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मेंटल इलनेस से निजात : बढ़ रही मानसिक रोगियों की संख्या, नये तरीकों से कारगर होगा मानसिक रोगियों का इलाज
भारत में मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ रही है, जिसमें डिप्रेशन व डिमेंशिया समेत अनेक प्रकार की दिमागी बीमारियां शामिल हैं. ‘द लेंसेट’ के मुताबिक, आगामी दशक में भारत में इस बीमारी की चपेट में आनेवालों की संख्या बढ़ सकती है. हालांकि, रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इसका समग्र इलाज कैसे मुमकिन […]
भारत में मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ रही है, जिसमें डिप्रेशन व डिमेंशिया समेत अनेक प्रकार की दिमागी बीमारियां शामिल हैं. ‘द लेंसेट’ के मुताबिक, आगामी दशक में भारत में इस बीमारी की चपेट में आनेवालों की संख्या बढ़ सकती है. हालांकि, रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इसका समग्र इलाज कैसे मुमकिन हो सकता है. इसलिए इस समस्या से निजात पाने के लिए समग्र नजरिया अपनाना होगा़ इस समस्या और समाधान से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं के अलावा मानसिक बीमारियों पर हाल में किये गये रिसर्च से हासिल नतीजों पर केंद्रित है आज का यह आलेख …
मानसिक और तंत्रिका-संबंधी बीमारियों का एक-तिहाई से ज्यादा जोखिम भारत और चीन के लोगों में पाया गया है. हालांकि, कुल वैश्विक आबादी के मुकाबले करीब एक-तिहाई इन्हीं दो देशों में बसती है, लेकिन चिंता की बात यह है कि यहां मानसिक रूप से बीमार लोगों को मुकम्मल इलाज की सुविधा नहीं मिल पा रही है. मेडिकल साइंस पत्रिका ‘द लेंसेट’ के मुताबिक, भारत और चीन में इस समस्या से निबटने के लिए दीर्घकालीन प्रोजेक्ट की जरूरत है.
भारत और चीन में बढ़ते मानसिक मरीजों और उनके लिए इलाज की समस्या को दूर करने के लिए सामुदायिक स्तर पर अनेक उपाय करने की जरूरत है. इसके लिए कम्युनिटी हेल्थ वर्कर, ट्रेडिशनल और अल्टरनेटिव मेडिसिन प्रैक्टिशनर्स को आपस में जोड़ना होगा. इनके बीच तालमेल होने से मानसिक मरीजों की समस्याओं को समग्रता से समझा जा सकेगा और उसका साक्ष्य-आधारित समाधान तलाशा जा सकेगा.
ट्रेडिशनल और अल्टरनेटिव मेडिसिन का जुड़ाव
रिपोर्ट के मुताबिक, इन दोनों देशों में बड़ी संख्या में ट्रेडिशनल, कंप्लीमेंट्री और अल्टरनेटिव प्रैक्टिशनर्स हैं. भारत में बड़ी संख्या में योग प्रैक्टिशसर्न और चीन में ट्रेडिशनल चाइनीज मेडिसिन प्रैक्टिशनर्स हैं, जिनके अनेक क्लाइंट मानसिक स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं.
भरोसा, संस्कृति, लागत और अवधारणा जैसे कारणों से लोग अल्टरनेटिव मेडिसिन का इस्तेमाल करते हैं और इसे सुरक्षित भी मानते हैं. इसलिए अब यह जानना जरूरी हो गया है कि इन माध्यमों से किये जानेवाले इलाज कितने प्रभावी होते हैं और इनमें कितना जोखिम है. चूंकि महज मेडिकल सिस्टम के जरिये मेंटल हेल्थ ट्रीटमेंट के गैप को नहीं भरा जा सकता है, लिहाजा ट्रेडिशनल मेडिसिन प्रैक्टिशनर्स को मुकम्मल ट्रेनिंग दी जानी चाहिए, ताकि वे ऐसे मरीजों को समग्र इलाज कराने और बेहतर माहाैल में अपना समय बिताने की सलाह दे सकें.
