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जीवन के अहम फैसले बच्चों पर थोपिए नहीं फैसले लेने में मदद कीजिए
सभी माता-पिता अपने बच्चों का कैलीबर जानते हैं. अगर आपको लगता है कि जो स्ट्रीम वह चुन रहा है, वह उसमें फिट नहीं बैठता, तो आप उससे कभी यह मत कहिए कि तुम उसके लिए उपयुक्त नहीं हो. आप उसी से उस प्रोफेशन की डिमांड के विषय में पूछिए कि उसे क्या लगता है, उससे […]
सभी माता-पिता अपने बच्चों का कैलीबर जानते हैं. अगर आपको लगता है कि जो स्ट्रीम वह चुन रहा है, वह उसमें फिट नहीं बैठता, तो आप उससे कभी यह मत कहिए कि तुम उसके लिए उपयुक्त नहीं हो. आप उसी से उस प्रोफेशन की डिमांड के विषय में पूछिए कि उसे क्या लगता है, उससे उस प्रतियोगिता, उसकी तैयारी और कितनी तैयारी में वह सफल हो पायेगा?
साथ ही सफलता के हिसाब से उसकी तैयारी कितनी है? इस तरह के सारे सवाल उससे पूछिए, उसके विचार जानिए और जब वह बताये, तब उससे यह पूछिए कि क्या उसके लिए वह फिट है?
या अब तक जो तैयारी उसने की है, वह सही है? अगर मेहनत करनी है तो कितनी और मेहनत करनी होगी? यह सारी संभावनाएं उससे ही पूछिए और उसी को जवाब भी तलाशने दीजिए. कभी बच्चों पर अपने विचार थोपिए मत, बल्कि उससे ही सुझाव पूछिए ताकि उसे लगे कि मां-पापा अपनी बात थोप नहीं रहे, बल्कि समझा रहे हैं, सुझाव दे रहे हैं.
ये मानव स्वाभाव है कि जब हम कोई बात थोपते हैं या बंदिश लगाते हैं तो सबसे पहले थोपे जाने वाले काम के प्रति अरुचि उत्पन्न होती है, बोझ लगता है, उसे मन से नहीं कर पाते और जब मन से करेंगे ही नहीं तो उसकी सफलता की संभावना भी नहीं होगी. जब किसी काम में बंदिश लगाते हैं, कोई नियम-कानून बनाते हैं, तो उससे बचने के रास्ते हम सोचना शुरू कर देते हैं.
लोग यहां तक कहते हैं कि कानून बनते ही हैं टूटने के लिए. होता यह है कोई भी कानून बनता बाद में है, लेकिन उससे बचने के रास्ते पहले निकल आते हैं. अब सवाल यह है कि ऐसे कानून बनाने का क्या फायदा? अपराधों को रोकने, अपराधी को दंडित करने और निर्दोष को सजा न मिल पाये, यही उद्देश्य है कानून बनाने के पीछे, लेकिन घर में हम ऐसे कानून नहीं चला सकते.
घर के लिए एक अनुशासन की जरूरत होती है, ताकि बच्चों को सही-गलत को फर्क समझ आये. उन्हें घर और घर के सदस्यों का महत्व मालूम हो. कोई भी अपने ऊपर पाबंदियां सहन नहीं करता. हो सकता है छोटे बच्चे प्रतिक्रिया न व्यक्त करें, लेकिन बड़े बच्चे ज्यादा पाबंदियां नहीं बरदाश्त करते, वह भी आज के समय के और ये सब हमें उन तक पहुंचाना होगा अपनी मरजी बता कर नहीं, बल्कि सही राह बता कर.
