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मायं-माटी : ठिठुइर गेलइ देह

भीम कुमार की खोरठा कविता ‘ठिठुइर गेलइ देह’ मौसम पर आधारित है. इस कविता में उन्होंने बताया है कि ठंड का महीना आने के बाद किस तरह से मौसम बदलता है और किस-किस तरह के एहसास होते हैं.

आइ गेलइ जाड़ मास

हिलइ लागल हाड़ मास

बहइ लागल कनकनी

ठिठुइर गेलइ देह.

पिनहइक नायं लुगा-साड़ी

ओढ़इक नायं लेंदरा चादइर

थइर-थइर कांइप रहल गिदर गुला

देहिएं बतास गेलइ मेह.

घरइ नायं खावा-खरचा

आर नायं कोन्हों उपाय

दरजन भइर धीया-पुता

खाय खतिर कांय-कांय चिलाय.

रउद नायं निकलय जखिन

दु-चाइर दिन पहरिया

टप-टप टपकइ ओला

सित आर पनियां

कुहास रहइ घेर-घेर

चलइ सित लहरिया

कोना में दुबइक रहे बाले-बचे

कटइ दिन रतिया.

चुइन-बिइछ कागइज-पतइर

आर जमा करइ झुरी-काठी

करइ जलावइक उपाय

जोखंय मिलय नायं दियासलाय.

मोने-मोन कोसइ हे भइगवान

कहिल बनाइलें कहइ खातिर इनसान

कहिल बनइलें हमरा गरीब-गुरबा

खाइल-पहनइल मिलइ नायं

कटतइ कइसें जड़वा.

भीम कुमार, शिक्षक सह कवि, नगवां, गावां, गिरिडीह

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