‘साइंस डेली’ में छपी एक रिपोर्ट में पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन और इंडिया और लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर विक्रम पटेल के हवाले से बताया गया है, ‘हालांकि, भारत में मेंटल हेल्थकेयर के संदर्भ में प्रोग्रेसिव नीतियां रही हैं, लेकिन समाज में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में इसे समग्रता से नहीं लागू किया जा सका है, जिस कारण इलाज में बहुत गैप देखा गया है. इनोवेटर्स इसे दर्शा चुके हैं कि फ्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स और पूरे समुदाय को शामिल करते हुए इस गैप को कैसे कम किया जा सकता है. इस लिहाज से लोगों की देखभाल का यह ऐसा मॉडल है, जिसमें समाज और सरकार, दोनों ही को भागीदारी
निभानी होगी.’
आंकड़ों में चीन और भारत में मानसिक बीमारी का जोखिम
– चीन के मुकाबले भारत में मानसिक बीमारी का जोखिम अगले 10 सालों में ज्यादा तेजी से बढ़ेगा.
36 मिलियन सालों का नुकसान हुआ लोगों की सेहतमंद जिंदगी में चीन में मानसिक बीमारी के कारण वर्ष 2013 में.
31 मिलियन सालों का नुकसान हुआ लोगों की सेहतमंद जिंदगी में भारत में मानसिक बीमारी के कारण वर्ष 2013 में.
39.6 मिलियन सालों का नुकसान होगा लोगों की सेहतमंद जिंदगी में चीन में मानसिक बीमारी के कारण वर्ष 2025 में. (10 फीसदी बढ़ोतरी)
38.1 मिलियन सालों का नुकसान होगा लोगों की सेहतमंद जिंदगी में भारत में मानसिक बीमारी के कारण वर्ष 2025 में. (23 फीसदी बढ़ोतरी)
– दोनों ही देशों में इस समस्या को बढ़ाने में डिमेंशिया को सबसे ज्यादा जिम्मेवार माना गया है.
82 फीसदी की दर से वृद्धि होगी 10 वर्षों में डिमेंशिया की बीमारी में भारत में, जो लोगों के हेल्दी लाइफ में कमी का बड़ा कारण होगा.
56 फीसदी की दर से वृद्धि होगी आगामी 10 वर्षों में डिमेंशिया की बीमारी में चीन में, जो हेल्दी लाइफ में कमी का कारण होगा.
बड़े सिर से क्यों बढ़ता है मानसिक बीमारी का जोखिम!
ज्यादा बड़ा सिर मानसिक बीमारी के लिहाज से जोखिम भरा हो सकता है. हालांकि, अब तक के अनेक शोधों में यह बात सामने आ चुकी है कि बड़े दिमाग वाले लोगों में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या ज्यादा पायी गयी है, लेकिन इसका सटीक कारण अब पता चला है. ‘साइंस अलर्ट’ के मुताबिक, शोधकर्ताओं की टीम ने कहा है कि छोटे दिमाग के मुकाबले बड़े दिमाग में सिगनल को गंतव्य तक पहुंचने में ज्यादा समय लगता है, जिस कारण उनमें मानसिक बीमारियों का जोखिम ज्यादा हो जाता है.
फ्रांस की यूनिवर्सिटी क्लाउड बर्नार्ड लियोन के हेनरी केनेडी का कहना है, ‘छोटे दिमागवाले इनसानों में अलजाइमर और सिजोफ्रेनिया जैसी मानसिक बीमारियां होने की आशंका कम हो जाती है. इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि बड़े दिमाग के मुकाबले छोटे दिमाग में कॉर्टिकल एरिया आपस में ज्यादा संबद्ध होते हैं. साथ ही बड़े सिरवालों को ज्यादा दूरी तक संपर्क कायम करने में कठिनाई होती है. ऐसा न्यूरॉन सिस्टम के सही तरीके से काम नहीं करने के कारण होता है. इससे याददाश्त से जुड़ी हुई कई अन्य समस्याएं पैदा होने की आशंका भी रहती है.’
