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मिठाइयाें से खिलता है दीपावली का जायका

प्रो पुष्पेश पंत दीपावली के दिन घर में बनी मिठाइयों की तुलना हलवाई से मोलाई हुई मिठाइयों से करना निरर्थक है. जो शुभंकर मिठाई दीपावली पर लगभग घर-घर में बनायी जाती है, वह पुए हैं, जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में अपूप नाम से मिलता है. आइए, दीपावली पर विभिन्न प्रकार की मिठाइयों के बारे में […]

प्रो पुष्पेश पंत

दीपावली के दिन घर में बनी मिठाइयों की तुलना हलवाई से मोलाई हुई मिठाइयों से करना निरर्थक है. जो शुभंकर मिठाई दीपावली पर लगभग घर-घर में बनायी जाती है, वह पुए हैं, जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में अपूप नाम से मिलता है. आइए, दीपावली पर विभिन्न प्रकार की मिठाइयों के बारे में हम बता रहे हैं…
दिवाली का ज्योतिपर्व नाम सिर्फ दीप मालिकाएं नहीं, बल्कि वह जगमगाती मिठाइयां भी हैं, जिनकी मिठास उनके ‘ज्योतिकलश’ से छलकती जगत को आलोक से भर देती हैं. मिथकीय आख्यान के अनुसार, महालक्ष्मी भगवान विष्णु के साथ शेषनाग की शैय्या पर क्षीर सागर में निवास करती हैं.
क्षीर सर्वविदित है, दूध का पर्याय है और इसलिए दूध और चावल से बनी खीर उस क्षीर का ही अपभ्रंश है. इसी कारण महालक्ष्मी पूजन के दिन जो नैवेघ आराध्य देवी भोग के रूप में अर्पित किया जाता है और उनके ग्रहण करने के बाद प्रसाद के रूप में जो खाया-खिलाया जाता है, वह नैवेघ खीर का ही होता है.
खुशियों में मिठास घोलती है खीर
उत्तर भारत में मखाने की खीर व्रत के फलाहार का अभिन्न अंग है, तो इसे असाधारण बनाने के लिए चावल की जगह बादाम और चिलगोजों का प्रयोग संपन्न परिवारों में किया जाता रहा है. गन्ने के रस की खीर, गुड़ की खीर और गुलाब की खीर आजकल कम देखने को मिलती है, पर गुजरे जमाने में उत्तर भारत में दिवाली के अवसर पर बनायी जाती थी. यदि चावल के दानों की जगह चावल के आटे का प्रयोग करें, तो खीर का रूपांतरण फिरनी में हो जाता है.
खीर का ही अवतार है पायसम
भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिणी भाग में खीर को पायसम नाम से पुकारा जाता है. याद रहे की क्षीर की तरह पायस भी संस्कृत में दूध का ही पर्याय है. तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में और इनसे जुड़नेवाले तमिलनाडु के जिलों में परिप्पू पायसम तैयार किया जाता है, जिसे दालों से बनाया जाता है.
केरल में पायसम का अवतार अपना स्वरूप बदल लेता है और इसे पके केले या चावल की कतलियों से बनाकर प्रथमन कहते हैं. दक्षिण भारत में उत्तर भारतीय जलेबी को जांगीर कहते हैं, जो जहांगीरी का बदला रूप है. महाराष्ट्र और गुजरात में दूध को औंटाकर काफी गाढ़ा कर लेते हैं, जो रबड़ी की याद दिलाने लगती है और इसे ही खीर के स्थान पर मेवों से सजा प्रतिष्ठित कर दिया जाता है.
टिकाऊ मिठाइयों का है विशेष महत्व
दूध, खोए और छेने के अलावा अनाज की बहुत सारी मिठाइयां इस अवसर पर घर पर बनाकर या खरीद कर मिल-बांट कर बनायी जाती हैं. यह मिठाइयां दूध या छेने से निर्मित मिठाइयों की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ होती हैं और दिवाली बीत जाने के बाद बहुत दिन तक इनका आनंद लिया जा सकता है.
