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राजस्थान का सूफियाना संगीत
भरत तिवारी, कला समीक्षक तानाबाना अगर समाज का हो, तो वह तभी मजबूत बना रह सकता है, जब उसमें हर वर्ग के धागे मजबूती से बुने रहें. ‘राजस्थान कबीर यात्रा’ ऐसे-ही तानेबाने का एक वृहद कैनवस है. जिसके नाम में कबीर निर्गुण और सूफी शबद का पर्याय हैं. और जिनके बहाने आप ऐसे संतों की […]
भरत तिवारी, कला समीक्षक
तानाबाना अगर समाज का हो, तो वह तभी मजबूत बना रह सकता है, जब उसमें हर वर्ग के धागे मजबूती से बुने रहें. ‘राजस्थान कबीर यात्रा’ ऐसे-ही तानेबाने का एक वृहद कैनवस है. जिसके नाम में कबीर निर्गुण और सूफी शबद का पर्याय हैं. और जिनके बहाने आप ऐसे संतों की वाणी सुन पाते हैं, जिन्हें राजस्थान अपने लोक में गाता रहा है. इसी बहाने आप जीवन-दर्शन से जुड़े- कबीर से बुल्लेशाह तक- ज्ञान को उन आवाजों में सुन पाते हैं, जो देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी गायकी से पहुंचा रही हैं.
मेरी यात्रा की उस शाम जैसलमेर के नाचना ठिकाने पर शाम के संगीत का कार्यक्रम हो रहा था. स्टेज के ठीक पीछे वह किला था, जिसमें कभी वह ठिकानेदार रहते थे, जो जैसलमेर की रियासत के लिए यहां के राजस्व-अधिकारी होते थे.
कहते हैं नाचना का राजस्व तब बाकी सब ठिकानों से अधिक होता था. जिप्सम-ईंट का यह किला सरकार के टूरिज्म-मैप में नहीं है और इसलिए अतिक्रमित तो होगा ही. पाकिस्तान की सीमा के पास स्थित इस गांव में वाणी-शबद-संगीत की महफिल, यात्रा में शामिल तीन सौ के करीब यात्रियों और गांव के लोगों (मुख्यतः पुरुष) से सजी हुई थी.
अचानक एक सुरीली आवाज मेरे कानों में आनी शुरू होती है और मैं तस्वीरें उतारना भूल जाता हूं, मोहित हो जाता हूं. तेज कदमों से स्टेज के पास पहुंचता हूं. वीणा लिये करीब 82 साल के दान सिंहजी के शांत अलौकिक झुर्रीदार चेहरे को देखता हूं और उनकी आवाज में डूब जाता हूं. सुर-संगीत का भाषा के समझ आने से ताल्लुक कितना कम है, यह उनके गीत के राजस्थानी शब्दों के न-समझ आने से समझ आ रहा था.
राजस्थानी लोक से संगीत प्रेमियों का जुड़ाव रहता आया है, और चूंकि इसकी भाषा हिंदी-आर्य परिवार की, संस्कृत से जन्मी भाषा है, इसलिए थोड़ा बहुत समझ भी आती है. बाड़मेर, पश्चिमी राजस्थान के दान सिंहजी की बोली मारवाड़ी है, जिसे सुनते हुए सिंधी बोली का एहसास होता रहा. वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी से बात हुई, तो वह भी ऐसा ही कुछ बोले. यह वही बोली है, जिसमें ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ सरीखे-सा है, जिसके कारण सिंधु नदी हिंदू हो गयी. इस मीठी बोली में दान सिंहजी के गले की मिठास, उनके समूह के नरसिंह बाकोलिया, कहराराम, अर्जुन जाणी, कुंभाराम, जीवन और देवीसिंह का साथ, और यात्रियों-वालंटियरों का होना, यानी शानदार महफिल.
छह दिन की इस यात्रा ने पुलिस का वह चेहरा भी दिखाया, जिसके होने का अहसास नहीं था. जोधपुर पुलिस डिप्टी कमिशनर अमनदीप सिंह कपूर, कबीर को पहला कोतवाल बताते हुए, गुरुग्रंथ साहिब से उन्हें उद्धृत करते हैं, ‘संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी’, उनका मानना है कि संतों का सम्मान और दुष्टों को दंड देना पुलिस का काम है.
साल 2015-16 में बीकानेर में हुए दंगों और पहली बार लगे कर्फ्यू से चिंतित इस युवा संगीत-नाटक प्रेमी, विचारक पुलिस अधिकारी ने सामाजिक सौहार्द को उघड़ने से बचाने के लिए ‘प्रोजेक्ट तानाबाना’ शुरू किया और बीकानेर के ऊर्जावान युवक गोपाल सिंह को अपने साथ जोड़ा, जो प्रोजेक्ट की ‘राजस्थान कबीर यात्रा’ के संचालक हैं.
यात्रा जब बीकानेर से जैसलमेर बढ़ी, तो मैं बस में दान सिंहजी के साथ बैठ गया. राजस्थान के खूबसूरत सूर्यास्त को निहारते हुए मैं उनसे बात कर रहा था. वे बोले मैं 1970 से गा रहा हूं! यह सुनके आश्चर्य हुआ, क्योंकि उनके जन्म का वर्ष, उनकी आज की उम्र (82) के हिसाब से, 1936 के आसपास होना चाहिए, यानी उन्होंने तकरीबन 34 वर्ष की उम्र में गाना शुरू किया होगा.
उन्होंने बताया- ‘मुझे भजन पसंद नहीं थे, मेरे मामा भजन गाते थे. उनके घर में जागरण था. मुझे यह कहके बुलाया कि तुम मेहमानों को देखना.’ उस पूरी रात दानसिंह जी ने भजन सुने और सुबह तक उनका हृदय परिवर्तन हो चुका था. फिल्में देखने, घूमने-फिरने में जिंदगी बिता रहे दान सिंह ने तय किया कि ‘मुझे भजन गाणे हैं और मुझे भजन सीखणे हैं’… ‘और अब मुझे यह तक याद नहीं कि मैं कितने भजन गाता हूं’.
कबीर, मीरा, गोरखनाथ, सगराम दास आदि के निर्गुण भजन गानेवाले दान सिंह स्वयं भी इन्हीं में से एक हैं: ‘जिसने बुलाया, उसके घर गये, गाया और अगर उसने खाना खिलाया तो खाया, लेकिन वह भी एक ही वक्त का. वह अपनी गायकी के एवज में लोगों से पैसे नहीं लेते हैं- सरकार से भले पारिश्रमिक ग्रहण कर लें, लेकिन वह उन्हें बुलाये तब तो. राजस्थान पुलिस भी अपने ही दम पर यात्रा आयोजित करती दिखी. राज्य इस यात्रा का महत्व समझे न समझे, समाज खूब समझ रहा है, और इस टूटन-भरे समय को यही ठीक कर सकता है.
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