देश के पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा- की विधानसभाओं के लिए चुनाव प्रचार जोरों पर है. उत्तराखंड के अलाव अन्य राज्यों में लड़ाई मुख्य रूप से त्रिकोणीय है, पर बनते-बिगड़ते समीकरणों ने चुनावों को बेहद दिलचस्प बना दिया है. परिणामों को लेकर कई तरह के कयास लगाये जा रहे हैं. ये चुनाव भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की परीक्षा हैं, तो कांग्रेस के सामने अपनी साख बचाने की चुनौती भी है. आम आदमी पार्टी के लिए ये चुनाव राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करने का अवसर हैं, तो बसपा और सपा के लिए अपनी प्रासंगिकता साबित करने का मौका भी. इसी तरह से विभिन्न क्षेत्रीय दल और प्रभावशाली नेता अपनी जमीन को मजबूत बनाने की कवायद कर रहे हैं. नतीजे चाहे जो हों, उनसे इन राज्यों की भावी राजनीति के साथ ही देश की राजनीतिक तस्वीर की दशा और दिशा में बड़े बदलाव होंगे. इन पांच राज्यों के चुनावी माहौल को टटोलते हुए प्रस्तुत है संडे इश्यू…..
रामदत्त त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार (यूपी से)
विधानसभा चुनाव की नामांकन प्रक्रिया शुरू होने के बाद भी उत्तर प्रदेश की राजनीति हर रोज नयी इबारत लिख रही है. पुराने समीकरण बिगड़ और नये बन रहे हैं. राजनीति के चतुर खिलाड़ी समझे जानेवाले पहलवान मुलायम सिंह यादव को उनके उस बेटे ने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष पद से बेदखल कर दिया, जिसे उन्होंने, तमाम विरोध के बावजूद, स्वयं उत्तराधिकारी बनाया था. मुलायम सिंह द्वारा घोषित एक चौथाई उम्मीदवार बदल दिये गये हैं. उपेक्षित मुलायम इस समय केवल पोस्टरों में दिख रहे हैं. जो शिवपाल यादव कल तक समाजवादी पार्टी के टिकट बांट रहे थे, वह अब न तो पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं, और न ही स्टार प्रचारक. अपना दर्द सार्वजनिक कर वह समर्थकों को इशारा कर रहे हैं कि उन्हें क्या करना है.
समाजवादी पार्टी ने पहली बार कांग्रेस से चुनाव पूर्व गंठबंधन किया है. 105 यानी लगभग एक चौथाई सीटें कांग्रेस को मिली हैं. 298 सीटों पर सपा लड़ेगी. लेकिन, सेकुलर महागंठबंधन नहीं बन पाया. मुसलिम मतदाताओं के बिदकने के डर से अखिलेश यादव ने चौधरी अजीत सिंह से हाथ नहीं मिलाया. राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू भी गंठबंधन से बाहर हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ऐलान कर दिया है कि अब उत्तर प्रदेश के चुनाव में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. उधर बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष सुश्री मायावती जैसे इंतजार ही कर रही थीं कि अंसारी भाई सपा से नाता तोड़ कर उनका टिकट ले लें. पूर्वांचल के बनारस और आजमगढ़ मंडलों में कई सीटों पर अंसारी भाइयों का प्रभाव है.
सवर्ण हितैषी समझी जानेवाली भाजपा बहुत आक्रामक तरीके से, बिहार की तरह, उत्तर प्रदेश में भी अति पिछड़ी और अति दलित जातियों को गोलबंद करने की कोशिश कर रही है. भाजपा ने इसके लिए न केवल लक्ष्मीकांत वाजपेयी को हटा कर केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया, बल्कि बहुजन समाज पार्टी से स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी जैसे कई कद्दावर नेताओं को पार्टी में शामिल कर लिया. भाजपा ने कुर्मियों के अपना दल और राजभर बिरादरी के भारतीय समाज पार्टी से भी गंठबंधन किया है. इसके अलावा भाजपा ने रीता बहुगुणा जोशी, ब्रजेश पाठक और राजा अरिदमन सिंह जैसे अनेक सवर्ण उम्मीदवार भी कांग्रेस, बसपा और सपा से आयातित किये हैं.
दलबदलू प्रत्याशियों की भरमार से भाजपा में जिलों-जिलों से असंतोष और विद्रोह की खबरें आ रही हैं. मोदीजी का नारा सबका साथ सबका विकास है, पर उन्हें 19 फीसदी आबादी से एक भी उम्मीदवार नहीं मिला. यादव और दलितों में सबसे अभिजात्य जाटव बिरादरी से भाजपा की दूरी बरकार है. मोटे तौर पर यह कह सकते हैं कि इस बार उत्तर प्रदेश में मुकाबला न तो आमने-सामने का है और न ही चौकोना है. पश्चिम में चौधरी अजीत सिंह के प्रभाव वाले लोकदल की कुछ सीटों को छोड़ कर अधिकतर पर मुकाबला तिकोना है. पहले जब लड़ाई सपा और बसपा में होती थी, तो सरकार से नाराज मतदाता आसानी से दूसरे पाले में खींचा जा सकता था. लेकिन, इस बार भाजपा सरकार की प्रबल दावेदार है. और कांग्रेस को सपा का साथ मिल जाने से वह भी लड़ाई में आ गयी है. पांच साल सत्ता में रहने के बावजूद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के प्रति मतदाताओं में कोई मुखर नाराजगी नही है, बल्कि उनके प्रति सकारात्मक रुझान है.
