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किस हाल में हैं प्रवासी मजदूर, क्या मिल रहा है काम ?

लॉकडाउन के दौरान बड़े शहरों से निकली प्रवासी मजदूरों की खेप अब अपने घरों में है. काम की तलाश में अब ये गांव के आसपास के शहर का रुख कर रहे हैं. गांव से निकलकर पैदल या ऑटो रिक्शा के जरिये पास वाले शहर तक पहुंच रहे हैं.

कोरोना वायरस संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए लगाये गये लॉकडाउन के दौरान बड़े शहरों से निकली प्रवासी मजदूरों की खेप अब अपने घरों में है. बड़े शहर से लौटे ये मजदूर काम की तलाश में अब गांव के आसपास के छोटे शहर का रुख कर रहे हैं. गांव से निकलकर पैदल या ऑटो रिक्शा के जरिये पास वाले शहर तक पहुंचते हैं.

ऐसे में कुछ सवाल है जिनके जवाब तलाशे जाने चाहिए . लॉकडाउन से अब हम अनलॉक की तरह बढ़ गये हैं. अनलॉक थ्री में कई क्षेत्रों को राहत मिली है, मजदूरों के हिस्से में कितनी राहत आयी है ? सरकारी योजनाओं की क्या स्थिति है ? मनरेगा से कितनी मदद मिल रही है ? क्या उन्हें अपने गांव में या पास के शहर में आसानी से काम मिल रहा है? क्या मजदूर सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क पहननें जैसे अहम नियमों का पालन कर रहे हैं ? पढ़ें, इन सवालों के जवाब तलाशती पंकज कुमार पाठक की रिपोर्ट

अबतक लौटे प्रवासी मजदूरों का आंकड़ा समझिये
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पहले सरकारी आंकड़े पर गौर करते हैं, समझते हैं कि राज्य में प्रवासी मजदूरों की स्थिति क्या है? बस इस आंकड़े पर गौर करते – करते पहले से झारखंड में मौजूद मजदूरों की संख्या को भूल मत जाइयेगा. अगर इन्हें जोड़कर देखेंगे, तो स्थिति और बेहतर ढंग से समझ पायेंगे. सरकारी आंकड़े के अनुसार अब तक विभिन्न माध्यमों से जिसमें स्पेशल ट्रेन, हवाई मार्ग और बस शामिल है कुल कुल 8 लाख 14 हजार 715 लोग दूसरे राज्य एवं विदेशों से वापस आये हैं. इनमें से 5 लाख 44 हजार 96 प्रवासी मजदूर शामिल हैं. अब तक कुल 263 स्पेशल ट्रेन चलाई गयी हैं.

ये तो हुई सरकारी आंकड़े की बात लेकिन कई माध्यमों से खुद वापस लौटे मजदूरों की संख्या इन आंकड़ों से ज्यादा है एक अनुमान के अनुसार 7 लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर झारखंड लौटे हैं.

अब वापस लौटे मजदूरों की स्थिति समझिये
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ग्रामीण विकास विभाग की आधिकारिक वेबसाइट ‘मिशन सक्षम’ ने एक सर्वे जारी किया जिसमें मौजूद आंकड़ों से काम की स्थिति को समझने की कोसिश करें तो पायेंगे 3,01,987 प्रवासी श्रमिकों में से 75.04 फीसदी यानी 2,26,603 लोग मनरेगा योजना के तहत काम करने के लिए तैयार हैं. इसी महीने ग्रामीण विकास विभाग की सचिव आराधना पटनायक जानकारी दी कि बड़े पैमाने पर लोगों के जॉब कार्ड बनाये गये हैं. बावजूद इसके, बाहर से आये जिन 3.02 लाख श्रमिकों का सर्वेक्षण किया गया है, उनमें से 52,71 फीसदी यानी 1,59,191 लोगों के पास जॉब कार्ड नहीं हैं.

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सरकार कोविड 19 के मद्देनजर ग्रामीणों को गांव में ही काम देने की कोशिश कर रही है. इस बीच मनरेगा कर्मी अपनी मांग को लेकर हड़ताल पर चले गये. उनकी क्या मांग है इसका भी जिक्र बाद में करता हूं पहले इस हड़ताल की वजह से मजदूरों की स्थिति आंकड़ों में समझ लीजिए 26 जुलाई को राज्य में 7.42 लाख से अधिक मजदूरों ने सरकार द्वारा चलायी जा रही कई योजनाओं के तहत काम किया.

