतः अकेली यूरोपीय विदुषी हैं, जिनके शोध-प्रबंध का हिंदी अनुवाद भी वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ. फ्रेंसेस्का भाषा और साहित्य दोनों से जुड़े पहलुओं पर शोध करती हैं और इन दिनों वह हिंगलिश भाषा के प्रभावों और उसके विस्तार को लेकर एक महत्वाकांक्षी शोध योजना से जुड़ी हुई हैं.
जॉन क्रिश्चियन की दो कविताएं
इसाई धर्मप्रचारक जॉन क्रिश्चियन का निधन 1833 में हुआ था. उनकी दो कविताएं खड़ी बोली हिंदी की आरंभिक कविताओं में से है.
1.
मन मरन समय जब आवेगा।
धन सम्पत्ति अरु महल सराएं, छूटि सबै तब जावेगा।।
ज्ञान मान विद्या गुन माया, केते चित उरझावेगा।।
मृगतृष्णा जस तिरषित आगे, तैसे सब भरमावेगा।।
मातु पिता सुत नारि सहोदर, झूठे माथ ठहावेगा।।
पिंजर घेरे चैदिस विलपे, सुगवा प्रिय उड़ जावेगा।।
ऐसो काल समसान समाना, कर गहि कौन बचावेगा।।
जॉन ‘अधमजन’ जौं विश्वासी, ईसू पार लगावेगा।।
2.
अब क्या सोचत मूढ़ नदाना।
हित सुत नारी ठामहि रहिहै, धन-संपत के कौन ठिकाना।।
माया मोह के जाल पसार्यो, बेरि पयानक क्या पछताना।।
वास आपनो इतहि बंधायो, नात लगायो विविध विधाना।।
दूत बुलावन आये द्वारा, मोह विवश भै माथ ठठाना।।
काह करों कछु सक नहिं मेरे, सुध-बुध यहि अवसर बिसराना।।
जॉन अधम कर जोरे टेरत, नाथ दिखावहु प्रेम अपाना।।
(श्रीवेंकेटेश्वर-समाचार दैनिक के मार्गशीष, 1990 विक्रमी, शुक्रवार अंक से उद्धृत.)