इनमें आटे, गोंद, मेथी के लड्डू, बालूशाही, खाजा और इमरती प्रमुख हैं. कुछ वर्ष पहले तक लड्डू अक्सर घर पर ही बनाये जाते थे, लेकिन आज इन्हें हलवाई के यहां से ही खरीदकर रस्म अदायगी पूरी कर ली जाती है.
तिल और रामदाने के लड्डू गरीब-परवर होते हैं और गांव-देहात की सौगात होते हैं. दक्षिण भारत में चीनी के पाक के बंधे नारियल के लड्डू चाव से खाये जाते हैं, तो पंजाब में पिन्नियां और पंजीरी के लड्डू उस जाड़े की गुनगुनी धूप को गरम करते हैं, जिसकी आहट दिवाली से ही सुनायी देने लगती है.
हलवे भी होते हैं शामिल
सूजी का हलवा चाहे बहुत दिन नहीं रखा जा सकता, लेकिन गाजर, दालों के हलवे, खसखस तथा बादाम के हलवे, खजूर का हलवा देर तक साथ देते हैं. कभी सोहन हलवा दिल्ली की पहचान हुआ करता था और इसकी बड़ी-सी गोलाकार टिकियाें को तोड़कर बराबर मात्रा में बांटना एक मजेदार खिलवाड़ होता था.
आज बंगाली मिठाइयों ने इसे हाशिये पर पहुंचा दिया है. हां, कुछ शौकीन लोग दिवाली के उपहारों वाली टोकरी में सिंधी हलवे के साथ इसे जगह देते हैं, ताकि फलों और अन्य नाजुक मिठाइयों के निपट जाने के बाद भी यह अपनी मौजूदगी का एहसास कराते रहें और हमारे जीवन में रस घोलें.
छेने के बिना नहीं आता त्योहार का मजा !
कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें छेने की बंगाली मिठाइयों के बिना चैन ही नहीं पड़ता. रसगुल्ला हो या रसमलाई, काचागोला हो या संदेश, कमलाभोग हो या खीर कदम, पांतुवा हो या लेडीकेनी अथवा चमचम, शुद्ध छेने या छेने और मैदे के मिश्रण से तैयार होते हैं. हल्की मिठाई खाना चाहें, तो मिष्टी दोई और भाप्पे दोई से अपनी मनोकामना पूरी कर सकते हैं. ऐसा नहीं कि बंगाली खुद सिर्फ छेने की मिठाई खाते हैं.
बूंदी का लड्डू यहां जरा बड़े आकार का बनाया जाता है और दरबेश कहलाता है. शायद इसलिए कि घुमंतू फकीरों का सत्कार कभी इससे किया जाता था. जिबी गोजा मैदे से तैयार होता है और अनेक पीठे भले ही दूध में तैरते हुए या सूखे पेश किये जाये छेने पर निर्भर नहीं रहते.
उड़ीसा की खास मिठाई है छेनापूण, जिसे बनानेवाले यह दावा करते हैं कि छेने का उपयोग पुर्तगालियों के भारत पहुंचने के बरसों पहले से कलिंग में किया जाता रहा है. अभी रसगुल्ले वाली रस्साकशी जो बंगालियों के साथ लड़ी जा रही थी, उन्होंने यह बात याद दिलायी है कि खीर कदम का भोग पहले-पहले चैतन्य महाप्रभु ने श्रीजगन्नाथ धाम मेंं लगाया था.
छेनापूण पश्चिमी देशों में किसी भी इतराते हुए चीज-केक को बड़ी आसानी से मात दे सकता है. इसके बावजूद उड़ीसा वासियों को इससे कम नाज अपने खाजों और पेठों पर नहीं. पूर्वोत्तर में असम का प्रदेश बंगाल से प्रभावित रहा है और वहां भी पीठे और तिल के लड्डू मजा लेकर खाये जाते हैं. बंगाल से उनका कितना भी राग-द्वेष चलता हो, लेकिन बंगाली मिठाइयों का तिरस्कार वह नहीं करते.