सीबीटी से मिलेगा डिप्रेशन से छुटकारा
डिप्रेशन की बीमारी से निबटने के लिए विशेषज्ञों ने नया तरीका खोज लिया है. ‘टाइम’ के मुताबिक, ब्रिटेन के शोधकर्ताओं ने डिप्रेशन से उबरने के लिए आसान तरीका खोजने का दावा किया है. उनका कहना है कि काम करने के तरीके में कुछ बदलाव लाकर इस मानसिक बीमारी से छुटकारा पाया जा सकता है. हालिया अध्ययनों में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यह प्रक्रिया मौजूदा सीबीटी यानी कॉग्निटिव बिहैवियोरल थेरेपी से ज्यादा असरदार और सुविधाजनक है. दरअसल, सीबीटी में सोचने के तरीके में बदलाव लाने पर जोर दिया जाता है.
शोधकर्ताओं का मानना है कि ज्यादातर लोगों के सोचने का तरीका सही नहीं होता है, जिस कारण वे डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सटर मेडिकल स्कूल के साइकोलॉजिस्ट डेविड ए रिचर्ड्स का कहना है कि लोगों में डिप्रेशन के बढ़ते मामलों से निबटने के लिए इसका इलाज सस्ता करना होगा. इसे ही ध्यान में रखते हुए यह नया तरीका तलाशा गया है. इसके तहत डिप्रेशन के मरीज को सोचने के तरीके में व्यापक बदलाव लाने के लिए कहा जाता है. इसे एक प्रकार की बिहेवियोरल एक्टिवेशन यानी व्यावहारिक सक्रियता के रूप में देखा गया है.
डिमेंशिया का लक्षण हो सकता है बढ़ता डिप्रेशन
वयस्कों में गहराते डिप्रेशन का सीधा जुड़ाव डिमेंशिया से हो सकता है. हाल ही में किये गये एक नये रिसर्च में यह पाया गया है कि जिन लोगों में एकाएक डिप्रेशन की बीमारी सामने आती है, उन्हें डिमेंशिया होने का जोखिम कम रहता है. ‘द लेंसेट’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, जिन लोगों में लंबी अवधि में डिप्रेशन की बीमारी अपना स्वरूप लेती है, उनमें डिमेंशिया का खतरा बढ़ जाता है.
इसे समझने के लिए नीदरलैंड के शोधकर्ताओं ने 1993 से 2004 के दौरान 11 वर्षों में 55 साल से ज्यादा उम्र के 3,325 लोगों से संबंधित आंकड़े हासिल करते हुए उनका विश्लेषण किया और एक दशक बीतने के बाद फिर से उनका अध्ययन किया. जब उन पर अध्ययन शुरू किया गया था, तब उनमें डिप्रेशन के लक्षण तो थे, लेकिन डिमेंशिया के कोई संकेत नहीं थे. लेकिन, बाद में उनमें से 434 लोगों में डिमेंशिया का विकास हो चुका था, जिसमें 348 ऐसे लोग भी शामिल थे, जिनमें अलजाइमर बीमारी भी विकसित हो गयी थी.
न्यू रिसर्च
अनेक अंगों पर होता है अलकोहल का असर
आम तौर पर यह माना जाता है कि अलकोहल यानी शराब के सेवन का असर केवल लिवर पर पड़ता है. लेकिन, हाल ही में एक शोध के नतीजे में यह पाया गया है कि कम मात्रा में भी इसका सेवन करने से न केवल लिवर कैंसर की आशंका प्रबल होती है, बल्कि इससे छह अन्य प्रकार के कैंसर होने की आशंका भी बढ़ जाती है. ‘साइंस अलर्ट’ के मुताबिक, न्यूजीलैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ ओटागो में किये गये एक शोध अध्ययन में पाया गया कि शराब के सेवन से मुंह, गला, घेघा, जिगर, पेट और आंत का जोखिम बढ़ जाता है.