अगले दिन यानि 27 जुलाई को मजदूरों की संख्या 3.70 लाख रह गई. जाहिर है 3.72 लाख मजदूरों को दूसरे दिन मनरेगा में काम नहीं मिला. ज्यादातर मजदूरों के काम के बाद तुरंत पैसा नहीं मिलता. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर संज्ञान लेते हुए निर्देश दिया था कि 8 दिनों के भीतर मजदूरों को पैसा मिलना चाहिए अगर ऐसा नहीं होता है तो बीडीओ और डीडीसी पर कार्रवाई की जा सकती है. मजदूरों को अब 3 से 5 दिनों के भीतर पैसा मिल रहा है यह भी एक बड़ी समस्या है कि मजदूरों को अपनी मजदूरी का पैसा लेने के लिए पांच दिनों का इंतजार करना पड़ रहा है.

हड़ताल क्यों हुआ है ?

अब आइये मनरेगा कर्मचारियों की मांग पर जिसकी वजह से हड़ताल हुआ है मजदूरों पर असर पड़ रहा है. पहले झारखंड मनरेगा कर्मचारी संघ के प्रदेश अध्यक्ष अनिरुद्ध पांडेय का बयान पढ़िये, कहते हैं , हम मौका परस्त होकर नहीं बल्कि मजबूरी में हड़ताल हैं. 13 साल से हमारी मांगों को टाला जा रहा है. अब मांग क्या है यह समझिये. मनरेगा कर्मचारी स्थानीय नौकरी की मांग कर रहे हैं आरोप है कि अफसर मनमानी करते हैं नौकरी से निकाल दते हैं. कोरोना वायरस की वजह से उन्होंने भी सुरक्षा की मांग की है जिसमें स्वास्थ्य बीमा और जीवन बीमा शामिल है.

अब ग्राउंड पर स्थिति समझिये
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अबतक आप समस्या समझ गये होंगे और उनके लिए अपनाये जा रहे सरकारी तरीके भी. अब ग्राउंड पर आइये और मजदूरों की स्थिति समझिये प्रभात खबर डॉट कॉम ने रांची शहर में अलग- अलग इलाकों से आये लगभग 60 से ज्यादा मजदूरों से बात की. राजधानी रांची के पिस्का मोड़, किशोरगंज, हरमू रोड,लालपुर सहित कई इलाके हैं जहां मजदूर एक साथ खड़े होकर काम का इंतजार करते हैं. दूसरी जगहों की तरह पिस्का मोड़ में भी मजदूरों की संख्या धीरे- धीरे बढ़ रही है. ये बातचीत हर जगह मजदूरों के छोटे- छोटे कई समूह से हुई है इसलिए इसमें किसी एक मजदूर का नाम नहीं दिया गया है.

क्यो बढ़ रही है मजदूरों की भीड़

अगर आप पूरा आर्टिकल पढ़कर यहां तक पहुंचे हैं, तो स्थिति समझ गये होंगे लेकिन जरूरी है कि मजदूरों से बातचीत कर उनसे समझा जाये कि संख्या क्यों बढ़ रही है. रातू से काम की तलाश में पिस्का मोड़ चौक से थोड़ी दूरी पर खड़े राजू कहते हैं, गांव में काम कहां है ? काम की तलाश में लोग शहर आ रहे हैं, लोगों को काम नहीं मिल रहा है इसलिए मजदूरों की संख्या बढ़ गयी है. पहले हम 30 – 35 लोग रहते थे अब इसी छोटी सी जगह पर आपके 90- 95 लोग दिख रहे हैं. मजदूरों की संख्या बढ़ रही है काम नहीं मिल रहा. दूसरे जगहों से काम छोड़कर आये प्रवासी मजदूर भी अब शहर में काम खोजने लगे हैं दूसरा पहले लॉकडाउन था अब राहत मिली है तो लोग काम की तलाश में निकलेंगे ही.

