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झारखंड में करम महोत्सव को लेकर दिख रहा है जबरदस्त उत्साह, जानें कैसे होती है पूजा

करम पूजा से पूर्व करमइत अथवा उपवास करने वाली लड़कियों से फूल ले लिया जाता है. फिर पारंपरिक विधि-विधान से बलि प्रथा के अनुसार, पूजा की जायेगी. पाहन द्वारा रंगुवा (लाल) मुर्गे की बलि दी जायेगी.

करम महोत्सव को लेकर खासा उत्साह है. अखड़ा की साफ-सफाई और साज-सज्जा अंतिम चरण में है. 25 सितंबर की शाम को अखड़ा में करम देव की स्थापना होगी, जिसके बाद पूजा की जायेगी. करम की कथा सुनायी जायेगी. अखड़ा में रात भर जागरण रहेगा. करम देव को लाने के लिए युवा सोमवार की शाम को ढोल, मांदर और नगाड़े के साथ नृत्य करते और गीत गाते निकलेंगे. डाली काटने के पूर्व करम वृक्ष की तीन बार परिक्रमा करेंगे और विधि-विधान से पूजा करेंगे. अर्पण, टीका -सिंदूर कर अरवा धागा लपेटेंगे. धुवन- धूप दिखाने के बाद पानी चढ़ायेंगे. करम देव से अर्जी-विनती करेंगे कि हमने विधि- विधान से पूजा की है. करम देव की डाली काट रहे हैं. यदि किसी तरह की भूल- चूक हुई हो, तो हमें क्षमा करें. इसके बाद करम देव को अखड़ा की ओर लायेंगे. अखड़ा पहुंचने से पूर्व वह करम की डाल को करमइत या उपवास रखने वाली लड़कियों को सौंप देंगे. इसके बाद पाहन- पहनाईन व अन्य लोग अखड़ा में तीन बार जल डालते हुए परिक्रमा कर करम देव को स्थापित करेंगे.

रात भर चलता है नृत्य- संगीत

करम पूजा से पूर्व करमइत अथवा उपवास करने वाली लड़कियों से फूल ले लिया जाता है. फिर पारंपरिक विधि-विधान से बलि प्रथा के अनुसार, पूजा की जायेगी. पाहन द्वारा रंगुवा (लाल) मुर्गे की बलि दी जायेगी. तपावन, फल- फूल, जावा आदि अर्पित किये जायेंगे. पाहन अर्जी विनती करते हुए करम देव की पूजा करेंगे. पूजा की समाप्ति के बाद करम की कथा सुनायी जायेगी़. प्रसाद का वितरण होगा. फिर रात भर करम का नृत्य- संगीत चलता है.

विधि-विधान से होता है विसर्जन

दूसरे दिन करम देव को उखाड़ा जाता है और उनका गांव के तमाम घरों में भ्रमण कराया जाता है. लोग करम देव को जल अर्पित करते हैं. प्रार्थना करते हैं कि हे करम देव, हमारे दुख- तकलीफ और पीड़ा को अपने साथ ले जाइये और अपने साथ ही उन्हें भी विसर्जित कर दीजिये. तालाब पहुंच कर नृत्य संगीत करते हुए अगरबत्ती- धूप दिखा कर इसे विधिविधान से विसर्जित किया जाता है. मौजा के मुख्य अखड़ा में राजी करम होता है. बाकी जगहों पर डिंडा करम होता है. अनावृष्टि, आपदा, विपत्ति के समय बूढ़ी करम मनाया जाता है. इसमें परिवार के बुजुर्ग सदस्यों की अहम भूमिका होती है. जहां राजी करम होता है, वहां पूजा के एक दिन के बाद विसर्जन की प्रथा है. वहीं, जहां डिंडा करम होता है, वहां पूजा के अगले दिन विसर्जन किया जाता है. जहां बूढ़ी करम होता है, वहां पूजा के बाद तुरंत ही विसर्जन कर दिया जाता है.