जैसे उस बेटे के पिता ने कहा कि वकील बन कर क्या करेगा? उसमें वह तेजी ही नहीं है. अब यह फैसला कैसे सही ठहराया जा सकता है या आप कैसे कह सकते हैं? आप भले ही बच्चे की रग-रग से वाकिफ हों, लेकिन बच्चा तो यह स्वीकार नहीं करेगा कि उसमें वकील बनने के गुण नहीं हैं. यह भी हो सकता है कि आपका बच्चा आपके सामने कुछ और हो, लेकिन अपने मित्रों के बीच कुछ और हो. वह कैसे मान ले कि वह जो कैरियर चुन रहा है वह सही नहीं है?
इसके लिए बेहतर है कि आप खुद उससे उस बारे में पूछें, विचार करें, संभावनाएं तलाशें, बाकी जो विकल्प हैं उन पर भी चर्चा करें. उसे सोचने के लिए समय भी दें. उससे सभी विकल्पों पर खुल कर बात करें कि अगर फलां कैरियर अपनायेगा तो क्या, कब, कैसे होगा और वह कितना बेहतर कर पायेगा और क्या खुद को उसके अनुरूप पाता है या नहीं.
मेरे कहने का सीधा-सा मतलब है कि फैसले उससे ही करवाइए, जिससे वह भी उस बारे में सोचे और समझे. इस तरह से अगर आप बच्चों से उनके कैरियर को लेकर बात करते हैं, तो निश्चित रूप से आप खुद ही उसके अंदर बदलाव पायेंगे. जब वह खुद समझेगा तो बेहतर ढंग से कोशिश करेगा. आपका मकसद बच्चों की बेहतरी ही है मगर बच्चे नहीं समझते तो वे जिस तरह समझें, उन्हें उसी तरह समझाना पड़ेगा. वे तो बच्चे हैं, तरीके हमें ही ढूंढने होंगे. हमारा मकसद उनकी भलाई है, तो उसके लिए हमें रास्ते भी तलाशने होंगे.
बच्चे भटकते भी हैं, तो उस पर ऐसी प्रतिक्रिया मत दीजिए जिससे वे अपराध बोध में जीएं. अगर आप उन पर दोषारोपण करेंगे तो वे व्यथित होंगे, खुद को कोसेंगे, तरह-तरह के विचार आयेंगे उनके मन में. वे दोष स्वीकार नहीं कर पायेंगे, क्योंकि वे उसे दोष समझते ही नहीं.
कुछ बातों को केवल गलती समझ कर भूलना होगा. उनको बताइए कि गलती होना स्वाभाविक है. इससे घबराना या परेशान नहीं होना चाहिए. गलती करने के बाद मानव में और बेहतर करने और उससे सबक लेने की भावना आनी चाहिए. गलती पर गुस्सा होने के बजाय उससे ही समाधान की तलाश करवाइए. गलती करनेवाला भी खुद को गलत नहीं मानता.
अगर ऐसा होता तो अपराध ही न होते. अगर आपने बच्चों का विश्वास जीत लिया, तो वे आपकी किसी बात को मना नहीं करेंगे. बात केवल इतनी-सी है कि उन्हें विश्वास हो कि आप जो भी करेंगे, उसमें उनका हित है, उनका दुख आप देख नहीं पायेंगे. जब कभी टकराव की स्थिति आये, तो आप गुस्से से बचिए. अभिभावक एक बार गुस्सा भी होंगे, तो अनुचित कदम उठाने से पहले कई बार सोचेंगे मगर बच्चे नहीं सोचेंगे, उन्हें जो ठीक लगेगा, करेंगे.
माता-पिता की अनावश्यक टोका-टोकी और फैसले थोपने के कारण कई बच्चों ने लिखा कि उन्हें लगता ही नहीं कि उनके माता-पिता ही उनके असली मां-बाप हैं, क्योंकि यह एक सर्वविदित सत्य है कि मां-पिता कभी बच्चों का अहित नहीं चाहते और उनको दुखी भी नहीं देख सकते. फिर चाहे कैरियर चुनने की बात हो या जीवनसाथी. आप उन पर कुछ भी थोपिए मत. अगर आप उन्हें कंविंस कर उनसे ही फैसले करवाते हैं, तो इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता.
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