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गांव से काम की तलाश में आये ज्यादातर मजदूर ऑटो रिक्शा के जरिये शहर आ रहे हैं. कांके नगड़ी, जोन्हा, बेड़ो, रातू, रघुनाथपुर, मांडर सहित आसपास के कई इलाकों से शहर आने वाले मजदूर आपस में पैसा मिलाकर एक ऑटो बुक करते हैं जो उन्हें शहर तक छोड़ देता है और काम खत्म होने के बाद दोबारा गांव की तरफ. लालपुर चौराहे पर खड़ी महिलाओं की भीड़ में हमने जब सवाल किया कि एक ऑटो में कितने लोग आते हैं, तो एक महिला ने बड़े आराम से जवाब दिया कि 10 या 12 लोग, मैंने अपना सवाल दोहराया कि इस वक्त भी एक साथ 10- 12 लोग आ रहे हैं तो दूसरी महिलाओं बचाव में बोलने लगीं कि नहीं, नहीं ऐसा नहीं है.

महिलाओं ने बताया कि पैसा नहीं रहता तो हम कर्ज लेकर आते हैं. हम चाहते हैं कि खर्च ज्यादा ना हो इसलिए इस तरह आते हैं. आने जाने में दूरी के अनुसार पैसा लगता है एक 14 साल का बच्चा पिस्का मोड़ में काम की तलाश में था नाम तो उसने शर्माते हुए नहीं बताया लेकिन इतना बताया कि मांडर से आता है आने जाने में 240 रुपया लगता है काम मिला तो 260 रुपये बचता है. मजदूरों को आने जाने में कम से कम 60 रुपये से लेकर 250 रुपये तक का खर्च होता है अगर काम नहीं मिला तो ऑटो से आने के पैसे बेकार चले जाते हैं.

खेती का मौसम है, काम नहीं है ?

इस सवाल पर ज्यादातर मजदूर कहते हैं कि हमारे इलाके में अब बुआई का काम पूरा हो गया. कई इलाकों में बारिश की वजह से काम रुका है लेकिन ज्यादातर जगहों में बुआई हो गयी. अब गांव में काम नहीं है. मनरेगा में हड़ताल है. अगर कहीं काम भी है तो जिस दिन काम करो उस दिन पैसा नहीं मिलता, हम तो रोज कमाने खाने वाले लोग हैं पैसा नहीं मिलेगा तो कैसे घर चलेगा.

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शहर में कुली का काम करने वाले को 500 रुपये, मिस्त्री को 700 रुपये और महिलाओं को एक दिन के काम के लिए 400 रुपये मिलते हैं. अगर इसमें से 100 या 200 खर्च हो गया तब भी गांव हम 200 से ज्यादा लेकर जाते हैं. गांव में कुछ लोगों ने कहा, हमारे पास खेत हैं लेकिन खेती करने के लिए पैसे नहीं है. लॉकडाउन की वजह से सारी जमा पूंजी चली गयी अब पैसे नहीं है कि खेती करें, उधार पइचा लेकर काम कर रहे हैं.

गांव में राशन मिल रहा है ?

इस सवाल पर ज्यादातर मजदूरों ने कहा कि हां गांव में राशन मिलता है लेकिन वह काफी नहीं है, हमारी जरूरतें ज्यादा है परिवार में लोग ज्यादा है. इसके अलावा घर में तेल मसाला खरीदना पड़ता है, बच्चों की जरूरत पूरी करनी होती है, पैसे तो चाहिए ही सरकार हर जरूरत तो पूरी नहीं कर सकती. सब्जी और दूसरे जरूरी सामान के लिए पैसा तो चाहिए इसलिए काम जरूरी है और हम काम की तालश में इतनी दूर आ रहे हैं. गांव में ही काम मिलता और अच्छे पैसे मिलते तो हम शहर क्यों आते.

कोरोना पर कुछ सवाल

एक साथ खड़े मजदूरों से जब पूछा, आपलोगों को कोरोना की जानकारी है, डर नहीं लगता ? कुछ लोगों ने मास्क नहीं पहना है और आपलोग सब इतने नजदीक खड़े हैं. शहर में संक्रमितों की संख्या ज्यादा है, इस सवाल पर ज्यादातर मजदूरों ने कहा, इससे डरेंगे, तो भूखो मर जायेंगे. कोरोना से तब डर लगेगा जब पेट भरा होगा, खाली पेट डर खत्म कर देता है. लॉकडाउन शहर में है, हमारा पेट तो लॉकडाउन नहीं समझता उसे तो भूख लगती है.

Posted By – Pankaj Kumar Pathak

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