पंजाबी मिठाइयों का है अपना स्वाद
पंजाब में जो मिठाइयां जाड़ों में खायी जाती हैं, वही दिवाली की भी शोभा बढ़ाती हैं और मजेदार बात यह है कि इनमें से अनेक ने अपने पैर पूरे देश में फैला लिये हैं. इनमें पतीसे, सोन पापड़ी, पिन्नी और पंजाबी तर्ज का गजरेला, डोडा बर्फी प्रमुख हैं. कर्नाटक का मैसूर पाक ब्रजभूमि में पुष्टिमार्गी मंदिरों में भोग का हिस्सा उस मोहनथाल की याद दिलाता है, जो गुजरात में भी जरा से बदले रूप में देखने को मिलता है.
कुछ मिठाइयां ऐसी हैं, जो आजकल लगभग लुप्त पर्याय हैं, इनमें पनीर और खोये के मिश्रण से बना कलाकंद सिर्फ एक है. उत्तराखंड के अल्मोड़ा में सिंगौडी नाम की जो मिठाई बनायी जाती है, वह हरे पत्तों में लपेटी जाने के बाद भी अपनी खासियत को छुपा नहीं पाती. कुछ वैसे ही, जैसे यहां की बाल मिठाई जले खोए के भिंड के पेड़े की याद ताजा करती है.
अद्भुत हैं बनारस की मिठाइयां
बनारस की मलाई की मिठाइयां अद्भुत होती हैं, भले ही ये क्षणभंगुर तृप्ति ही देती हैं. यहां की मलाइयो, कानपुर का मक्खन, दिल्ली की दौलत की चाट का कोई सीधा संबंध दिवाली की मिठाइयों से नहीं, पर जिसने इन्हें एक बार चखा हो, वह दूसरी मिठाइयों को नजाकत में इनके सामने फीका ही पायेगा. बनारस में बनाये जानेवाले मगदल चाहे उड़द की दाल का बना हो या बादाम का, वह पौष्टिक तो होता ही है, महीनों तक साथ भी देता है.
बनारस में ही फलाहारी गुलाब जामुन का लुत्फ उठा सकते हैं, जिसे मैदे से नहीं, बल्कि अरारोट से बनाया जाता है और जिसे अनाज नहीं, बल्कि सात्विक कंद माना जाता है. बर्फियां रेवेदार खोवे की हों, बादाम की या फिर काजू की कतली, दिवाली के मिठाइयों के डब्बों में जरूर रहती हैं, न जाने पिस्ते की लौंज कहां बिला गयीं? माना कि पिस्ते बहुत महंगे होते हैं पर लौंज या लौंजी दूसरी चीजों से भी बनायी जा सकती हैं.
ऐसा लगता है कि यह कला कौशल पहली पीढ़ी के कारीगर अपने साथ ही लेकर चले गये. आंध्र प्रदेश की ‘कागज की मिठाई’ नाजुक और नफीस होने के साथ-साथ काफी दिन तक फ्रिज के बाहर भी सकुशल मजेदार बनी रहती है.
घर की मिठाइयों की बात ही अलग
दिवाली के दिन घर में बनी मिठाइयों की तुलना हलवाई के यहां से मोलाई की हुई मिठाइयों से करना हमें निरर्थक लगता है. जो शुभंकर मिठाई दिवाली पर लगभग घर-घर में बनायी जाती है, वह पुए हैं, जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में अपूप नाम से मिलता है.
इसका सबसे निखरा रूप मालपुआ है, जो स्थानीय पाक विधि के अनुसार अपना कलेवर बदलता रहता है. पंजाब के मालपुए और बंगाली मालपुए को आप विपरीत स्वभाव वाला सहोदर ही कह सकते हैं. इनका सहज देसी रूप गुलगुले हैं.

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