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हिंदी ने निखारा साहित्य-सिनेमा-संगीत, पश्चिम की खिड़कियों ने बंद किया हिंदी का किवाड़ राजलक्ष्मी सहाय सिर्फ भाषा नहीं ‘हिंदी’. हृदय पर अंकित शब्द मुझे चारों धामों की यात्रा सा सुकून देता है. ‘हिंदी’ कहें या ‘दुर्गा’-‘लक्ष्मी’ -‘सरस्वती’ या ‘महाकाली’ सब एक से लगते हैं. हिंदी को तिरंगा थामे भारत माता कहें या अविरल वात्सल्य प्रवाहित […]

हिंदी ने निखारा साहित्य-सिनेमा-संगीत, पश्चिम की खिड़कियों ने बंद किया हिंदी का किवाड़
राजलक्ष्मी सहाय
सिर्फ भाषा नहीं ‘हिंदी’. हृदय पर अंकित शब्द मुझे चारों धामों की यात्रा सा सुकून देता है. ‘हिंदी’ कहें या ‘दुर्गा’-‘लक्ष्मी’ -‘सरस्वती’ या ‘महाकाली’ सब एक से लगते हैं. हिंदी को तिरंगा थामे भारत माता कहें या अविरल वात्सल्य प्रवाहित करती गंगा. प्रभात की लालिमा या गोधूलि का काजल. शक्तिस्वरूप हिंदी ने भूमंडल से अंतरिक्ष तक को जीवंत किया है. तलवार की धार से भी तीक्ष्ण और नव पल्लव से भी कोमल. सरस्वती का ज्ञान कलश या लक्ष्मी का समृद्ध सौंदर्य या फिर महाकाली का विनाशक तेज हिंदी का ही रूप है. संपूर्ण मानव संवेदना को हिंदी ने पाला है – झुलाया है – रुलाया है. संवेदना मूक ही होती अगर हिंदी न होती.
हिंदी शब्द झांसी की रानी को युद्धभूमि में विद्युत की भांति चकाचौंध में ले आता है, तो कभी शहीदों की माताअों के नयन कोरों पर ठहरे आंसुअों की झलक दिखा देता है. सचमुच हिंदी भाषा ही नहीं, प्राणशक्ति है जिससे भारत माता की अभिव्यक्ति का परिचय मिलता है. भारत माता को नमन – हिंदी को नमन. हिंदी में इस देश की माटी का इतिहास, भूगोल, दर्शन, साहित्य, कला, सौंदर्य सबकुछ ऐसे ही समाया है, जैसे किसी महाग्रंथ के सुनहले पन्ने. हिंदी दिवस हमारी समृद्ध सोच, अभिव्यक्ति का पर्व है. बिना ईमानदार समर्पण और सच्ची श्रद्धा के केवल दिवस मना कर इसे बिसराने की भूल न करे समाज.
नवरात्र समीप है. मां दुर्गा की आहट हिंदी दिवस की शक्ल में सामने है. दसों हाथों के आयुध मानो हिंदी के ही अनुपम छवि और शक्ति का बखान करते हुए लगते हैं. खड्ग के रूप में हिंदी ललकारती है. उन शत्रुओं को जिनकी गिद्ध आंखें सदैव इस धरती को निगल जाने पर उद्यत है. ‘ढाल’ बन कर खड़ी हो जाती है हिंदी जब सीमाअों पर दुश्मन वीरों की छातियों को छलनी करने की हिमाकत करता है. ‘त्रिशूल’ थामे हिंदी चीख कर कहती है –
‘‘तुम हमारी चोटियों की बर्फ को यूं न कुरे दो
दहकता लावा हृदय में है कि हम ज्वालामुखी हैं’’
‘पद्म’ धारण कर हिंदी संकेत करती है कि पंक से लिपट कर भी आत्मा निर्मल बनी रहे. देवी हिंदी का ‘कमंडल’ अपने भक्तों पर आशीष मंत्रों का छिड़काव करता सा -और सबसे बढ़ कर वरदहस्त. जिसके माथे पर इस देवी ने हाथ रखा वही साहित्य स्तंभ बन गया. मानो मील का पत्थर. श्वेतवसन धारण किया हिंदी ने तो निराला की कलम से रचित
‘वीणा वादिनी वर दे’
कानों में रस घोल गयी. काली स्वरूपा हिंदी की जीभ लपलपाई तो
‘चिनगारी बन गयी लहू की बूंद
गिरी जो पग से … ’
मानो रक्तबीज के सफाया का संकल्प हो. ऐसी दुर्गास्वरूपा हिंदी को प्रणाम.
हिंदी के शब्दों का ही जादू था कि कवि, कथाकार, आलोचक, शायर, नाटककार, गीतकारों ने भक्ति, शृंगार, वात्सल्य, रौद्र और वीर रस को एक नयी ऊंचाई दी. हिंदी के सपूतों ने जब-जब हिंदी के महासागर का मंथन किया तब-तब शब्द कभी अंगारे, कभी फूल, कभी करुणा, कभी समर्पण, कभी सौंदर्य बन कर निकले.
कलेजे के पत्थर में आत्मा के तार बांध कर हिंदी के सागर का मंथन उस अलौकिक घटना से क्या कम है, जिसमें सागर मंथन से चौदह रत्न निकले थे? बल्कि हिंदी के रत्न तो जगमग करते आज भी मार्ग प्रशस्त करने को अडिग अमर तैयार हैं. हिंदी के चरणों में शब्दों के नये-नये कलेवर अर्पित होते गये. कितनी अभिभूत होंगी यह देवी की कभी. चंद नमूने ही काफी हैं हिंदी के चमत्कार के.
हिंदी की छाया में राष्ट्रप्रेम जाग्रत हुआ – माखनलाल चतुर्वेदी ने मानवता की मंजिल तय कर दी –
‘‘मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ में देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीष चढ़ाने
जिस पथ जायें वीर अनेक’’
संग-संग दिनकर की हुंकार बन कर हिंदी ने ललकारा
‘‘कह दे शंकर से आज करें
वे प्रलय नृत्य फिर कर एक बार’’
इस हुंकार को सुन ऐलान किया हिंदी ने
‘‘निर्भय स्वागत करो मृत्यु का’’
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कलम जब हिंदी के नाम कुरबान हुई, तो सर्वश्रेष्ठ धर्म मानवता पर पक्की मुहर लगी –
‘‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मेरे’’
हरिवंश राय बच्चन जीवन के घटाटोप अंधकार से विचलित हुए तो हिंदी जननी ने हाथ थाम लिया. फिर तो –
‘‘जो बीत गयी सो बात गयी’’ और ‘‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’’
का महामंत्र लोगों को मिला. सदैव आगे चलने की प्रेरणा मिली. मानो जीने की चाबी मिल गयी.
सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता में हिंदी लक्ष्मीबाई बन अंगरेजों के दांत खट्टे करती नजर आयी
‘‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झांसी वाली रानी थी.’’ (जारी)

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