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पश्चिम बंगाल : अमेरिका में प्रतिभा बिखेरने के बाद आर्थिक तंगी से मंदिर में कमाई का रास्ता तलाश रहे शांतिराम

शांतिराम बागदी की अद्भुत बांसुरी संगीत को सुनने के लिए दूर-दूर से आने वाले पर्यटक उनकी बांसुरी की धुन सुनकर खुश होकर कुछ पैसों से उनकी मदद करते है. वह बताते हैं कि एक बार वह अमेरिका भी गये थे.

बीरभूम, मुकेश तिवारी : पश्चिम बंगाल में नाक से बांसुरी बजाकर अपनी अद्भुत प्रतिभा के बल पर कभी अमेरिका में अपनी कला का लोहा मनवा लेने वाले बीरभूम (Birbhum) के दुर्लभ प्रतिभा के धनी शांतिराम बागदी इन दिनों आर्थिक तंगी में दिन गुजार रहे हैं. नाक से ही बांसुरी बजाकर लोगों को मंत्रमुग्ध कर उनके द्वारा जो कुछ मिलता है उसी से अपनी गुजर बसर वह कर रहे हैं. बीरभूम जिले के शांति निकेतन थाना इलाके के रौतारा गांव के रहने वाले एक असाधारण प्रतिभाशाली कलाकार शांतिराम बागदी आर्थिक तंगी में दिन गुजर बसर कर रहे हैं. वह अपना और अपने परिवार के गुजर बसर के लिए इन दिनों सती पीठ कंकाली तला मंदिर प्रांगण में ही नाक से बांसुरी बजाकर मंदिर आने वाले भक्तों और पर्यटकों से मिलने वाले रुपयों से ही किसी तरह गुजर बसर कर रहे हैं.

बावजूद इसके शांतिराम बागदी के चेहरे पर कभी दुख नजर नहीं आता. उनका कहना है कि उनकी इस प्रतिभा की कद्र उन्हें अमेरिका में मिली था. लेकिन अपने देश में उन्हें सटीक सम्मान नही मिल पाया. सरकार से भी उन्हें विशेष सम्मान और लाभ नहीं मिला. ना ही उन्होंने कभी मांगने की कोशिश ही की. शांतिराम बताते हैं कि वह कभी स्कूल नहीं गये. बांसुरी के प्रति अपने सच्चे प्रेम के कारण उन्होंने 16 से 17 साल की उम्र में बांसुरी बजाना शुरू कर दिया था. उन्होंने इस बांसुरी वादन को ही कमाई का एकमात्र जरिया चुना. उन्होंने कहा कि बांसुरी बजाकर कमाये गये पैसों से उन्होंने तीन बेटों की शादी की. बाकियों की तरह उन्होंने सबसे पहले अपने मुंह से बांसुरी बजाना शुरू किया था.

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लेकिन बांसुरी तो हर कोई मुंह से बजाता है और मुंह से बजाती उस बांसुरी को देखने के लिए लोगों की भीड़ भी ठीक से इकट्ठा नहीं होती है. इसके बाद एक दिन बांसुरी की दुकान पर बांसुरी खरीदते समय उन्होंने बिल्कुल अलग कुछ करने की ठानी. इसी कंकाली तला मंदिर में बैठ कर उन्होंने नाक से बांसुरी बजाने की कोशिश की. काफी प्रयास और मां कंकाली के आशीर्वाद से ही उन्होंने नाक से बांसुरी बजाना शुरू किया. शांतिराम बताते हैं कि उस समय उन्होंने पहला श्यामा संगीत ‘चाइना मागो राजा होते’ अपनी नाक से धुन निकालकर बजाया. उनके इस प्रयास ने आम लोगों का दिल जीत लिया. उन्होंने बताया कि वह खुद किसी से पैसे नहीं मांगते हैं. उनकी बांसुरी की धुन और संगीत सुनकर जो पैसे देते हैं, उसी से उनका घर चलता है.

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बीरभूम के सती पीठों में से एक कंकालीतला मां की पूजा करने के लिए पर्यटक आते हैं और बेसब्री से उनका इंतजार करते हैं. शांतिराम बागदी की अद्भुत बांसुरी संगीत को सुनने के लिए दूर-दूर से आने वाले पर्यटक उनकी बांसुरी की धुन सुनकर खुश होकर कुछ पैसों से उनकी मदद करते है. वह बताते हैं कि एक बार वह अमेरिका भी गये थे. वहां के लोग उन्हें नाक से बांसुरी बजाते देख आश्चर्यचकित हो गये. उन्हें काफी तारीफ मिली थी. लेकिन आज उनकी स्थिति अच्छी नहीं है. आर्थिक तंगी और ढलती उम्र के बाबजूद शांतिराम बागदी के नाक से बांसुरी बजाने की अद्भुत कलाकारी को देख लोग आज भी हैरत में पड़ जाते हैं.

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