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BHU विवाद : टकराव का केंद्र बन चुके हैं भारत के शिक्षण संस्थान

बीएचयू में छेड़खानी का विरोध कर रहे छात्राओं पर लाठीचार्ज की घटना के बाद देश के शिक्षण संस्थानों के माहौल को लेकर नये सिरे से बहस शुरू हो गयी है. इस घटना के पहले भी छात्रों और विश्वविद्यालय के टकराव की कई घटनाएं हुई. बीएचयू मामले में भी कमिश्वनर ने जो जांच रिपोर्ट सौंपी है. […]

बीएचयू में छेड़खानी का विरोध कर रहे छात्राओं पर लाठीचार्ज की घटना के बाद देश के शिक्षण संस्थानों के माहौल को लेकर नये सिरे से बहस शुरू हो गयी है. इस घटना के पहले भी छात्रों और विश्वविद्यालय के टकराव की कई घटनाएं हुई. बीएचयू मामले में भी कमिश्वनर ने जो जांच रिपोर्ट सौंपी है. उसमें स्पष्ट कहा गया है कि पीड़ित छात्रा की शिकायत के साथ बीएचयू प्रशासन ने संवेदनशीलता नहीं बरती और न ही मामले को वक्त रहते संभाला. ऐसे में मामला पूरी तरह हाथ से निकल गया.

जानकारों की मानें तो अपने तीन साल के कामकाज में मोदी का शिक्षण संस्थानों के प्रति उदासीनता साफ जाहिर होती है. कई लोगों का मानना है कि एजुकेशन मौजूदा सरकार की प्राथमिकता सूची से बाहर है. मोदी सरकार ने तीन सालों में कई आर्थिक सुधारों की घोषणा की है. योजना आयोग को भंग कर नीति आयोग बनाया और जीएसटी जैसे सुधारवादी कदम अपनाये लेकिन जब बात शिक्षण संस्थानों की आती है, तो वहां सुधार की बजाय हालत खराब दिख रहे हैं.
केंद्र में मोदी सरकार के सत्ता संभालते ही छात्रों और सरकार के बीच पहली टकराव की खबर एफटीआईआई से आयी. फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान पुणे में गजेंद्र चौहान को निदेशक बनाये जाने का विरोध किया गया. एफटीआईआई पुणे की गिनती देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में होती है. यहां से निकलने वाले निर्देशकों की लंबी फेहरिस्त हैं. इनमें विधु विनोद चोपड़ा, राजकुमार हिरानी, प्रकाश झा, सुभाष घई और संजय लीला भंसाली जैसे प्रतिभाशाली लोग शामिल है. जब निदेशक बनाने की बारी आयी तो जिन नामों पर विचार किया गया था. उनमें गजेन्द्र चौहान की दावेदारी योग्यता के हिसाब से सबसे कमजोर थी. फिर भी उन्हें निदेशक बना दिया गया.
फिल्म इंडस्ट्री के प्रतिष्ठित लोगों ने उस वक्त कहा कि अगर नियुक्ति में पार्टी और विचारधारा भी मायने रखती हो तो भाजपा और संघ के पास निदेशक बनाने के लिए अनुपम खेर, किरण खेर, परेश रावल, मधुर भंडारकर जैसे तमाम ऐसे लोग थे. जिन्हें भारतीय फिल्म में विशिष्ट योगदान के लिए सराहा जाता है. ये सारे लोग राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हैं फिर गजेन्द्र चुन सरकार क्या संदेश देना चाहती थी
शीर्ष पदों योग्यता की बजाय विचारधारा को तरजीह मिलने से हो सकता है नुकसान
देश के किसी भी विश्वविद्यालय को दुनिया के शीर्ष 200 संस्थानों में जगह नहीं मिल पा रही है. भारतीय विश्वविद्यालय रिसर्च में पिछड़ते जा रहे हैं. राजनीति और विवादों का अड्डा बन चुके यूनिवर्सिटी कैंपस भारत के जरूरतों को कैसे पूरा कर सकता है, यह सबसे बड़ा सवाल उभरकर सामने आ रहा है. शिक्षण संस्थानों के शीर्ष पदों पर नियुक्ति का एकमात्र आधार अगर विचारधारा रहे तो विश्वविद्यालय की स्थिति और खराब हो सकती है.
भारतीय मूल के नोबेल विजेता वेंकटरमन रामाकृष्णन ने पिछले दिनों सलाह दी थी कि भारत को “कौन किस तरह का माँस खाता है इस पर सांप्रदायिक वैमनस्य पालने” के बजाय अच्छी शिक्षा खासकर विज्ञान और तकनीक की, पर ध्यान देना चाहिए. ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बोलते हुए रामाकृष्णन ने कहा कि अगर भारत “नवोन्मेष, विज्ञान और तकनीक में अगर निवेश नहीं करेगा तो वो दौड़ में पीछे छूट जाएगा.” रामाकृष्णन ने कहा, “भारत चीन से पहले ही काफी पिछड़ गया है, अगर आप पचास साल पहले दोनों देशों को देखें तो दोनों की तुलना हो सकती था. दरअसल, भारत को चीन से थोड़ बेहतर कहा जा सकता था.
विश्वविद्यालय के संचालन में बदलाव की जरूरत
भारत में विश्वविद्यालयों के संचालन में हस्तक्षेप की पुरानी परंपरा रही है. शिक्षक से लेकर वीसी तक की नियुक्ति में योग्यता से ज्यादा पैरवी काम करता है. यह कोई छिपा तथ्य नहीं रहा है. एक मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए शिक्षण संस्थानों की भूमिका को किसी भी देश में नकारा नहीं जा सकता है. अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने वहां की अर्थव्यवस्था को कई बार अनुंसधानों के जरिये पुनर्जीवन दिया है. . दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों का अपना एंक फंड होता है और वह फंड के लिए सरकार पर निर्भर नहीं रहते लिहाजा वह एक तरह से स्वायत्त होकर काम करते हैं.
Prabhat Khabar Digital Desk
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