ऐश्वर्या ठाकुर
आर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर
पीर-पंजाल की तलहटी में बसी वादी-ए-कश्मीर पर उदासी का एक स्याह कुहासा तारी है. कोई नहीं बताता कि वह कौन-सा सियासी जलजला था या जिन्नात का कौन-सा हुकूमती साया था, जिसने वादी के सीधे-सादे चरवाहों, कारीगरों और किसानों को बागी बना दिया.
और देखते ही देखते घाटी जन्नत से मौका-ए-वारदात में तब्दील हो गयी, जहां चिनार के गिरे हुए पत्तों के नीचे से जिंदा कारतूस और मुर्दा ख्वाब आये दिन बरामद होने लगे. इंतेहा-पसंदी की सुलगती कांगड़ी को कश्मीर के फिरन (लंबा चोगा) में रखकर कई फिरके अपने हाथ सेंकने लगे, हालांकि उसकी चिंगारियों ने कश्मीर के ताने-बाने को जलाकर खाक कर दिया.
ऐसा लगता है जैसे यहां सूरज भी सरहद की कंटीली तारों से अपना पैरहन बचाते हुए डूबता है, मगर सियासी गांठों में उलझा कश्मीरी कारीगर सिर झुकाये चुपचाप पश्मीने की शॉल पर बेल-बूटियां कातता रहता है. इसी कश्मीर की जरखेज जमीन ने ललद्यद और हब्बा खातून जैसे लाफानी किरदार उपजाये. कहीं राजसी बगीचे हैं, कहीं शहंशाहों की कब्रें हैं और कहीं दरवेश-फकीरों की मजारों पर हुजूमों से रौनक आबाद है.
तमाम उथल-पुथल में भी बर्फ के वर्क पर पांव टिका-टिका कर यहां जिंदगी एहतियात से चलने की कोशिश करती रहती है. टूरिस्टों की आमद पर झील में फिर से बाजार तैरते हैं, मकान तैरते हैं और हल्की-फुल्की उम्मीद भी.
जेहलम से पीठ सटाये खपच्चियों से जड़े पुराने मकान, नयी कालोनियों को कनखियों से तकते हैं. खुले हरे मैदानों में गुनगुनी धुप अपने छाया-नुमा हस्ताक्षर छोड़ती जाती है. बस स्टैंड में ऊंघती हुई सुस्त बसें मानो मजबूरन सवारियां लादकर बटमालू, नौहट्टा और रैनावाड़ी की ओर निकल पड़ती हैं.
शिकारे की पतवार डल झील की पीठ थपथपाती है और खामोश झील, संतूर की एक धुन की तरह बज उठती है. मगर, फौजी बूटों की गड़गड़ाहट से बूढ़े कदल एकाएक कांप जाते हैं. और फिर रातभर डाउन टाउन की निहत्थी गलियों में हथियारबंद खाकी गश्त लगाती है. जाहिर है, धमाकों और सन्नाटों की मुसलसल अदला-बदली में वान्वुन के गीत गूंगे हो जाते हैं.
नक्काशी और कशीदाकारी करनेवाले हाथ आज मजबूरन अपना मुकद्दर पत्थरों और बंदूकों से उकेरने की कोशिश करते हैं. कुछ हाथ अधजले कोयले उठाकर दुकानों के शटर और ढहती हुई दीवारों पर भी सुलगते हुए नारे लिख देते हैं, जिन पर हुकूमत बार-बार सफेदी पुतवा देती है.
हालात यूं हैं कि जो लड़के दुनियाभर में कश्मीर-विलो के बैट (क्रिकेट बल्ला) तराश कर भेजते हैं, वे खुद कर्फ्यू से सुन्न अपनी गलियों में क्रिकेट तक नहीं खेल पाते. यहां दहशतजदा भेड़ों के रेवड़ अपने बाड़े में ही कैद रहते हैं, मगर कई बार वादी की गुमराह भेड़ें हरे घास को चरने सरहद पार निकल जाती हैं और वापिस हर बार भेड़िया बनकर ही आती हैं.
चश्मे उतारकर देखो तो लगेगा कि कश्मीर में सिर्फ वाजवान ही नहीं, अरमान बुनते नौजवान भी हालात की धीमी आंच पर सुलगते हैं. कश्मीर में सिर्फ विलो के दरख्त ही नहीं, हाफ-विडोस भी सवालिया निशानों की तरह जड़ खड़ी मिलती हैं. कुछ मकान जो कभी घर थे, पर अब महज मलवे का ढेर हो गये हैं. हर गली में शुबा है, हर मोड़ पर शक है.
जाफरान और बादाम के बागान सिकुड़ने लगे हैं और मजहबी-इदारों की पौध गली-गली उगने लगी है. सियासत और कट्टरवाद ने हर ओर नफरती खंजर गाड़ दिये हैं. हर दीवार पर कड़वाहट के नुकीले टुकड़े लगे हैं. इन ऊंची पथरीली दीवारों के पार जाना तो दूर, देखना तक मुहाल है. दरअसल, कश्मीर एक ऐसे किले में तब्दील हो गया है, जिसे कोई फतेह करने की फिराक में है, तो कोई इस पर कब्जा बनाये रखने को मुस्तैद है. इस रस्साकशी में खिंचता कश्मीर कहीं किले से कब्रगाह न बन जाये. दिल से यही दुआ निकलती है कि ऐसा न हो.
चश्मों से फूटते पानियों की तरह जाने किस रोज कश्मीर के नासूर से मवाद रिसेगा और जख्म भरने के बाद वादी को इस लंबी दर्दमंद उदासी से निजात मिलेगी.
