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मिडिल क्लास नैतिकता पर कमेंट्री

मिहिर पंड्या,सिनेमा क्रिटिक पश्चिम के सिनेमा से भारतीय सिनेमैटिक समझदारी की तुलना करने पर एक मजेदार अंतर दिखता है. पश्चिम में कहानियों की मौलिक इकाई जहां व्यक्ति है, भारतीय सिनेमा में वह परिवार है. पर हमारे सिनेमा का यह ककहरा मौलिक नहीं, उसने इसे सामाजिक चलन से अंगीकार किया है. कायदे से नब्बे के दशक […]

मिहिर पंड्या,सिनेमा क्रिटिक
पश्चिम के सिनेमा से भारतीय सिनेमैटिक समझदारी की तुलना करने पर एक मजेदार अंतर दिखता है. पश्चिम में कहानियों की मौलिक इकाई जहां व्यक्ति है, भारतीय सिनेमा में वह परिवार है. पर हमारे सिनेमा का यह ककहरा मौलिक नहीं, उसने इसे सामाजिक चलन से अंगीकार किया है.
कायदे से नब्बे के दशक की शुरुआत में उदारीकरण के समय यह ककहरा टूटना चाहिए था, लेकिन किसी प्रतिकार में लोकप्रिय हिंदी सिनेमा ने प्रतिगामी एक्स्ट्रीम मुहावरा अपना लिया.
ऐसे में बीते कुछ साल में आयी ऐसी कई ‘क्राउडप्लीजर’ हिंदी फिल्मों को देखना दिलचस्प है, जहां कथा के केंद्र में मध्यवर्गीय परिवार के होते हुए भी कई असहज मुद्दों को उठाने की जुर्रत लेखकों ने की है.
मध्यवर्गीय नैतिकता में सेक्स ऐसा ही एक ‘वर्जित फल’ है, कि इससे जुड़ी बीमारियां भी ‘गुप्त रोग’ कही जाती हैं. मजेदार यह कि इसका होना आैर ना होना दोनों दिक्कत का सबब है. शरत कटारिया निर्देशित ‘दम लगा के हईशा’ से लेकर प्रसन्ना निर्देशित ‘शुभ मंगल सावधान’ तक, जोड़े के मध्य शादी के बाद सेक्स ना होना दोनों परिवारों में सार्वजनिक चिंता का सबब है.
वहीं अमित रवींद्रनाथ शर्मा की हालिया रिलीज फिल्म ‘बधाई हो’ में अधेड़वय जोड़े, रेलवे में टीसी जीतेंद्र कौशिक आैर हाउसवाइफ प्रियम्वदा के बीच सेक्स की खबर परिवार में भूचाल लानेवाली है.
फिल्म के लेखकद्वय अक्षत घिल्डियाल आैर शांतनु श्रीवास्तव ने चुटीले किरदारों आैर उनके मंझे हुए संवादों के माध्यम से एक पचास साला जोड़े की प्रेग्नेंसी की घटना को मध्यवर्गीय नैतिकताओं पर दिलचस्प सामाजिक कमेंट्री बना दिया है.
‘बधाई हो’ फिल्म कुछ मजेदार पैरेलल्स भी गढ़ती है. अपने माता-पिता के मध्य सेक्स की बात सोचना वयस्क बेटे नकुल को जितना असहज करता है, उतना नकुल की प्रेमिका रेने को नहीं करता. इसमें अन्य कारणों के साथ एक फैक्टर रेने का लड़की होना भी है.
मुझे यह पैरेलल महेश मांजरेकर की तब्बू स्टारर क्लासिक फिल्म ‘अस्तित्व’ की याद दिला गया. शुरुआत में नकुल जिस तरह बौखला जाता है, इसकी वजह अपनी मां में एक स्त्री को नहीं देख पाने की ट्रेनिंग है. दरअसल हमारा सिनेमा आैर समाज ‘मां’ की ऐसी ‘लार्जर-दैन-लाइफ’ छवि बनाता आया है कि पुरुष के लिए उसके पार देख पाना कई बार असंभव हो जाता है. ‘मदर इंडिया’ से ‘मैरी कॉम’ तक इसकी लंबी परंपरा है.
फिल्म निर्णायक तरीके से बताती है कि सोच में आधुनिकता आैर ‘भिन्नता के स्वीकार’ का गुण पद, पैसे आैर पढ़ाई का गुलाम नहीं होता.
निम्नमध्यमवर्गीय परिवार की अधेड़वय घरेलू बहू प्रियंवदा अपनी सोच में ‘एलीट’ मिसेस शर्मा के मुकाबले कहीं ज्यादा खुली आैर उदार हैं.
बहुत खूबसूरती से ‘बधाई हो’ संयुक्त परिवार में मौजूद फॉल्टलाइंस तो दिखाती है, लेकिन साथ ही वह भारतीय परिवारों में मौजूद मध्यवर्गीय नैतिकता के कुछ अच्छे पहलुआें को दिखाने से परहेज नहीं करती. देखें, कैसे बाहरी हमले की सूरत में परिवार मुठ्ठी बांध लेता है! इसलिए यह कठिन विषय पर होते हुए भी शुद्ध ‘फील-गुड’ फिल्म है.
इन सबसे कहीं खूबसूरत पैरेलल नजर आता है गीत ‘सजन बड़े सेंटी’ में, जहां पर्दे पर दो प्रेम कहानियों में समांतर इजहार-ए-बयां हो रहा है. एक आेर है युवा नकुल आैर रेने की तरुण, उच्छृंखल लगती प्रेम कहानी आैर दूसरी आेर उनके माता-पिता का अधेड़ उम्र का प्यार. पर यह फिल्मकार का कमाल है कि वह तरुण प्रेमकहानी के सामने इस अधेड़वय के प्यार की जिंदादिल उच्छृंखलता को पूरी आग के साथ, पर जरा भी असहज हुए बिना दर्शक के सामने रखता है.
चाहे फिल्म दूसरे हाफ में इसे कितना भी झुठलाने की कोशिश करे, ‘बधाई हो’ के असली नायक-नायिका आयुष्मान खुराना आैर सान्या मल्होत्रा नहीं हैं. इस फिल्म का असल नायक हैं उम्रदराज प्रियंवदा (नीना गुप्ता) आैर जीतेंदर कौशिक (गजराज राव), जिन्होंने अपने उम्दा अभिनय से इस साल ‘सबसे आत्मीय प्रेम कहानी’ का हर मैदान जीत लिया है.

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