बहनें भाई की सलामती के लिए प्रार्थना करती हैं

– डॉ प्रदीप मुंडा, प्राध्यापक और

जनजातीय विषयों में शोधकर्ता

कृषि पर आधारित करम पर्व स्थापित करता है कि झारखंड के आदिवासी धान की खेती के जनक थे. शोध पत्र पत्रिकाओं से भी प्रमाणित होता है कि विश्व में धान की खेती करनेवाले सबसे पहले लोग मुंडा जनजाति के थे. जिन्होंने जल जंगल और जमीन के साथ अपना कभी न टूटने वाला एक आध्यात्मिक -मानसिक संबंध जोड़ लिया है. यह संबंध इतना प्रगाढ़ जुड़ा कि लोगों ने अपने नाम के साथ प्रकृति के नाम और उसके प्रतीकों को भी धारण कर लिया है. ऐसा अलौकिक उदाहरण पूरे संसार में और कहीं नहीं दिखता. कुछ समय पहले तक, जब खेतीबारी के लिए मशीन और बिजली का इस्तेमाल नहीं होता था, तब कृषि के सभी कार्य समाज के आपसी सहयोग या ”मदइती” के माध्यम से होते थे.

इस त्योहार में बहनें अपने भाई की सलामती और उनकी भलाई के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हैं और करम देवता को रक्षा सूत्र बांधकर समर्पित करती हैं. आदिवासी किशोरियां और बालिकाएं बालू मिट्टी में हल्दी के साथ तीन, पांच या सात अलग-अलग प्रकार के बीजों को मिलकर स्थापित करती हैं और क्रमशः तीन, पांच या सात दिनों तक उनकी सेवा करती हैं. इस प्रक्रिया को जावा जगाना कहा जाता है.

भाई-बहन के प्रेम का पर्व खुशहाली की होती है प्रार्थना

हातमा मौजा के मुख्य पाहन, जगलाल पाहन ने बताया कि करम पर्व भाई- बहन के प्रेम का पर्व है. बहनें भाई के दीर्घायु होने और उनके खुशहाल जीवन के लिए उपवास करती हैं. पूजा में पाहन इस बात के लिए प्रार्थना करते हैं कि खेत- खलिहान भरे-पूरे हों. अच्छी फसल हो, ताकि मानवता खुशहाल रहे. सबके जीवन में सुख और समृद्धि आये. सावन- भादो के महीने में सबका स्वास्थ्य भी अच्छा रहे.

पहले मौजा में एक ही स्थान पर मनाते थे करम :

पुराने समय में एक ही स्थान पर मौजा के अखड़ा में ही पूजा होती थी. पर आबादी बढ़ने के साथ अब एक ही मौजा में कई टोले हो गये हैं, जिनके अखड़ा में अलग अलग करम मनाया जाने लगा है. बाहर नौकरी करनेवाले इस पूजा के लिए अपने घर जरूर लौटते हैं. यह पर्व आपस में मिलने-जुलने और पूजा व इसकी तैयारी साथ करने का उल्लास लेकर आता है. मुख्य पाहन कहते हैं कि पहले पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुन पर पारंपरिक नृत्य और गीत होते थे,पर अब इसमें बदलाव आने लगा है. इसका मुख्य कारण धुमकुड़िया समाप्त हो गये हैं, अखड़ा मृतप्राय हैं. इसलिए बुजुर्ग इन परंपराओं को सिखा नहीं पाते हैं और न युवा इनका अभ्यास कर पाते हैं. इसलिए डीजे संगीत का प्रचलन बढ़ा है.

आदिवासियों ने प्रकृति को निकट से देखा है

हम आदिवासी प्रकृति पूजक हैं. जब से इस पृथ्वी पर मानव की सृष्टि हुई और उनका विकास हुआ है और सोचने समझने की शक्ति बढ़ी, तब से आज तक आदिवासी प्रकृति की पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं. आदिवासियों ने प्रकृति को एकदम निकट से देखा, पहचाना और अनुभव किया कि प्रकृति से बढ़कर कोई शक्ति नहीं है. हम इस ब्रह्मांड में व्याप्त उन समस्त जीवों, चीजों की पूजा करते हैं, जिन्हें हम देख सकते हैं, स्पर्श कर सकते हैं और जिन्हें महसूस कर सकते हैं. जो हमारे जीवन के लिए जरूरी है. हम आदिवासियों की जीवन पद्धति प्रकृति के अनुसार चलती है. हर पूजा पाठ और त्योहार को प्रकृति से जोड़कर पूजा- अर्चना और आराधना करते हैं. करम पूजा भी प्रकृति पूजा का पर्व है. इस पूजा में करम की तीन डालियों की पूजा की जाती है. यह पर्व भाई- बहन के प्रेम का संदेश देता है. खेती-बारी समेटने की पूजा है. हमारे लिए धर्म के साथ कर्म करना भी आवश्यक है, तभी हम अपने को आनंदमय और गरिमामय में बना सकते हैं.