हालांकि, इसमें यह नहीं स्पष्ट किया गया है कि कैंसर के पनपने में शराब म्यूटेशन की प्रक्रिया को कैसे प्रभावित करता है, लेकिन तथ्यों से इस बात के संकेत जरूर मिले हैं. प्रमुख शोध अध्ययनकर्ता जेनी केनोर का कहना है कि इस बात के मजबूत साक्ष्य मिले हैं कि शरीर में सात से ज्यादा जगहों पर अलकोहल के कारण कैंसर का जाेखिम बढ़ा है. पिछले दशक में अल्कोहल-आधारित कैंसर के अध्ययन से ये नतीजे हासिल किये गये हैं.
कोशिकाओं से हो सकता है यूरीन इंफेक्शन का इलाज
यू रीनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन यानी मूत्रमार्ग में होनेवाले संक्रमण के इलाज के लिए आम तौर पर एंटीबायोटिक्स को बेहद प्रभावी माना जाता है. अमेरिका में एक शोध के दौरान वैज्ञानिकों को यह पता चला कि बिना एंटीबायोटिक्स के संक्रमण को रोका जा सकता है. सामान्य रूप से ई-कोलाइ या अन्य बैक्टीरिया जब मूत्रमार्ग में प्रवेश कर जाते हैं, तो उससे यूरीनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन हो जाता है. यह ब्लाडर, मूत्राशय या किडनी के कोशिका की दीवारों से जुड़ी रहती है.
‘साइंस अलर्ट’ के मुताबिक, ड्यूक यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पहली बार यह दर्शाने में कामयाबी हासिल की है कि ब्लाडर कोशिका की दीवारें वास्तविक में संक्रमण फैलानेवाले बैक्टीरिया को खत्म कर सकते हैं. बिना एंटीबायोटिक्स के इस्तेमाल के इस संक्रमण को खत्म करने के लिए किये गये प्रयासों के तहत उन्होंने शरीर के संबंधित अंगों में पैदा होनेवाले रसायनों का सहयोग लिया है. ब्लाडर कोशिकाओं में मौजूद बैक्टीरिया को इन रसायनों से खत्म करने में कुछ हद तक कामयाबी भी मिली है.
इनसान के डीएनए में बदलाव की चीन में चल रही तैयारी
आ नुवंशिक बीमारियों से बचाव के लिए शोधकर्ता इंसान के डीएनए में बदलाव की कोशिशों के तहत एक क्रांतिकारी कदम उठाने जा रहे हैं. चीन के शोधकर्ता अगले माह सीआरआइएसपीआर (क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पेश्ड शॉर्ट पेलिंड्रोमिक रिपीट्स) नामक टूल के जरिये पहली बार इसे अंजाम देंगे.
मेडिकल वैज्ञानिक इसके लिए फेफड़े के कैंसर से पीड़ित ऐसे मरीज, जिन्हें किसी अन्य मौजूदा इलाज के जरिये ठीक नहीं किया जा सकता हो, उनकी कोशिकाओं के विसंगत डीएनए को काट कर हटाने का प्रयास करेंगे. हालांकि, इंसान के भ्रूण को सुधारने के लिए चीन के वैज्ञानिक पूर्व में सीआरआइएसपीआर का इस्तेमाल कर चुके हैं, लेकिन पहली बार किसी वयस्क इंसान के डीएनए में इस टूल के जरिये बदलाव लाने की कोशिश की जायेगी. अगले माह चीन की सिचुआन यूनिवर्सिटी के वेस्ट चाइना हॉस्पीटल में इस परीक्षण को अंजाम दिया जायेगा.
इसमें ऐसे मरीजों को शामिल किया जायेगा, जिन्हें कीमोथेरेपी और रेडिएशन-थेरेपी के दौर से गुजारा जा चुका है और उनके इलाज के लिए कोई अन्य विकल्प नहीं बचा है. इस परीक्षण के तहत मरीज की कोशिकाओं में डीएनए को प्रभावी तरीके से एक जगह से काट कर दूसरी जगह जोड़ा जायेगा.
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