प्रेक्षकों का अनुमान है कि मुसलिम, ईसाई एवं धर्मनिरपेक्ष राजनीति में विश्वास रखनेवाले मतदाता इधर झुकेंगे. साथ ही मुलायम सिंह से विपरीत अखिलेश की छवि मुसलिम परस्त की नहीं है. इसलिए माना जाता है कि कांग्रेस का साथ मिलने से सवर्ण मतदाताओं का एक हिस्सा उन्हें मिलेगा. यह भी कहा जा रहा है कि जब अखिलेश, डिम्पल, राहुल और प्रियंका, ये चारों प्रचार में निकलेंगे, तो युवा और महिला मतदाता इस नये गंठबंधन के प्रति आकर्षित होंगे.
पिता मुलायम और चाचा शिवपाल यादव को किनारे करके अखिलेश यादव ने अपनी सरकार की कमियां और नकारात्मक काम सुनियोजित तरीके से उनके खाते में डाल दिये हैं. मगर राजनीति इतनी आसान भी नही है. लेकिन इस प्रकरण से ग्रामीण क्षेत्रों में पुराने सपा कार्यकर्ताओं में नाराजगी की खबरें हैं. जिन लोगों के टिकट काटे गये हैं, वे भी खार खाये बैठे हैं. ऐसे में सपा में भितरघात की संभावनाएं हैं. इसका असर बूथ मैनेजमेंट पर पड़ सकता है, क्योंकि टीम अखिलेश में पुराने अनुभवी लोगों की कमी है. अखिलेश की टीम ने इस बार प्रचार के लिए ‘काम बोलता है’ का नारा चुना है, जिसमें मुख्य रूप से लैपटाप वितरण, पेंशन, एक्सप्रेस हाइवे, एंबुलेंस सेवा, पुलिस की डायल 100 सेवा और लखनऊ मेट्रो ट्रेन सेवा शामिल हैं. लेकिन, पार्टी में उनके आलोचकों का कहना है कि चुनाव में सरकार के काम से ज्यादा सामाजिक समीकरण और जमीनी कार्यकर्ता महत्वपूर्ण होते हैं.
नरेंद्र मोदी की सुनामी ने पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को रिकॉर्ड 42 फीसद वोट और 73 सीटें जितायी थीं. भाजपा ने इस बार भी सपा के ‘गुंडा राज और भ्रष्टाचार’ को मुद्दा बनाया है. पर, इतनी बड़ी संख्या में भाजपा सांसदों के पास लोगों को बताने लायक बहुत कुछ उपलब्धि नहीं है. नोटबंदी से किसान, मजदूरों और छोटे कारोबारियों में नाराजगी है. पिछली बार की तरह हिंदू मतों का ध्रुवीकरण दिखायी नहीं दे रहा है. इन सबसे ऊपर भाजपा ने अब तक मुख्यमंत्री का चेहरा सामने नहीं किया है. तमाम इलाकों में जमीनी कार्यकर्ता टिकट वितरण से नाराज होकर घर बैठ सकते हैं या फिर दल-बदलू उम्मीदवारों को हराने में जुट सकते हैं. इन सबसे अगर पांच-दस फीसद वोट कम हो जायें, तो भी भाजपा सत्ता की दौड़ में रहेगी.
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत के लिए तीस फीसद वोट पर्याप्त माने जाते हैं. भाजपा ने लोकसभा में 42 फीसद हासिल किये थे और पिछले विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस के मतों का जोड़ चालीस होता है. बहुजन समाज पार्टी को पिछले विधानसभा चुनाव में 26 और उसके बाद लोकसभा में मात्र बीस फीसद वोट मिले थे. सपा को विधानसभा में 29 और लोकसभा में 22 फीसद वोट मिले थे .
जब तक सपा और बसपा का सीधा मुकाबला था, मायावती का दावा मजबूत माना जाता था. लेकिन, भाजपा के उभार, सपा-कांग्रेस गंठबंधन और अखिलेश की चमक में निखार से सबसे बड़ा नुकसान बसपा का हुआ है. मायावती का सबसे बड़ा प्लस प्वाॅइंट था अपराधियों के प्रति सख्ती, लेकिन अब वह भी कमजोर पड़ रहा है. मगर, मायावती का मतदाता खामोशी से वोट देता है और अगर उनके मुसलिम एवं सवर्ण प्रत्याशी अपने समुदाय का वोट ले सके, तो वे अपनी सीटें निकाल सकते हैं. किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले देखना है कि पहली फरवरी का केंद्रीय बजट मतदाताओं के लिए क्या आकर्षण लेकर आता है. उम्मीदवारों के नामांकन की आखिरी तारीख अठारह फरवरी है और अगले तीन सप्ताह में भी बहुत कुछ नया हो सकता है.