आदिवासियों की धर्मे ने करम पेड़ के जरिये रक्षा की

देवकुमार धान, पूर्व मंत्री

आदिवासियों की मान्यता के अनुसार करम राजा सर्वशक्तिमान भगवान (धर्मे) हैं, जिन्हें वह सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और हर संकट से बचाने वाला पिता व राजा मानते हैं. जिसने आदिवासियों को बचाने के लिए एक विशाल गुफा में छिपने का रास्ता दिखलाया और दरवाजे पर खड़े करम पेड़ की घनी डालियों को ऐसे झुका दिया कि गुफा का पूरा दरवाजा ढंक गया. दुश्मन पीछा करते हुए गुफा के सामने से निकल गये, पर उन्हें तनिक भी आभास नहीं हुआ कि वहां पर आदिवासी युवतियां छुपी हुई हैं. जब थक-हार कर दुश्मन लौट गये, तब वह वह बाहर निकलीं और करम पेड़ के नीचे जमा होकर ईश्वर को जवा फूल और सिंदूर अर्पित कर पूजा की. दुश्मनों के भय से वह जंगल में फूल तोड़ने के लिए नहीं जा सकती थीं, इसलिए उनके खाने की जो सामग्री मकई इत्यादि के दाने गुफा के इधर-उधर गिर गये थे, अंकुरित होकर दो-दो पत्ते लिये हुए थे, उन्हीं को फूल बनाकर करम राजा को चढ़ाया था. इसी घटना के बाद आदिवासियों ने करम डाली को करम राजा का नाम दिया.

पुरखों ने पर्व को पर्यावरण सुरक्षा से जोड़ा

जिंदा रहने के लिए मनुष्य को हवा की आवश्यकता होती है और हवा वृक्षों के जरिये प्राप्त होती है. आदिवासी समाज इन वृक्षों को पूजता है और पर्यावरण की रक्षा भी करता है. प्रकृति पर्व करम आदिवासियों का प्रमुख पर्व है. प्रकृति संरक्षण के साथ- साथ धर्म और अधर्म के बीच की दूरियों को बताता है. इस त्योहार में सदान भी शामिल होते हैं. पूर्वजों ने इस पर्व को पर्यावरण सुरक्षा के साथ जोड़ा है. हम इसे हर्षोल्लास, भाईचारा और प्रेम के साथ मनाते हैं.

करम पूजा प्रकृति की पूजा का पर्व है. गांव और शहर, हर जगह करम पूजा मनायी जा रही है. करम पूर्व संध्या कार्यक्रम में शामिल होकर काफी अच्छा लग रहा है. यह हमारी संस्कृति को दर्शाता है.

पूजा तिर्की, चुटिया

करम पूजा करमा धरमा की कहानियों से हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है. अब यह सामाजिक रूप में काफी व्यापक स्तर पर आयोजित किया जाने लगा है. कर्म वृक्ष की डाल को तोड़कर पाहन द्वारा पूजा की जाती है.

कृष्णा गोप, पिस्का नगड़ी

करम पूजा की पूर्व संध्या पर अब बड़े स्तर पर कई जगह पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं. दूर-दूर से युवाओं का समूह शामिल होता है. अरगोड़ा मैदान में आयोजित कार्यक्रम में शामिल होकर काफी अच्छा लगा रहा है.

पप्पू महतो, ओरमांझी

करम पर्व सुख समृद्धि की कामना के लिए मनाते हैं. हर साल यह व्यापक स्तर पर मनाया जाने लगा है. अखड़ा में सामूहिक रूप से पूजा की जाती है. इस पर्व का इंतजार हर किसी को रहता है. झारखंड का यह मुख्य त्योहार है. सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होकर काफी अच्छा लगता है.

प्रीतम महतो, गेतलातु

यह प्रकृति को जिंदा रखने के उद्देश्य से मनाया जाता है. यह हमारा प्रमुख त्योहार है. हर जगह खुशी से मनाया जाता है. हम लोगों के गांव घर में भी इसकी पूजा जोर-जोर से की जाती है.

मंजरी कुमारी, कोकर

मैं करमा अपने भाई और परिवार की सुख-समृद्धि के लिए करती हूं. सामूहिक रूप से मिलकर पूजा करते हैं और उपवास रखते हैं. इस का हम बहनों को बेसब्री से इंतजार रहता है.

राखी कुमारी, धुर्वा

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