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यूपी विधानसभा चुनाव : कोई नहीं कर सकता जीत का दावा

!!अम्बेडकरनगर से कृष्ण प्रताप सिंह!! उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का जितना दिलचस्प परिदृश्य दलितों व पिछड़ों की बहुलता वाले अम्बेडकरनगर जिले में है, शायद ही किसी और जिले में हो. कारण यह कि प्राय: चौंकाऊ नतीजे देने वाले इस जिले के मतदाताओं की आदत यहां सत्तासंघर्ष में सक्रिय प्राय: सारी पार्टियों के सिर चढ़कर […]

!!अम्बेडकरनगर से कृष्ण प्रताप सिंह!!

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का जितना दिलचस्प परिदृश्य दलितों व पिछड़ों की बहुलता वाले अम्बेडकरनगर जिले में है, शायद ही किसी और जिले में हो. कारण यह कि प्राय: चौंकाऊ नतीजे देने वाले इस जिले के मतदाताओं की आदत यहां सत्तासंघर्ष में सक्रिय प्राय: सारी पार्टियों के सिर चढ़कर बोल रही है और किसी को भी चैन नहीं लेने दे रही. नतीजा यह है कि न वह समाजवादी पार्टी आश्वस्त हो पा रही है, जिसने 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रतिद्धंद्धी दलों को खाता तक नहीं खोलने दिया था. सपा ने जिले की अकबरपुर, कटेहरी, टांडा, आलापुर व जलालपुर अपनी झोली में डाल ली थीं. न भारतीय जनता पार्टी चैन से है, जिसने 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के घोड़े पर सवार होकर सारे पुराने समीकरणों को बुरी तरह तहस–नहस कर दिया था. तब उसने इन पांचों विस सीटों में बढ़त प्राप्तकर अम्बेडकरनगर लोकसभा सीट पर अपना परचम फहरा दिया था.

उसका यह परचम इस अर्थ में बेहद महत्वपूर्ण था कि इससे पहले अकबरपुर नाम से जानी जाने वाली और अयोध्या से सटी इस लोस सीट पर उसे कभी भी जीत का मुंह देखना मयस्सर नहीं हुआ था. राम मंदिर आंदोलन के उसके सुनहरे दिनों में भी नहीं. अब सपा हो या भाजपा दोनों इसलिए ज्यादा बेचैन हैं कि उनके सामने अपने 2012 व 1014 के करिश्मे को दोहराने की चुनौती है. इस बीच तमसा नदी में पानी का बहाव इतना तेज है कि समय उनके हाथ से निकला जा रहा है. बसपा को भी बेचैन होना ही चाहिए, जिसे अपने इस गढ़ में सपा व भाजपा दोनों से हिसाब बराबर करना है. दरअस्ल, इन दिनों जिले में सपा व भाजपा के पास जो भी सीटें हैं, बसपा से ही छीनी हुई हैं. उसकी सुप्रीमो मायावती खुद 1998,1999 और 2004 में अकबरपुर लोकसभा सीट व 2002 में जहांगीर गंज (अब आलापुर) विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व का चुकी हैं, जबकि उसके प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर 1993 से लेकर 2007 तक लगातार चार बार अकबरपुर से विधायक रहे हैं. इस बार वे अपने गृह जनपद में पार्टी की लाज बचाने के लिए जिस कदर जूझ रहे हैं, उससे और तो और सपाइयों तक को लगता है कि उसके लिए पांचों विस सीटों पर मैदान मारना आसान नहीं होगा. खासकर जब जलालपुर के उसके विधायक भोरबहादुर सिंह हवा का रुख देखकर भाजपा में भाामिल हो गये हैं और अखिलेश सरकार के प्रति ऐंटीइनकम्बेंसी भी है.

फिलहाल, घोषित/संभावित प्रत्याशियों द्वारा जनसम्पर्क शुरू कर दिये जाने के बावजूद मतदाता किसी के पक्ष में मुखर होने को तैयार नहीं हैं. किसी की लहर जैसी कोई चीज अभी दिखायी नहीं दे रही. प्रेक्षकों का कहना है कि चुनावी नतीजे एक बार फिर चकित करने वाले हो सकते हैं. ऐसे ही चौंकाने वाले नतीजे में अकबरपुर के मतदाताओं ने 1991 के चुनाव में बाहुबली पवन पांडेय को जिताकर प्रदेश विधानसभा को शिवसेना का पहला और अब तक का आखिरी विधायक दे डाला था, जबकि 1985 और 1989 के चुनावों में उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अकबर हुसैन बाबर को जिताया था. इससे पहले माकपा नेता भगौती प्रसाद 1974 में जलालपुर सीट से जीते थे और वहां के मतदाताओं ने 1977 की जनता लहर में भी उन्हें नहीं हराया था.

अतीत में जायें तो भाजपा व विहिप के राम मंदिर आंदोलन के जोर पकड़ने और बसपा के उभरने से पहले तक वामपंथियों और जनता पार्टी को छोड़ दें तो यहां कांग्रेस के एकाधिकार को सबसे बड़ी चुनौती चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांतिदल/लोकदल से ही मिलती रही है. जहां तक भाजपा की बात है, वह मोदी लहर से पहले कभी यहां पैठ नहीं बना सकी. 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस के बाद, जब वह फूली–फूली फिर रही थी, उसके वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तारी के बाद अदालत के समक्ष पेश करने के लिए अकबरपुर ही लाया गया था, जहां कोई आधार न होने के कारण उसके लिए विरोध में कोई हंगामा कर पाना संभव नहीं था. बाद के लोस व विस चुनावों में भी वह अपने खाते में कोई उपलब्धि नहीं जोड़ सकी थी. लेकिन अब मोदी लहर ने उसे लोस चुनाव में धमाकेदार जीत दिलाकर विस चुनाव में भरपूर अरमान निकालने का मौका उपलब्ध करा दिया है तो उसे समझ में नहीं आ रहा कि संगठन की कमजोरी व नोटबंदी सेे नुकसान की आशंकाओं के बीच उसका सदुपयोग कैसे करे.

प्रसंगवश, 1993 में प्रदेश में सपा–बसपा गंठबंधन ने सरकार बनायी और मुलायम मुख्यमंत्री बने तो यहां के मतदाताओं को लगा था कि अब वे अपने राजनीतिक आराध्य डॉ. राममनोहर लोहिया की जन्मस्थली अकबरपुर को लोहियानगर नाम से जिला बना देंगे. लेकिन मुलायम ने ऐसा नहीं किया क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि इसका फायदा इस अंचल के बसपा के नवनिर्वाचित विधायकों के खाते में चला जायेगा. इसी कारण सपा–बसपा गठबंधन टूटा और भाजपा के समर्थन से मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो 29सितम्बर, 1995 को अकबरपुर आकर उसे जिला बनाने की घोषणा कर गयीं, लेकिन डॉ. लोहिया के बजाय डॉ. अम्बेडकर के नाम से. तब से जिले के मतदाता उनके ऐसे कृतज्ञ हुए कि सपा के लिए उनके गढ़ को ध्वस्त करना 2012 में ही संभव हुआ, जब मायावती सरकार के प्रति ऐंटीइंकम्बेंसी चरम पर पहुंच गयी. देखना है कि इस बार की बदली हुई परिस्थितियों में ये मतदाता कौन सा गुल खिलाते हैं.

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